मेरठ: Lok Sabha Election 2024 Result Date: सियासी पारा पूरे देश में इन दिनों चढ़ा हुआ है. लोकसभा चुनाव 2024 के पहले चरण का मतदान हो चुका है. दूसरे चरण का मतदान 26 अप्रैल को होना है. इस दिन पश्चिमी यूपी की भी आठ लोकसभा सीटों पर मतदान होगा.
जाटलैंड की बात ही अलग है. यहां की जनता ने ऐसे राजनीतिक धुरंधरों को भी पटखनी दे रखी है जो बेहद चर्चित रहे हैं. ऐसे नामों की फेहरिस्त काफी लंबी है. पश्चिमी यूपी में ऐसे कई राजनीति के महारथी भी चुनाव हारे जिन्हें जनता ने जब प्यार दिया तो वे सियासत में कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ते भी आसानी से चले गये.
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चौधरी चरण सिंह: इन बड़े नामों में सबसे पहला नाम आता है भारत रत्न चौधरी चरण सिंह का. देश में कोई शायद ही ऐसा अन्नदाता होगा जो इनके बारे में न जानता हो. पश्चिम की माटी से निकले चरण सिंह ने प्रदेश में मंत्री मुख्यमंत्री के ओहदे के अलावा केंद्रीय मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक के पद को भी सुशोभित किया. लेकिन उन्हें जनता ने खारिज भी किया. 1971 में चौधरी चरण सिंह ने पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था, लेकिन मुजफ्फरनगर की जनता ने उन्हें नकार दिया. उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था. हालांकि चरण सिंह बाद में वह बागपत लोकसभा सीट पर चुनाव लड़े और विजयी होते रहे.
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मायावती: देश के सबसे बड़े सूबे यूपी की चार बार मुख्यमंत्री रहीं मायावती ने भी सियासत में तमाम उतार चढ़ाव देखे हैं. कभी पश्चिमी यूपी की जनता ने इन्हें भी खारीज कर दिया था. मायावती ने राजनीति की शुरुआत में 1984 में कैराना से चुनाव लड़ा था, लेकिन उनको तब हार का सामना करना पड़ा था. इसके बाद उन्होंने 1989 में बिजनौर का रुख किया और बिजनौर लोकसभा क्षेत्र की जनता के दिल में जगह बनाने में वह सफल रहीं. उन्हें जीत का स्वाद चखने को मिला. लेकिन उसके बाद 1991 में मायावती को दूसरा मौका यहां की जनता ने नहीं दिया. वह चुनाव हार गईं.
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कांशीराम: बसपा के संस्थापक कांशीराम भी प्रदेश की सियासत में बड़ा नाम रहे हैं. 1998 में सहारनपुर लोकसभा सीट से बीएसपी संस्थापक कांशीराम चुनावी रण में उतरे लेकिन, जनता ने उनका साथ नहीं दिया. उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था.
मुफ्ती मोहम्मद सईद: देश के गृह मंत्री रहे मुफ्ती मोहम्मद सईद ने यूपी वेस्ट की मुजफ्फरनगर लोकसभा सीट को अपने लिए चुना था. जनता ने उन पर खूब प्यार बरसाया, जबकि वह कश्मीर के रहने वाले थे. 1989 में उन्होंने मुजफ्फरनगर से जीत हासिल की. लेकिन वे जनता के प्यार को संभाल नहीं पाए. यहां की जनता ने 1991 में उनके दावे की हवा निकाल दी थी. उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा था.
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चौधरी अजित सिंह: अब बात करते हैं पश्चिमी यूपी में सबसे ताकतवार नेता रहे चौधरी अजित सिंह के बारे में, अलग-अलग सरकारों में मंत्री रहे अजित सिंह ने भी कई उतार चढ़ाव देखे. RLD के मुखिया अजित सिंह को उनके संसदीय क्षेत्र बागपत की जनता ने कभी सिर आंखों पर बैठाया तो कभी उन्हें उसी जनता ने नकारा भी. उन्होंने अपना ठिकाना बदला तो भी जनता ने उन्हें प्यार नहीं दिया. वह बागपत से दो बार चुनाव हारे, मुजफ्फरनगर की जनता ने भी उन्हें हराया.
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जयंत चौधरी: राष्ट्रीय लोकदल के वर्तमान में मुखिया जयंत चौधरी को मथुरा में जहां प्यार मिला वहीं जनता ने उनके दावे को खारिज करने में भी देर नहीं की. उन्होंने भी संसद पहुंचने के लिए ठिकाना बदला. बागपत लोकसभा का रुख किया. लेकिन जनता ने साथ नहीं दिया. हालांकि अब यूपी वेस्ट में भाजपा की सियासी नैया के बड़े खेवनहार के रूप में उनको देखा जा रहा है.
रशीद मसूद: देश के उपराष्ट्रपति तक का चुनाव लड़ने वाले नेता रशीद मसूद को भी जनता ने कभी पसंद किया तो कभी नकार दिया था. 1974 में नकुड़ विधानसभा से विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए चुनावी मैदान में उतरे लेकिन, जनता ने उनका साथ नहीं दिया था. 1977 में जनता पार्टी और 1980 में लोकदल से चुनाव लड़े थे और सफल रहे थे, लेकिन जनता को अगली बार पसंद नहीं आए और 1984 में भारतीय किसान कामगार पार्टी से जब चुनाव लड़े तो जनता ने लोकप्रिय होने के बावजूद साथ नहीं दिया. इसके बाद कई बार सफल रहे तो कई बार उन्हें जनता ने नकारा भी.
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जनरल शाहनवाज खान: मूल रूप से रावलपिंडी में जन्मे जनरल शाहनवाज खान यूं तो 1951 ,1957 ,1962 और1971 में मेरठ से लगातार चार बार सांसद रहे. 23 साल तक मंत्री रहे थे. लेकिन मेरठ की जनता ने उन्हें भी 1967 और 1977 के लोकसभा चुनाव में नकार दिया था. जनरल शाहनवाज द्वितीय विश्व युद्ध में भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) में अधिकारी थे. वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस से प्रभावित थे.
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मोहसिना किदवई: अब बात करते हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री और 1977 में यूपी कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं मोहसिना किदवई की. उन्होंने मेरठ लोकसभा क्षेत्र का दो बार प्रतिनिधित्व किया, 1980 और 1984 में उन्होंने यहां से जीत दर्ज की. इतना ही नहीं मेरठ की जनता ने पहली बार किसी महिला को सांसद बनाया था. लेकिन जनता को जब लगा कि उनके पास जनता के लिए वक्त नहीं है तो मेरठ की जनता ने उन्हें नकारने में भी देर नहीं लगाई. 1989 में उन्हें मेरठ में हार का मुंह देखना पड़ा.