पटनाः राजधानी पटना के राजेंद्र नगर में प्रेमचंद गली स्थित बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी सन्नाटे की चपेट में है. किसी जमाने में यहां 36 कर्मचारी काम करते थे. लेकिन, आज यह संस्थान आठ कर्मियों के भरोसे है. इनमें चार तृतीय और चार चतुर्थ वर्गीय श्रेणी के कर्मचारी हैं. यहां के सहायक वीरेंद्र कुमार ओझा ने बताया कि प्रशासनिक स्तर की सुस्ती के कारण आज हिंदी ग्रंथ अकादमी इस हालत में है.
दो वर्ष से नई पुस्तक नहीं छपीः वीरेंद्र कुमार ओझा ने बताया कि यह संस्थान प्रदेश के विश्वविद्यालय स्तरीय शिक्षा में विभिन्न विषयों के पाठ्य पुस्तकों का हिंदी में प्रकाशन करता है. लेकिन पिछले दो वर्ष से यहां एक भी नई पुस्तकों का प्रकाशन नहीं हुआ है. वीरेंद्र कुमार ओझा ने बताया कि भारत सरकार के निर्णय के अनुसार देश के विश्वविद्यालय के छात्रों को हिंदी में पाठ्य पुस्तक उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 18 राज्यों में साल 1968 में हिंदी ग्रंथ अकादमी की स्थापना का निर्णय लिया गया था.
नई पुस्तकें नहीं छपने के कारणः वीरेंद्र कुमार ओझा ने बताया कि नई पुस्तक पिछले दो वर्ष से नहीं प्रकाशित हो पा रही है इसके पीछे कारण है कि स्टाफ की कमी हो गई है. इसके अलावा प्रकाशन में खर्च बढ़ गया है. साल 2000 में ही प्रशासन का दर हुआ था और उसके बाद दर रिवाइज नहीं हुआ है. जबकि, हाल के दिनों में कागज और ईंक की कीमत बढ़ी है. यहां हिंदी में एमबीबीएस के कई पुस्तकें हैं, मैनेजमेंट और इंजीनियरिंग की भी कई पाठ्य पुस्तकें हैं जो पिछले कुछ वर्षों तक नए एडिशन में अपडेट होते रही है.
सिर्फ रुटीन वर्क हो रहाः साल 1970 में हिंदी ग्रंथ अकादमी की स्थापना हुई. यह एक स्वायत्तशासी संस्था है. यहां बिहार सरकार के उच्च शिक्षा विभाग के सामान्य प्रशासनिक देखरेख में काम होता है. इस वर्ष भी यहां 15 लाख की पुस्तकों की बिक्री हुई है. यहां काफी पुराने किताब हैं जिनके पहले नए एडिशन छपते रहते थे. कई वर्षों से यहां स्थाई निदेशक नहीं है और निदेशक जो है वह प्रभारी व्यवस्था के तहत हैं. इसलिए कोई नया काम नहीं हो रहा, सिर्फ रूटीन काम हो रहा है.
हिंदी ग्रंथ अकादमी में दुर्लभ किताबेंः बिहार सरकार ने हाल ही में बिहार के मेडिकल कॉलेजों में आगामी शैक्षणिक सत्र से हिंदी में पाठ्यक्रम शुरू करने का निर्णय लिया है. चिकित्सा जगत से जुड़े शिक्षाविदों को हिंदी में चिकित्सा क्षेत्र के लिए पाठ्य पुस्तकों की अनुपलब्धता की शिकायत है. वीरेंद्र ओझा कहते हैं कि यहां कई दर्जन हिंदी में चिकित्सा क्षेत्र की पाठ्य पुस्तक हैं. नाक कान गला रोग की पाठ्य पुस्तक है. डॉक्टर लाल सूर्यनंदन की लिखित बाल चिकित्सा की पाठ्य पुस्तकें हैं.
शोधार्थी पहुंचते हैं संस्थान मेंः वीरेंद्र कुमार ओझा ने बताया कि वेबसाइट पर नंबर उपलब्ध है और उसके माध्यम से लोग पुस्तक की डिमांड करते हैं. यहां हवलदार त्रिपाठी की लिखित 'बिहार की नदियां' पुस्तक है. नदियों की स्थिति को समझने के लिए सबसे बेहतर पुस्तक मानी जाती है. केके दत्ता लिखित 'बिहार में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास' है जो स्वतंत्रता आंदोलन के तुरंत बाद लिखी गई थी. उन्होंने बताया कि अगले वर्ष इस संस्थान में महज चार लोग बच जाएंगे. अन्य चार लोग रिटायर हो जाएंगे. जिसमें वह भी शामिल हैं.
युवा साहित्यकारों के लिए मंच की कमीः बिहार के प्रतिष्ठित कवि चंदन द्विवेदी बताते हैं कि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के लाइब्रेरी इतना समृद्ध थाकि यहां साहित्य के शोधार्थियों की भीड़ रहती थी. लेकिन आज इन संस्थानों में किसी प्रकार के कोई आयोजन नहीं होने से युवा साहित्यकारों के लिए मंच की कमी हो गई है. कवि चंदन द्विवेदी बताते हैं कि इन संस्थानों में गतिविधि नहीं होने के कारण बिहार का साहित्यिक भविष्य खतरे में है.
प्रशासनिक उदासीनता से हो रहा नुकसानः चंदन द्विवेदी बताते हैं कि नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी से कहां, कैसे सीखें इसकी कोई जगह नहीं है. अगर यहां आयोजन होते तो वरिष्ठ साहित्यकारों के बीच में बैठकर युवा साहित्यकारों को विमर्श का अवसर मिलता. साहित्य में नए शोध होते और साहित्य की पुरानी ज्ञान परंपरा युवा साहित्यकारों के माध्यम से आगे बढ़ती. उन्होंने बताया कि हिंदी को समर्पित इतने समृद्ध संस्थान सिर्फ प्रशासनिक उदासीनता के कारण मृतप्राय अवस्था में जा रहे है. बिहार की भूमि साहित्यकारों के लिए उर्वरा रही है.
"एक समय में हिंदी के लिए समर्पित बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद में राष्ट्रीय स्तर के आयोजन होते थे. देश के नामचीन साहित्यकारों का जमावड़ा होता था. हर साल नई पुस्तकों के प्रकाशन के साथ नए शोध ग्रंथ प्रकाशित होते थे लेकिन धीरे-धीरे यह सब कुछ बंद हो गया है."- चंदन द्विवेदी, कवि
कब से शुरू हुआ हिंदी दिवसः 14 सितंबर 1949 को भारतीय संविधान सभा ने हिंदी को देवनागरी लिपि में भारत की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया था. उसके बाद 1953 से हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसका उद्देश्य हिंदी भाषा को बढ़ावा देना था. राजभाषा आयोग ने इस दिन को मनाने का विचार प्रस्तुत किया था. इसका उद्देश्य हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करना था.
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