शिमला: छोटा पहाड़ी राज्य हिमाचल अपने स्वतंत्र अस्तित्व यानी पूर्ण राज्यत्व के 55वें वर्ष में प्रवेश कर रहा है. वर्ष 1971 में 25 जनवरी हिमाचल के लिए महत्वपूर्ण और सुनहरी तिथि मानी जाती है. तब से लेकर अब तक राज्य विकास के पथ पर गतिशील है. चलना जीवन है और ठहरना अपनी गति का मूल्यांकन. आइए, कुछ ठहर कर अपनी गति का मूल्यांकन किया जाए. साथ ही पूर्ण राज्यत्व दिवस की पृष्ठभूमि और विकास यात्रा के पहले कदमों की पड़ताल की जाए.
सबसे पहले स्मरण किया जाए हिमाचल निर्माता डॉ. यशवंत सिंह परमार का. डॉ. वाईएस परमार के प्रयासों और कई अन्य विभूतियों के योगदान से हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था. हालांकि हिमाचल का गठन 15 अप्रैल 1948 को हो गया था, लेकिन इसे पूर्ण राज्य का दर्जा 25 जनवरी 1971 को मिला.
पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने पर डॉ. वाईएस परमार ने भावुक होकर कहा था-
पूर्ण राज्यत्व प्रदेश की उपलब्धियों की अंतिम परिणिती नहीं है, बल्कि ये तो कठिन परिश्रम के उस नए युग का प्रारंभ है जो सभी पर्वतीय लोगों को उसकी समृद्धि का आश्वासन दिलाता है.मूल अंग्रेजी में डॉ. वाईएस परमार का संदेश इस प्रकार था- स्टेटहुड फॉर हिमाचल प्रदेश इज नॉट दि फाइनल ऑफ दि एचीवमेंट्स ऑफ दि प्रदेश. ऑन दि अदर हैंड, इट इज दि बिगनिंग ऑफ ए न्यू इरा ऑफ हार्ड वर्क फॉर एन्शयोरिंग प्रॉस्पेरिटी फॉर ऑल हिली पीपल.
सूचना व जनसंपर्क विभाग से सेवानिवृत वरिष्ठ संपादक विनोद भारद्वाज ने ईटीवी को बताया कि हिमाचल के निर्माण में डॉ. वाईएस परमार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. गांधी इन शिमला नामक चर्चित पुस्तक के लेखक विनोद भारद्वाज ने ईटीवी भारत के साथ सरकारी पत्रिका हिमप्रस्थ से कुछ पुराने दस्तावेज साझा किए. सितंबर 1971 में डॉ. वाईएस परमार ने (हिमाचल प्रदेश पूर्ण राज्यत्व और उसके पश्चात) शीर्षक से एक संदेश में जो लिखा था, उसके कुछ महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार हैं-इसमें कोई संदेह नहीं है कि पूर्ण राज्यत्व की प्राप्ति से हिमाचल ने 35 लाख हिमाचलियों की राजनीतिक आकांक्षाओं को पूरा किया है, लेकिन इसमें उन्हें सभी क्षेत्रों में बेहतर काम करने की चुनौती का भी सामना करना पड़ा है. किसी भी नए राज्य की तरह हमारी भी समस्याएं हैं, लेकिन ये समस्याएं हमारी विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों व इसके साथ ही निर्धनता के बोझ और सदियों की अवहेलना के परिणामस्वरूप पिछड़ेपन के कारण कई गुना बढ़ जाती हैं.
डॉ. वाईएस परमार ने अपने संदेश में उन लोगों की भी खबर ली थी, जिन्होंने हिमाचल की क्षमताओं पर संदेह किया था. अपने संदेश के अंत में डॉ. वाईएस परमार ने ये जिक्र किया था कि वर्ष 1948 में हिमाचल की राजस्व आय 35 लाख रुपए सालाना थी, जो वर्ष 1971 में बढक़र 30 करोड़ रुपए हो गई.
