पटना : बिहार की राजधानी पटना का एक कब्रिस्तान 250 साल से अधिक पुराने इतिहास को समेटे हुए है. यह कभी अंग्रेजों का कब्रिस्तान हुआ करता था जो आज ईसाइयों का कब्रिस्तान है. इसे पटना कब्रिस्तान के नाम से भी जाना जाता है. ईसाइयों के लिए पटना का यह सबसे पुराना कब्रिस्तान है. यहां कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट दोनों के शव दफन होते हैं. 3.5 एकड़ में फैले इस कब्रिस्तान का लगभग 261 वर्ष पुराना इतिहास मिलता है.
दर्जनों कब्र देता है गवाही : वैसे यहां 2 साल 2 महीने के बच्चे जॉर्ज हॉर्टियो का कब्र है जिसे 14 जून 1826 को दफन किया गया था. यहां एमएम थॉमसन और मैरी की 3 साल की बच्ची का कब्र है, जिसे 20 सितंबर 1826 को दफन किया गया था. यहां 13 साल के हेनरी किटिंग का कब्र है, जिसे 12 सितंबर 1804 को दफन किया गया था, जो अंग्रेज अधिकारी क्रिस्टोफर किटिंग का बेटा था. ऐसे यहां कई दर्जन कब्र हैं जो वर्षों पुराने इस कब्रिस्तान की गवाही देते हैं.
70 फीट ऊंची मीनार शौर्य की देती है गवाही : बात इस कब्रिस्तान की इसलिए की जा रही है क्योंकि यह कब्रिस्तान पटना में अंग्रेजों से प्रथम संग्राम के शौर्य की गाथाओं को दफन किए हुए हैं. राजधानी पटना के पटना सिटी इलाके के गुरहट्टा में कब्रिस्तान में एक 70 फीट ऊंचा मीनार है, जिसकी कहानी अपने आप में बहुत ही दिलचस्प है. पर्शियन शैली में बना यह मीनार पुरखों के शौर्य की गाथाओं को दफन किए हुए हैं.
हत्या कर कुएं में फेंक दिया था : दरअसल यह मीनार एक कुएं के ऊपर बनाया गया है. साल 1763 में नवाब के सैनिकों और स्थानीय लोगों ने पटना फैक्ट्री के सभी अंग्रेज अधिकारियों को बंधक बनाकर हत्या की थी और इस कुएं में फेंक दिया था. बाद में 1857 में भारत में सत्ता स्थापित करने के बाद अंग्रेजों ने 1880 में अपने साम्राज्य की स्थापित होने की उद्घोषणा को लेकर इस कुएं के ऊपर 70 फीट ऊंचा मीनार स्थापित किया.
पटना में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का पहला साक्ष्य : इतिहासकार इम्तियाज अहमद बताते हैं कि यह घटना अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का पटना में पहला उदाहरण है. 198 कत्ल की जो बात है उसपर इतिहासकारों में मतभेद है. 72 कत्ल के साक्ष्य मिले हैं. युद्ध में अंग्रेजों की हत्या हुई थी, लेकिन इतना बड़ा यह नरसंहार हुआ था या नहीं, इस पर इतिहासकारों में विवाद है.
''ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब अपनी शासन की जड़ों को फैलाना शुरू किया, तब मीर कासिम जो बंगाल का नवाब हुआ करता था वह पूरब से पश्चिम की ओर शिफ्ट होने लगा. मुर्शिदाबाद के बाद उसने 1762 में मुंगेर को राजधानी बनाया. लेकिन अंग्रेज उसके पीछे पड़े रहे और इसी दौरान वाल्टर रीनहार्ट जिसे सुमेरु भी कहा जाता था उसने 1763 में इस घटना को अंजाम दिया.''- इम्तियाज अहमद, इतिहासकार
इतिहासकार मानते हैं विवादास्पद : पटना विश्वविद्यालय के इतिहास के प्राध्यापक प्रोफेसर मयानंद बताते हैं कि इस घटना के संबंध में कोई प्रारंभिक लेखन नहीं मिला है. इस घटना का सर्वप्रथम उल्लेख जेम्स टॉलबॉयज व्हीलर ने अपनी पुस्तक अर्ली रिकॉर्ड्स ऑफ बिहार में किया है. यह पुस्तक 1878 में पब्लिक हुई थी जिसके बाद 1880 में पुस्तक के रिकॉर्ड्स के आधार पर स्मारक के तौर पर मीनार बनाया गया. पुस्तक में एक चैप्टर अलग है पटना मैसेकर.
