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वनों का वैज्ञानिक प्रबंधन: अब वन औषधियों के अध्ययन से तैयार होंगी दवाएं, पारंपरिक ज्ञान को किया जायेगा लिपिबद्ध - Jhabua Research on Forest Medicines - JHABUA RESEARCH ON FOREST MEDICINES

सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक और एसईआईएए के चेयरमैन डॉ. पीसी दुबे के द्वारा वन औषधियों के उपयोग और पारंपरिक तरीकों को लिपिबद्ध करने का काम किया जा रहा है. डॉ. दुबे के मुताबिक, अरविंदो मेडिकल कॉलेज के द्वारा इन वन औषधियों और इनके उपयोग के तरीकों पर वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन कर दवाई तैयार की जाएगी.

RESEARCH ON FOREST MEDICINES
वन औषधियों का अध्ययन कर तैयार की जाएंगी दवाइयां (Etv Bharat)
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : May 7, 2024, 3:10 PM IST

झाबुआ। दूरस्थ अंचल में ग्रामीण आज भी पारंपरिक रूप से वन औषधि का उपयोग बीमारियों के उपचार में करते आ रहे हैं. वक्त के साथ कहीं ये ज्ञान विलुप्त न हो जाए, लिहाजा इसे अब एक क्रम से लिखा जा रहा है. इस कार्य का बीड़ा सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक और राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) के चेयरमैन डॉ. पीसी दुबे ने उठाया है. वह न केवल उपचार के इन पारंपरिक तरीकों को लिखने में लगे हैं, बल्कि इनके अध्ययन के जरिए वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन की योजना पर भी काम कर रहे हैं.

इन पेड़ों को आज भी नहीं काटते हैं आदिवासी

गौरतलब है कि जनजाति समुदाय की जीवनशैली में बचपन से लेकर मृत्यु तक वन और वृक्ष गहराई से जुड़े हैं. उनके रीति-रिवाज, मान्यताओं, वनों का औषधि के रूप में उपयोग और यहां तक की लोकगीत और लोकोक्तियों में भी वनों का अत्यधिक महत्व है. इस ज्ञान को सहेजने की दिशा में ही डॉ. दुबे के द्वारा शोध कार्य किया जा रहा है. डॉ. दुबे ने बताया कि ''लोक संस्कृति में वृक्ष और वनस्पतियों का अलग-अलग प्रकार से वर्णन किया गया है. इन परंपराओं के फलस्वरूप ही अप्रत्यक्ष रूप से जंगलों की सुरक्षा सदियों से होती आ रही है. वर्तमान में उस पारंपरिक ज्ञान पर अध्ययन कर वनों के प्रबंधन की दिशा कार्य करने की आवश्यकता है.'' डॉ. दुबे के द्वारा जनजाति समुदाय की गौत्र और उनसे जुड़ी वृक्ष प्रजातियों पर भी अध्ययन की योजना है, क्योंकि अपनी गौत्र से जुड़े वृक्ष को आदिवासी आज भी नहीं काटते हैं.

जनजाति वर्ग से जुड़े जानकारों से किया संवाद

अपने शोध के सिलसिले में खास तौर पर झाबुआ पहुंचे डॉ. दुबे ने अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों से चर्चा की. इस दौरान इतिहासविद् डॉ. केके त्रिवेदी ने बताया कि किस तरह से वृक्षों के अनुसार जोबट, आंबुआ और बोरखड़ जैसे गांवों के नाम रखे गए हैं. वहीं, भीली भाषा और संस्कृति को सहेजने में लगे शिक्षक एवं आदिवासी साहित्यकार मंगला गरवाल व लोक कलाकार अन्नू भाबर ने बताया कि स्थानीय लोक गीतों और त्योहारों में किस तरह से वन और पेड़-पौधों व प्रकृति को शामिल किया गया है. उन्होंने अपने गीत में काकड़िया वृक्ष की मान्यता के बारे में भी बताया. जबकि पीपलखूंटा के बुजुर्ग आदिवासी वैद्य मनसुख डामोर ने कई वन औषधियों के उपयोग के पुराने तरीकों की जानकारी देते हुए डॉ. दुबे को अचरज में डाल दिया. यहां डीएफओ एचएस ठाकुर ने भी ग्राम वन समितियों से जुड़े ऐसे सदस्यों से डॉ. दुबे को मिलवाया जो पारंपरिक रूप से वन औषधि का उपयोग करते आ रहे हैं.

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इन 12 जिलों में किया जा रहा है शोध

इस शोध कार्य के लिए झाबुआ के साथ ही जनजाति बहुल जिले अलीराजपुर, धार, डिंडोरी, मंडला, सीधी, श्योपुर कला, बैतूल, सिवनी, छिंदवाड़ा, खंडवा और अनूपपुर को शामिल किया गया है. डॉ. पीसी दुबे ने बताया कि ''ग्रामीणों से चर्चा कर औषधीय पौधों के उपयोग के बारे में जानकारी ली जा रही है. इसके आधार पर अरविंदो मेडिकल कॉलेज के द्वारा इन वन औषधि और इनके उपयोग के तरीकों पर वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाएगा. फिर इसके जरिए दवाई तैयार की जाएगी और जो भी मुनाफा होगा उसका उपयोग वनवासियों के उत्थान के लिए किया जाएगा''. डॉ पीसी दुबे ने आगे बताया कि ''मैंने अपने सेवा काल में लंबे समय तक वनों को देखा, लेकिन जनजाति समुदाय में वनों को लेकर जो पारम्परिक ज्ञान है उससे एक नया दृष्टिकोण प्राप्त हुआ है. यह एक ऐसा सरल और सुलभ रास्ता हो सकता है, जिससे वन और वनवासियों के परस्पर टूटे हुए संबंधों को पुनः स्थापित किया जा सकता है.''