वर्ष 1948 से स्टेटहुड तक आंकड़ों के आईने में हिमाचल
जनसंपर्क विभाग ने वर्ष 1948 से लेकर वर्ष 1970 तक की अवधि के अलग-अलग आंकड़ों का प्रकाशन किया था. आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1948 में हिमाचल के गठन के समय यहां पर कुल 248 किलोमीटर पक्की सडक़ें थीं. वर्ष 1970 में पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के ऐन पहले हिमाचल में पक्की सडक़ों की कुल लंबाई 6922 किलोमीटर हो गई थी. अब ये आंकड़ा चालीस हजार किलोमीटर के करीब है. इसी प्रकार वर्ष 1955-56 में राज्य में फलों के अधीन 1200 हेक्टेयर एरिया था. यानी हिमाचल में 1200 हेक्टेयर भूमि में फलों का उत्पादन होता था. तब सालाना फलों की पैदावार 7 हजार टन थी. वर्ष 1971 में फल उत्पादन क्षेत्र बढक़र 39 हजार हैक्टेयर हो गया और कुल फल उत्पादन 1.09 लाख टन हो चुका था.
शिक्षा की बात करें तो हिमाचल प्रदेश में वर्ष 1950-51 यानी गठन के तीन साल बाद सिर्फ एक ही कॉलेज था. इसके अलावा हाई स्कूल व सीनियर सेकेंडरी स्कूल दोनों मिलाकर 25 थे. तब मिडिल स्कूलों की संख्या 94 और प्राइमरी स्कूलों की संख्या 427 थी. बाद में वर्ष 1970-71 में 18 कॉलेज हो गए. इसी प्रकार हाई व सीनियर सेकेंडरी स्कूल मिलाकर संख्या 382 हो गई. लोअर मिडल स्कूल 701 व प्राइमरी स्कूलों की संख्या 3739 हो गई. इसके साथ ही शिमला के समरहिल में वर्ष 1970 में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की स्थापना हो गई थी.
ये था सेहत, बिजली और अन्य का हाल
वर्ष 1951 में हिमाचल प्रदेश में अस्पताल व डिस्पेंसरीज की संख्या 78 थी. प्राइमरी हेल्थ सेंटर तब मात्र एक ही था. वर्ष 1970 में 517 अस्पताल व डिस्पेंसरीज हो गईं. प्राइमरी हेल्थ सेंटर भी 72 हो गए थे. ग्रामीण क्षेत्र अंधेरे में थे. वर्ष 1950-51 में हिमाचल में केवल 11 गांवों में बिजली थी. वर्ष 1969 से 1971 तक 3140 गांवों में बिजली पहुंच गई. अब पूरे प्रदेश में बिजली की सुविधा है.
राज्य में वनों से राजस्व के आंकड़ों को देखें तो वर्ष 1948 में वनों से 64 लाख रुपए सालाना की आय थी. वर्ष 1971 में ये आय 6.60 करोड़ हो गई. हिमाचल में 1955-56 में बिरोजा का उत्पादन 1343 टन था. वर्ष 1970 में ये 2874 टन हो गया. वर्ष 1955-56 में राज्य में 158 टन चाय का उत्पादन था, जो वर्ष 1970-71 में बढक़र 9080 टन हो गया. डॉ. वाईएस परमार का मानना था कि सडक़ों के विस्तार से ही विकास का रास्ता निकलता है. पहाड़ में जमीन की उपलब्धता कम है और यहां के लोगों का जीवन खेती-बाड़ी पर ही चलेगा. इसके लिए डॉ. परमार ने हिमाचल प्रदेश भू-जोत कानून लाया और धारा-118 के तहत बाहरी राज्यों के लोगों को जमीन खरीदने से रोकने का प्रावधान किया.
विनोद भारद्वाज का कहना है कि, 'आधुनिक समय में भी डॉ. परमार के सपनों का हिमाचल निरंतर बढ़ रहा है. जब हिमाचल का गठन हुआ तो चुनौतियां कुछ और थीं, जब पूर्ण राज्य का दर्जा मिला तो चुनौतियों का स्वरूप अलग था. अब नई सदी है और इसकी चुनौतियां भी नई हैं, लेकिन डॉ. वाईएस परमार के प्रयासों से लगा पौधा अब विशालकाय पेड़ बन चुका है. इसे हरा-भरा और फलता-फूलता रखना हम सभी का कर्तव्य है.'