''अगर इतिहास लेखन के संदर्भों और अंग्रेजो के उद्देश्य को देखें तो स्पष्ट होता है की वो भारतीय की बर्बर समझते थे और खुद को सभ्य. भारत पर अपनी शासन के औचित्य को सिद्ध करने के प्रयास द्वारा इस प्रकार के झूठा तथ्य इतिहास लेखन गढ़ने की कोशिश की गई है. ऐसा इसलिए क्योंकि 1764 के उपरांत बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन तंत्र की स्थापना के उपरांत भी इस प्रकार के स्मारक नहीं बनाए गए. तत्कालीन रिकॉर्ड या इतिहास लेखन में भी इसका कोई उल्लेख नहीं है.''- प्रोफेसर मयानंद, इतिहास के प्राध्यापक, पटना विश्वविद्यालय
198 अंग्रेजों की हुई थी हत्या : इस कब्रिस्तान के केयरटेकर सुनील कुमार ने बताया कि यह कहानी 1763 की है. पटना का इलाका पटना सिटी के पूर्वी द्वार से पश्चिमी द्वार के बीच बसता था. स्थानीय शासक मीर कासिम जब अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा था, उस समय मीर कासिम के सिपाही पटना आने जाने वाले अंग्रेजों को बंधक बना लेते थे.
''यहां पटना फैक्ट्री हुआ करता था जिसमें कई अंग्रेज अधिकारी काम करते थे और सभी को बंदी बना लिया गया था. जब मीर कासिम अंग्रेजों से युद्ध हार गए, उसके बाद सिपाहियों ने सभी अंग्रेजों की हत्या करके कुएं में फेंक दिया. कुल 198 अंग्रेज अधिकारियों की हत्या हुई थी.''- सुनील कुमार, कब्रिस्तान का केयरटेकर
घटना में जर्मन कर्मचारियों की भूमिका : सुनील कुमार ने बताया कि इस घटना के संबंध में शीलापट्ट पर जानकारियां उपलब्ध हैं. ईस्ट इंडिया कंपनी से हारने के बाद आमिर कासिम के जर्मन सलाहकार वाल्टर रीनहार्ट ने इस घटना को अंजाम देने में मुख्य भूमिका निभाई थी. बंदी अंग्रेजों की 1763 के दो अलग-अलग तिथि 5 अक्टूबर और 11 अक्टूबर को हत्या हुई थी.
''पटना फैक्ट्री का एक सर्जन डॉ फुलरटन इसमें बच पाने वाला एकमात्र व्यक्ति था. यह हत्याकांड दो जगह पर हुआ. पहला हत्याकांड अली वर्दी खां के एक भाई हाफिज अहमद के घर पर जो अभी के चैरिटेबल डिस्पेन्सरी के स्थान पर है. दूसरा हत्याकांड एक 40 खंभों वाले हॉल 'चहल सातून' जो अभी के मदरसा मस्जिद की बगल में चिमनी घाट पर है, वहां हुआ था.''- सुनील कुमार, कब्रिस्तान का केयरटेकर
क्या कहते हैं स्थानीय ? : स्थानीय लालजी कुमार बताते हैं कि यह जगह पूर्वजों के शौर्य की कहानी से भरपूर है. अंग्रेज जब बंगाल से आगे बढ़ते हुए बिहार में सत्ता स्थापित करना चाहते थे, उस दौरान लोगों ने अंग्रेजों को भगाने के लिए जो संग्राम लड़ा था उसकी कहानी यहां दबी हुई है. स्थानीय लोग भी इतिहास में पढ़ते हैं लेकिन इस जगह के बारे में अच्छे से नहीं जानते हैं.
''आज यह मीनार खंडहर होने की राह पर चल पड़ा है, सरकार इसका संरक्षण करती तो सरकार को भी कुछ पैसे आते और लोग भी अपने गौरवशाली इतिहास से रूबरू होते. यहां अंग्रेजों की हत्या हुई थी, जिसके बाद लोग इसे गोरे हत्या कहने लगे. धीरे-धीरे लोग इसे गुरहट्टा कहने लगे.''- लालजी कुमार, स्थानीय
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