शिमला: किसी निर्दोष को जांच एजेंसियों की तरफ से जबरन दोषी ठहराने का प्रयास करने पर हाईकोर्ट ने कड़ा संज्ञान लिया है. अदालत ने कहा कि लोकतांत्रिक गणराज्य में कल्याणकारी व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र और निष्पक्ष जांच का हकदार है. अयोग्य और अवांछनीय अभियोजन देश के संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत प्रदान की गई जीवन के अधिकार की गारंटी का उल्लंघन है. ऐसे में यदि एक बार यह पाया जाता है कि किसी आरोपी को अपराध से जोड़ने के लिए रिकॉर्ड पर कोई पुख्ता सामग्री नहीं है, तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाने का कोई मतलब नहीं रह जाता.
हाईकोर्ट के न्यायाधीश न्यायमूर्ति विवेक सिंह ठाकुर व न्यायमूर्ति बिपिन चंद्र नेगी की खंडपीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान सरकार की जमकर क्लास लगाई और कहा कि अफसरों-कर्मियों को निष्पक्ष जांच के लिए प्रशिक्षण दिया जाए. खंडपीठ ने कहा कि औपनिवेशिक काल की तरह, वर्तमान में जांच एजेंसी का यह कोई कर्तव्य नहीं है कि वह एफआईआर या शिकायत में नामित व्यक्ति को न्यायालय से सच्चाई छिपाकर, अपने सभी साधनों का उपयोग करके फंसाने का प्रयास करे.
जांच एजेंसी और उनसे जुड़े अन्य अधिकारियों और कर्मचारियों की भूमिका और कर्तव्य पीडि़तों को न्याय देने के लिए सच्चाई का पता लगाना है. हम एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक समाज कल्याण वाले गणराज्य में रह रहे हैं, जो कानून के शासन के तहत निर्दोष लोगों की सुरक्षा के लिए प्रयास करता है. यही नहीं, मामले की सुनवाई में सरकार को फटकार लगाने के बाद खंडपीठ ने राज्य सरकार की आपराधिक अपील को खारिज कर दिया. साथ ही गृह विभाग के एसीएस, डीजीपी और अभियोजन निदेशक को आदेश दिए कि वह सभी जांच अधिकारियों/अभियोजकों/सरकारी अधिवक्ताओं को के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करे, ताकि सभी मामलों में निष्पक्ष जांच और अभियोजन सुनिश्चित हो सके. हाईकोर्ट ने फैसले की प्रतिलिपि गृह विभाग के अतिरिक्त मुख्य सचिव (एसीएस होम), पुलिस महानिदेशक, निदेशक अभियोजक को आवश्यक कार्रवाई के लिए भेजने के आदेश भी जारी किए.
क्या है पूरा मामला: मामला 17 साल पहले अंक तालिका में हेरफेर से जुड़ा है. दरअसल, हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड धर्मशाला के चेयरमैन को वर्ष 2007 में एक गुमनाम शिकायत मिली. शिकायत पत्र में आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी चौहान सिंह ने मार्च, 2004 में प्लस वन की परीक्षा दी थी और अंग्रेजी विषय में उसकी कंपार्टमेंट आई. बाद में चौहान सिंह ने सितंबर, 2004 में आयोजित की जाने वाली पूरक परीक्षा के लिए फार्म जमा किया था. बोर्ड ने उसे रोल नंबर 20073 जारी किया, लेकिन चौहान सिंह परीक्षा में उपस्थित नहीं हुआ. बोर्ड ने उसका परिणाम अंग्रेजी में अनुपस्थित घोषित किया.
ऐसे में चौहान सिंह के पास मार्च, 2005 में अंग्रेजी विषय में परीक्षा उत्तीर्ण करने का अंतिम अवसर था. आरोप है कि परीक्षा पास करने की बजाय उसने क्लर्क के साथ मिलीभगत की और अवैध तरीकों को अपनाते हुए, परिणाम पत्रक में अपना रोल नंबर 20073 से 20074 में बदलवा लिया. बदले हुए रोल नंबर के खिलाफ अंग्रेजी विषय में 41 अंक दर्शाए गए थे. शिकायत के अनुसार सितंबर 2004 के परीक्षा परिणाम के राजपत्र में चौहान सिंह का रोल नंबर 20073 था.
इसी रोल नंबर के तहत उसका परिणाम घोषित किया गया. बाद में याचिकाकर्ता ने रोल नंबर 20074 के अंतर्गत अपनी माता का नाम परिवर्तन/सुधार हेतु आवेदन किया. यही नहीं, सामान्य प्रशासन के कर्मचारियों की मिलीभगत से अनुभाग अधिकारी द्वारा अपने हस्ताक्षरों से उसकी माता का नाम परिवर्तित/सुधार कर दिया गया. शिकायत में स्कूल शिक्षा बोर्ड से उचित कार्रवाई का अनुरोध किया गया. प्रतिवादियों को आईपीसी की धारा सुसंगत धाराओं के तहत कुल्लू पुलिस स्टेशन में विजिलेंस में मामला दर्ज हुआ.
ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में उसे बरी कर दिया था. मामले में गवाह के रूप में जांच अधिकारी ने स्वीकार किया था कि उन्होंने कुछ दस्तावेज अपने कब्जे में नहीं लिए, जिनसे आरोपी व्यक्तियों की बेगुनाही साबित हो सकती थी. हाईकोर्ट ने राज्य सरकार की आपराधिक अपील को खारिज करते हुए कहा कि जांच एजेंसियों के ऐसे रवैये को स्वीकार नहीं किया जा सकता.
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