जयपुर : धनतेरस पर स्वामी लच्छी राम जी की आयुर्वेदिक दवा बांटा जाना, रूप चौदस पर जनाना ड्योढ़ी में उबटन लगाया जाना, दीपावली पर लक्ष्मी पूजन के बाद सार्वजनिक आतिशबाजी, गोवर्धन पूजा के दिन अन्नकूट के साथ खीर की प्रसादी बांटना जयपुर के विरासत का हिस्सा रही है. राजा-रजवाड़ों के समय से ही जयपुर में दीपावली महापर्व के रूप में मनाते रहे हैं. पहले मिर्जा राजा मानसिंह के समय आमेर में अफगानी और शोरगरों ने पटाखे बनाने शुरू किए. राज दरबार की उस पर सील लगा करती रहती थी और एक सार्वजनिक रोशनी आमेर के बाग जलेब चौक में होती थी. जब सवाई जयसिंह ने जयपुर बसाया तो ये परिपाटी यहां भी शुरू की गई.
सीतारामद्वारा में हवन के साथ पर्व की शुरुआत : राजधानी में दीपोत्सव के दौरान होने वाली रोशनी और आतिशबाजी का इतिहास जयपुर की विरासत से जुड़ा है. स्टेट पीरियड में यहां राज दरबार और रनिवास असंख्य दीपों से जगमग होते थे. सिटी पैलेस के प्रीतम निवास में सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे. इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि जयपुर राज परिवार राम के वंशज हैं. इसी वजह से जयपुर राजघराने के लिए दीपावली सबसे बड़ा महोत्सव हुआ करता था. यहां सिटी पैलेस में दीवान-ए-खास में दरबार लगता था. राजा-महाराजा उस दिन काली पोशाक धारण कर सरदारों के साथ बैठकर दरबार लगाते थे. जनानी ड्योढ़ी में पटरानियों का अलग दरबार लगता था. वहां राज परिवार की महिलाएं नीले रंग की पोशाक धारण करती थीं. सीतारामद्वारा में हवन के साथ पर्व की शुरुआत होती थी.
आतिशबाजी का विशेष इंतजाम : इतिहासकार भगत ने बताया कि जयपुर में शाम को सार्वजनिक आतिशबाजी हुआ करती थी, जिसमें विशेष रूप से तैयार किए गए पटाखों का इस्तेमाल किया जाता था. मिर्जा राजा मानसिंह अफगानी और शोरगर को अफगानिस्तान से उनके खास उम्र की वजह से आमेर लेकर के आए थे. जब जयपुर की स्थापना हुई तो इन्हीं शोरगरों को जयपुर में बसाया गया. यह दीपावली पर आतिशबाजी बनाया करते थे, जिस पर राजघराने की सील लगी होती थी. एक बार जीवाजी राव सिंधिया का भी दीपावली के समय जयपुर आना हुआ था, तो उन्होंने जब जयपुर की दीपावली के लिए कहा कि ऐसा नजारा उन्होंने पहले कभी नहीं देखा. इसी तरह यहां ब्रिटिश मेहमान भी आया करते थे. उनके लिए भी चांदनी चौक में आतिशबाजी का विशेष इंतजाम किया जाता था और करीब साढ़े तीन घंटे आतिशबाजी हुआ करती थी.
नगर सेठ की उपाधि भी दी जाती थी : भगत ने इतिहास के पन्नों से बताया कि दीपावली पर जयपुर में दीवान-ए-खास में जो सभा होती थी, उसका भी अपना एक विशेष महत्व हुआ करता था. उसमें साल भर रियासत में क्या हुआ, उसका ब्यौरा लिया जाता था और जो सामंत-सरदार जयपुर से दूर रहते थे, वो भी इस दरबार में पहुंचते थे. इसी दौरान राजा का अपना सामंतों से मेल-मिलाप बढ़ता था. लक्ष्मी पूजा हुआ करती थी, जिसमें नगर सेठ भी शामिल हुआ करते थे. नगर सेठ की उपाधि भी दीपावली पर ही दी जाती थी, जिसमें ये भी निर्धारित किया जाता था कि अब ये नगर सेठ हाथी पर बैठ सकते हैं, सोना पहन सकते हैं.
ये रही है परंपरा : उन्होंने बताया कि शाम को माता लक्ष्मी की पूजा-आराधना करने के बाद राजा महाराजा नगर भ्रमण पर निकला करते थे और इसी दौरान जयपुरवासियों के लिए विशेष आतिशबाजी का कार्यक्रम हुआ करता था. जयनिवास बाग और चौपड़ों पर आमजन के लिए आतिशबाजी हुआ करती थी. वर्तमान में जयपुर में होने वाली रोशनी और आतिशबाजी का ये चलन रियासतकाल से ही चला आ रहा है. इसी तरह जनानी ड्योढ़ी में पटरानियों का दरबार लगता था और वहां उनके लिए विशेष आतिशबाजी हुआ करती थी. जयपुर की पुरोहित परिवार की महिलाएं भोजन लेकर पहुंचती थी. वहीं, दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजा पर अन्नकूट हुआ करता था. ग्वालेरा हाउस में बड़ी-बड़ी हांडियों में भोजन बनाया जाता था. इसी दिन सिटी पैलेस में स्थित राजराजेश्वर मंदिर भी आमजन के लिए खुलता था. इसी दिन लोग सिटी पैलेस भी देख पाते थे. गोवर्धन पूजा के दिन अन्नकूट के साथ खीर की प्रसादी बांटना भी जयपुर के विरासत का हिस्सा रही है.