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बस्तर में अनोखी होली, 600 सालों से राजपरिवार निभा रहे ये परम्परा, माड़पाल के अंगार से जगदलपुर में जलती है होलिका - Holika Dahan in Bastar - HOLIKA DAHAN IN BASTAR

बस्तर में पिछले 600 सालों से होली पर राजपरिवार के लोग अनोखी परम्परा निभा रहे हैं. यहां माड़पाल के अंगार से जगदलपुर में होलिका जलायी जाती है. आइए जानते हैं बस्तर की अनोखी होली के पीछे की पूरी कहानी.

Holika Dahan in Bastar
बस्तर होलिका दहन
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By ETV Bharat Chhattisgarh Team

Published : Mar 24, 2024, 7:55 PM IST

Updated : Mar 25, 2024, 6:15 AM IST

माड़पाल के अंगार से जगदलपुर में जलती है होलिका

बस्तर: छत्तीसगढ़ का बस्तर अनोखी परम्पराओं के लिए जाना जाता है. यहां पिछले 600 सालों से होलिका दहन में अनोखी परम्परा निभाई जाती है. दरअसल, यहां के होलिका दहन का संबंध प्रह्लाद से नहीं बल्कि मां दंतेश्वरी और भगवान जगन्नाथ से है. यहां होली पर 4 चक्कों का बना रथ आकर्षण का केन्द्र रहता है. इसमें मां मावली देवी के छत्र और बस्तर राज परिवार के सदस्य सवार होकर निकलते हैं. इसे देखने के लिए हजारों की संख्या में स्थानीय ग्रामीणों का जमावड़ा लगता है. पड़ोसी राज्य से भी लोग बस्तर के माड़पाल पहुंचते हैं.

ये है पौराणिक कथा: बस्तर के होली के बारे में बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद्र भंजदेव ने बताया कि, "रियासतकाल में जब राजा पुरुषोत्तम देव पदयात्रा करते हुए जगन्नाथ पुरी गए थे. तब उन्हें भगवान जगन्नाथ की ओर से रथपति की उपाधि मिली थी. इसके बाद राजा पुरुषोत्तम देव लाव-लश्कर के साथ वापस बस्तर लौट रहे थे. वापस लौटने के दौरान माड़पाल के ग्रामीणों ने उन्हें रोका था. माड़पाल के ग्रामीणों ने बस्तर दशहरा की तर्ज पर होली मनाने का राजा से आग्रह किया था. यही कारण है कि होली से पहले फाल्गुन पूर्णिमा के दिन दंतेवाड़ा में होलिका दहन किया जाता है. होलिका दहन के बाद दंतेवाड़ा से आग के अंगार को माड़पाल लाया जाता है. रात के करीब 12 बजे राजपरिवार के सदस्य मावली देवी की पूजा-अर्चना करने के बाद होलिका दहन करते हैं. माड़पाल में होलिका दहन के बाद अंगार को जगदलपुर शहर में लाया जाता है. इसके बाद दंतेश्वरी मंदिर और मावली मंदिर के सामने होलिका दहन किया जाता है. होलिका दहन के बाद रात से ही होली शुरु हो जाती है. यह परंपरा साल 1423 ई. में शुरू हुई थी. पिछले 600 सालों से ये परम्परा लगातार चली आ रही है. आज भी हर साल की तरह राजा माड़पाल पहुंचते हैं और होलिका दहन मेले में शामिल होते हैं."

क्या कहते हैं स्थानीय: बस्तर की अनोखी होली के बारे में माड़पाल के ग्रामीण दलप्रसाद मांझी ने बताया कि, "होलिका दहन में चलने वाले रथ का निर्माण स्थानीय ग्रामीण करते हैं. यह रथ 4 चक्कों का होता है, जिसे परिक्रमा से पहले अच्छे से फूल माला और कपड़े से सजाया जाता है. माड़पाल की होली लोगों को काफी आकर्षित करता है. पड़ोसी राज्यों से लोग इस मेले को देखने के लिए पहुंचते हैं. रातभर नाटक के साथ ही अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस होलिका दहन कार्यक्रम को शासन प्रशासन का भी सहयोग मिलता है. इस साल होलिका दहन के लिए प्रशासन ने 10 लाख रुपए का सहयोग किया है."

रथ खींचने के लिए बीजापुट गांव के लोग पहुंचते हैं और रथ को खींचा जाता है. इसके अलावा इस मेले में 12 परगना के देवी-देवता शामिल होते हैं. इसकी तैयारी हर में वर्ग के लोगों का योगदान रहता है. यही कारण है कि पिछले 600 सालों से ये परम्परा चली आ रही है. हर साल यहां लगने वाले मेले में लोगों की संख्या बढ़ती जाती है. -भानुप्रताप, पुजारी

दंतेवाड़ा में गंवर मार नृत्य अनुष्ठान का आयोजन: इस बीच रविवार को दंतेवाड़ा में गंवर मार नृत्य का आयोजन किया गया. इस दौरान आदिवासी समाज के लोग संगीत की धुन पर नाचते-गाते नजर आए. इनके सिर पर जानवरों के सींग लगे हुए थे. दरअसल, फागुन मड़ई के सातवें दिन ‘गंवर मार’ की खास परंपरा निभाई जाती है. रात के अंतिम पहर में गंवर शिकार का प्रदर्शन किया जाता है. बस्तर में पाए जाने वाले दुर्लभ वन भैंसा (गौर) को स्थानीय बोली में गंवर कहा जाता है. इसी के नाम पर इस नृत्य का नाम रखा गया है. ये शिकार नृत्य ‘गंवर मार’ बस्तर में काफी लोकप्रिय है. ये नृत्य फाल्गुन मेले में आकर्षण का केन्द्र होता है.

