शिमला: आज पूरा भारत आजादी की 78वीं वर्षगांठ मना रहा है. आजादी के महायज्ञ में अपनी आहूति डालने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को ये देश याद कर रहा है. छोटे से पहाड़ी राज्य में भी कई आजादी के परवानों ने लोगों के मन में आजादी की अलख जलाई. इनमें से कुछ शख्सियतों को याद रखा गया, जबकि कुछ गुमनाम हो गए. आईए जानते हैं हिमाचल के कुछ महानायकों के बारे में जिन्होंने भारत को अंग्रेजों की गुलामी और रियासतों के शासकों के अत्याचार से आजादी दिलाई.
यशपाल- हमीरपुर के भूंपल ग्राम में 3 दिसंबर 1903 को जन्मे, क्रांतिकारी आंदोलनों में भागीदारी, 1928 में लॉर्ड इरविन की ट्रेन के नीचे बम विस्फोट में शामिल, तीन साल भूमिगत रहे, 1932 में अंग्रेज हुकूमत ने गिरफ्तार कर 14 साल की सजा दी लेकिन 6 साल बाद रिहा हो गए. स्वतंत्रता सेनानी यशपाल को जब आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, तब वे महज 28 वर्ष के थे. वर्ष 1937 में यशपाल को जेल से मुक्त तो कर दिया गया, लेकिन उनके पंजाब प्रांत जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. लखनऊ जेल से रिहाई के बाद यशपाल ने संयुक्त प्रांत की राजधानी लखनऊ में ही बस जाने का फैसला ले लिया था. विख्यात लेखक व साहित्यकारी और क्रांतिकारी यशपाल 26 दिसंबर 1976 को दिवंगत हुए.
कहानीकार व उपन्यासकार यशपाल को भारत सरकार ने वर्ष 1970 में पद्मभूषण से नवाजा. सरकार ने यशपाल की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया है. उनके जन्मदिवस पर हर साल राज्य स्तरीय कवि सम्मेलन और संगोष्ठी का आयोजन भी किया जाता है. स्वतंत्रता सेनानी एवं महान लेखक यशपाल की जमीन हिमाचल प्रदेश से भू सुधार एवं मुजारा अधिनियम की भेंट चढ़ी है. काफी संघर्ष के बाद जिला प्रशासन हमीरपुर ने उनकी पैतृक जमीन को ढूंढ निकाला, लेकिन यह जमीन वर्ष 1977 में काश्त कार के मुजारे में चली गयी है. इसके चलते इस जमीन का मालिकाना हक वर्तमान में जमीन जोतने वाले परिवार के पास है.
पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम- बाबा कांशीराम का कांगड़ा जिला के डाडासीबा में जन्मे थे। वे महात्मा गांधी से प्रभावित थे। हिमाचल के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने बताया कि पहाड़ी गांधी के पैतृक घर को विरासत स्मारक में बदलने के लिए सरकार उसका अधिग्रहण करेगी. कांशीराम जब तेरह बरस के थे, उनके पिता का देहांत हो गया था। कांशीराम बचपन से ही पहाड़ी में कविता लेखन करते थे. वे गायन में भी सिद्धहस्त थे. पिता के देहांत के बाद वे आजीविका के लिए लाहौर चले गए। वहां वे कांग्रेस के नेताओं के संपर्क में आए. जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद उन्होंने बापू के संदेश कविता व गीतों के माध्यम से पहाड़ी में प्रसारित किए.
बाबा ने कसम खाई थी कि जब तक देश आजाद नहीं हो जाता, वे काले कपड़े ही पहनेंगे. यानी स्याह पोशाक ही पहनेंगे। यही कारण है कि उन्हें स्याहपोश जनरल के नाम से भी जाना जाता है. बाबा कांशीराम ने कविताओं के माध्यम से अंग्रेज हुकूमत की खिलाफत की। उन्हें अंग्रेजों ने कुल 11 बार गिरफ्तार किया. बाबा ने अपने आजादी के लिए जीवन के नौ साल जेल में बिताए. देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के समय वर्ष 1984 में बाबा कांशी राम के नाम पर अप्रैल की 23 तारीख को डाक टिकट जारी किया गया था। उनके भगत सिंह के चाचा सरदार अजीत सिंह व लाला लाजपत राय से गहरे संबंध थे.
लाल चंद प्रार्थी- लाल चंद प्रार्थी का जन्म 16 मार्च 1916 को हुआ. भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय योगदान दिया. लाहौर में क्रांतिकारी दल से गहरा संपर्क, हिमाचल सरकार में मंत्री रहे और साहित्य में गहरी रुचि रखते थे. कुलूत देश की कहानी उनकी चर्चित पुस्तक है.