झाबुआ। दूरस्थ अंचल में ग्रामीण आज भी पारंपरिक रूप से वन औषधि का उपयोग बीमारियों के उपचार में करते आ रहे हैं. वक्त के साथ कहीं ये ज्ञान विलुप्त न हो जाए, लिहाजा इसे अब एक क्रम से लिखा जा रहा है. इस कार्य का बीड़ा सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक और राज्य पर्यावरण प्रभाव आकलन प्राधिकरण (एसईआईएए) के चेयरमैन डॉ. पीसी दुबे ने उठाया है. वह न केवल उपचार के इन पारंपरिक तरीकों को लिखने में लगे हैं, बल्कि इनके अध्ययन के जरिए वनों के वैज्ञानिक प्रबंधन की योजना पर भी काम कर रहे हैं.

इन पेड़ों को आज भी नहीं काटते हैं आदिवासी

गौरतलब है कि जनजाति समुदाय की जीवनशैली में बचपन से लेकर मृत्यु तक वन और वृक्ष गहराई से जुड़े हैं. उनके रीति-रिवाज, मान्यताओं, वनों का औषधि के रूप में उपयोग और यहां तक की लोकगीत और लोकोक्तियों में भी वनों का अत्यधिक महत्व है. इस ज्ञान को सहेजने की दिशा में ही डॉ. दुबे के द्वारा शोध कार्य किया जा रहा है. डॉ. दुबे ने बताया कि ''लोक संस्कृति में वृक्ष और वनस्पतियों का अलग-अलग प्रकार से वर्णन किया गया है. इन परंपराओं के फलस्वरूप ही अप्रत्यक्ष रूप से जंगलों की सुरक्षा सदियों से होती आ रही है. वर्तमान में उस पारंपरिक ज्ञान पर अध्ययन कर वनों के प्रबंधन की दिशा कार्य करने की आवश्यकता है.'' डॉ. दुबे के द्वारा जनजाति समुदाय की गौत्र और उनसे जुड़ी वृक्ष प्रजातियों पर भी अध्ययन की योजना है, क्योंकि अपनी गौत्र से जुड़े वृक्ष को आदिवासी आज भी नहीं काटते हैं.

जनजाति वर्ग से जुड़े जानकारों से किया संवाद

अपने शोध के सिलसिले में खास तौर पर झाबुआ पहुंचे डॉ. दुबे ने अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों से चर्चा की. इस दौरान इतिहासविद् डॉ. केके त्रिवेदी ने बताया कि किस तरह से वृक्षों के अनुसार जोबट, आंबुआ और बोरखड़ जैसे गांवों के नाम रखे गए हैं. वहीं, भीली भाषा और संस्कृति को सहेजने में लगे शिक्षक एवं आदिवासी साहित्यकार मंगला गरवाल व लोक कलाकार अन्नू भाबर ने बताया कि स्थानीय लोक गीतों और त्योहारों में किस तरह से वन और पेड़-पौधों व प्रकृति को शामिल किया गया है. उन्होंने अपने गीत में काकड़िया वृक्ष की मान्यता के बारे में भी बताया. जबकि पीपलखूंटा के बुजुर्ग आदिवासी वैद्य मनसुख डामोर ने कई वन औषधियों के उपयोग के पुराने तरीकों की जानकारी देते हुए डॉ. दुबे को अचरज में डाल दिया. यहां डीएफओ एचएस ठाकुर ने भी ग्राम वन समितियों से जुड़े ऐसे सदस्यों से डॉ. दुबे को मिलवाया जो पारंपरिक रूप से वन औषधि का उपयोग करते आ रहे हैं.

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इस शोध कार्य के लिए झाबुआ के साथ ही जनजाति बहुल जिले अलीराजपुर, धार, डिंडोरी, मंडला, सीधी, श्योपुर कला, बैतूल, सिवनी, छिंदवाड़ा, खंडवा और अनूपपुर को शामिल किया गया है. डॉ. पीसी दुबे ने बताया कि ''ग्रामीणों से चर्चा कर औषधीय पौधों के उपयोग के बारे में जानकारी ली जा रही है. इसके आधार पर अरविंदो मेडिकल कॉलेज के द्वारा इन वन औषधि और इनके उपयोग के तरीकों पर वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाएगा. फिर इसके जरिए दवाई तैयार की जाएगी और जो भी मुनाफा होगा उसका उपयोग वनवासियों के उत्थान के लिए किया जाएगा''. डॉ पीसी दुबे ने आगे बताया कि ''मैंने अपने सेवा काल में लंबे समय तक वनों को देखा, लेकिन जनजाति समुदाय में वनों को लेकर जो पारम्परिक ज्ञान है उससे एक नया दृष्टिकोण प्राप्त हुआ है. यह एक ऐसा सरल और सुलभ रास्ता हो सकता है, जिससे वन और वनवासियों के परस्पर टूटे हुए संबंधों को पुनः स्थापित किया जा सकता है.''

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