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माड़पाल के अंगार से जगदलपुर में जलती है होलिका

बस्तर: छत्तीसगढ़ का बस्तर अनोखी परम्पराओं के लिए जाना जाता है. यहां पिछले 600 सालों से होलिका दहन में अनोखी परम्परा निभाई जाती है. दरअसल, यहां के होलिका दहन का संबंध प्रह्लाद से नहीं बल्कि मां दंतेश्वरी और भगवान जगन्नाथ से है. यहां होली पर 4 चक्कों का बना रथ आकर्षण का केन्द्र रहता है. इसमें मां मावली देवी के छत्र और बस्तर राज परिवार के सदस्य सवार होकर निकलते हैं. इसे देखने के लिए हजारों की संख्या में स्थानीय ग्रामीणों का जमावड़ा लगता है. पड़ोसी राज्य से भी लोग बस्तर के माड़पाल पहुंचते हैं.

ये है पौराणिक कथा: बस्तर के होली के बारे में बस्तर राज परिवार के सदस्य कमलचंद्र भंजदेव ने बताया कि, "रियासतकाल में जब राजा पुरुषोत्तम देव पदयात्रा करते हुए जगन्नाथ पुरी गए थे. तब उन्हें भगवान जगन्नाथ की ओर से रथपति की उपाधि मिली थी. इसके बाद राजा पुरुषोत्तम देव लाव-लश्कर के साथ वापस बस्तर लौट रहे थे. वापस लौटने के दौरान माड़पाल के ग्रामीणों ने उन्हें रोका था. माड़पाल के ग्रामीणों ने बस्तर दशहरा की तर्ज पर होली मनाने का राजा से आग्रह किया था. यही कारण है कि होली से पहले फाल्गुन पूर्णिमा के दिन दंतेवाड़ा में होलिका दहन किया जाता है. होलिका दहन के बाद दंतेवाड़ा से आग के अंगार को माड़पाल लाया जाता है. रात के करीब 12 बजे राजपरिवार के सदस्य मावली देवी की पूजा-अर्चना करने के बाद होलिका दहन करते हैं. माड़पाल में होलिका दहन के बाद अंगार को जगदलपुर शहर में लाया जाता है. इसके बाद दंतेश्वरी मंदिर और मावली मंदिर के सामने होलिका दहन किया जाता है. होलिका दहन के बाद रात से ही होली शुरु हो जाती है. यह परंपरा साल 1423 ई. में शुरू हुई थी. पिछले 600 सालों से ये परम्परा लगातार चली आ रही है. आज भी हर साल की तरह राजा माड़पाल पहुंचते हैं और होलिका दहन मेले में शामिल होते हैं."

क्या कहते हैं स्थानीय: बस्तर की अनोखी होली के बारे में माड़पाल के ग्रामीण दलप्रसाद मांझी ने बताया कि, "होलिका दहन में चलने वाले रथ का निर्माण स्थानीय ग्रामीण करते हैं. यह रथ 4 चक्कों का होता है, जिसे परिक्रमा से पहले अच्छे से फूल माला और कपड़े से सजाया जाता है. माड़पाल की होली लोगों को काफी आकर्षित करता है. पड़ोसी राज्यों से लोग इस मेले को देखने के लिए पहुंचते हैं. रातभर नाटक के साथ ही अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस होलिका दहन कार्यक्रम को शासन प्रशासन का भी सहयोग मिलता है. इस साल होलिका दहन के लिए प्रशासन ने 10 लाख रुपए का सहयोग किया है."

रथ खींचने के लिए बीजापुट गांव के लोग पहुंचते हैं और रथ को खींचा जाता है. इसके अलावा इस मेले में 12 परगना के देवी-देवता शामिल होते हैं. इसकी तैयारी हर में वर्ग के लोगों का योगदान रहता है. यही कारण है कि पिछले 600 सालों से ये परम्परा चली आ रही है. हर साल यहां लगने वाले मेले में लोगों की संख्या बढ़ती जाती है. -भानुप्रताप, पुजारी

दंतेवाड़ा में गंवर मार नृत्य अनुष्ठान का आयोजन: इस बीच रविवार को दंतेवाड़ा में गंवर मार नृत्य का आयोजन किया गया. इस दौरान आदिवासी समाज के लोग संगीत की धुन पर नाचते-गाते नजर आए. इनके सिर पर जानवरों के सींग लगे हुए थे. दरअसल, फागुन मड़ई के सातवें दिन ‘गंवर मार’ की खास परंपरा निभाई जाती है. रात के अंतिम पहर में गंवर शिकार का प्रदर्शन किया जाता है. बस्तर में पाए जाने वाले दुर्लभ वन भैंसा (गौर) को स्थानीय बोली में गंवर कहा जाता है. इसी के नाम पर इस नृत्य का नाम रखा गया है. ये शिकार नृत्य ‘गंवर मार’ बस्तर में काफी लोकप्रिय है. ये नृत्य फाल्गुन मेले में आकर्षण का केन्द्र होता है.

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Last Updated : Mar 25, 2024, 6:15 AM IST
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