वाई एस परमार- डॉ. परमार सिरमौर के बागथन में 4 अगस्त 1906 को जन्मे, उन्होंने प्रजामंडल और सुकेत आंदोलन में भाग लिया. आजादी से पहले हिमाचल प्रदेश छोटी-छोटी रियासतों में बंटा था. उस समय डॉ. परमार वर्ष 1930 में सिरमौर रियासत के न्यायाधीश बने. उन्होंने वर्ष 1937 यानी सात साल तक रियासत में न्यायाधीश के तौर पर काम किया. बाद में जिला व सत्र न्यायाधीश बने और 1941 तक इस पद पर रहे. एक समय में जब प्रजामंडल आंदोलन के क्रांतिकारियों के खिलाफ झूठे मामले न्यायालय में आने लगे तो डॉ. परमार उनके हक में फैसले देने लगे। रियासतों के राजाओं को यह नागवार गुजरा. राजाओं की नाराजगी देखते हुए परमार ने खुद ही जज के पद से त्यागपत्र दे दिया. उसके बाद डॉ. परमार राजशाही के खिलाफ खुलकर काम करने लगे. आजादी के बाद प्रजामंडल आंदोलन के सदस्यों का ठियोग रियासत पर अधिकार हो गया. वहां स्वतंत्र सरकार का गठन किया गया और सूरजराम प्रकाश को रियासत का मुख्यमंत्री व परमार को कंसल्टेंट नियुक्त किया गया. यहां परमार लंबे समय तक प्रजामंडल आंदोलन से जुड़े रहे और अनेक गतिविधियों में भाग लिया. कई रियासतें देश में विलीन हुई। परमार बाद में 1948 से 1952 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे.
डॉ. परमार 3 मार्च 1952 से 31 अक्टूबर 1956 तक हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री रहे. वर्ष 1956 में जब हिमाचल यूनियन टेरेटोरियल बना तो परमार 1956 से 1963 तक संसद सदस्य रहे. विधानसभा गठित होने के बाद जुलाई 1963 में फिर से वे मुख्यमंत्री बने. परमार ने ही पंजाब के क्षेत्रों जैसे कांगड़ा व शिमला के कुछ हिस्सों को हिमाचल में शामिल करने में अहम भूमिका निभाई. कुछ नेता हिमाचल को पंजाब का हिस्सा बनाना चाहते थे, लेकिन परमार ने उनके मंसूबे कामयाब नहीं होने दिए. जनवरी 1971 में हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और इसमें परमार का बड़ा योगदान था. उन्होंने 1977 में मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया. इस्तीफे के बाद वो शिमला से बस में घर चले गए थे.
भाई हिरदा राम मंडी- 28 नवंबर 1885 को मंडी में जन्मे भाई हिरदा राम का 21 अगस्त, 1965 को देहांत हुआ था. स्वतंत्रता सेनानी भाई हिरदा राम बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी रास बिहारी बोस के बुलावे पर जनवरी 1915 में अमृतसर गए और रानी खैरगढ़ी ने भाई हिरदा राम को बम बनाने के प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मंडी से भेजा था. 28 नवंबर 1885 में क्रांतिकारी गजन सिंह के घर पैदा होने वाले भाई हिरदा राम के जहन में बचपन से ही क्रांतिकारी विचार थे और उन्होंने भारत माता की आजादी के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सीधे तौर पर बगावत की। जिस पर उनके खिलाफ लाहौर सेंट्रल जेल में मुकद्दमा चलाया गया. मुकद्दमे की पैरवी करने वाला जब कोई नहीं मिला तो इन्हें अंग्रेज सरकार की ओर से फांसी की सजा दी गई, लेकिन उनकी पत्नी सरला देवी की अपील पर वायसराय ने आजीवन कारावास काला पानी के लिए भेज दिया, अंडेमान निकोबार सैल्युर जेल में आज भी भाई हिरदा राम का नाम वीर सावरकर नाम के साथ अंकित है.
वैद्य सूरत सिंह सिरमौर- हिमाचल में पझौता आंदोलन के कर्णधार वैद्य सूरत सिंह का जन्म 22 अक्तूबर 1918 को सिरमौर के हाब्बन में हुआ. वे 1938 से ही स्वतंत्रता आंदोलन में जुड़ गए थे. पझौता आंदोलन पर आजीवन कारावास की सजा मिली. मार्च 1948 को रिहा हुए. हिमाचल विधानसभा के सदस्य भी रहे. उनका नाम स्वतंत्रा सेनानियों में प्रमुख रूप से लिया जाता है.