प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जेल की सलाखों में रह रहे समाज के कमजोर वर्ग के लोगों की दयनीय हालत पर चिंता व्यक्त की है. हाईकोर्ट ने इस बात पर अफसोस जताया कि जब राष्ट्र आज़ादी का अमृत काल मना रहा है. तब नागरिकों का एक वर्ग जेलों की अंधेरी दीवारों के पीछे गुमनाम जीवन जी रहा है, जहां संवैधानिक स्वतंत्रता की रोशनी नहीं पहुंचती है. कोर्ट ने यह सुनिश्चित करने का दिशा-निर्देश दिया है कि कैदियों को समय पर कानूनी सहायता मिले और उनकी जमानत याचिकाओं पर सुनवाई में देरी न हो. कोर्ट ने कहा कि स्वतंत्रता के मामले में प्रत्येक क्षण अनंत काल है और खोने के लिए कोई समय नहीं है. यह टिप्पणी न्यायमूर्ति अजय भनोट ने रामू बनाम यूपी सरकार समेत दाखिल कई जमानत याचिकाओं की सुनवाई करते हुए की.
कमजोर वर्ग के कैदियों की जमानत अर्जी पर कोर्ट ने की टिप्पणीः एक मामले में हत्या के आरोपी को 14 साल की सजा के बाद जमानत दी गई थी. याची वर्ष 2008 से जेल में बंद था. उसके खिलाफ बुलंदशहर के जहांगीराबाद थाने में आईपीसी की धारा 394, 302 के तहत मुकदमा दर्ज है. कोर्ट ने इसकी जमानत अर्जी मंजूर कर ली. जमानत अर्जी पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने कहा संविधान के सबसे अंतर्निहित क्षेत्र स्थित मानवीय स्थिति के सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे भी जमानत अर्जियों में उठते हैं. कोर्ट के समक्ष आए अधिकतर मामलों के आरोपी समाज के कमजोर वर्ग से थे और उन्हें एक दशक से अधिक समय से कानूनी सहायता नहीं मिल सकी, जिससे जमानत अर्जी दाखिल करने में देरी हुई.
कमजोर वर्ग के कैदियों को कानूनी सहायता न देना अनुचितः कोर्ट ने कहा कि कानूनी सहायता के अभाव में इस वर्ग के कैदियों को स्वतंत्रता से वंचित किया जाना सही नहीं है. कोर्ट ने अन्य कैदियों के मामलों पर भी प्रकाश डाला, जिनकी जमानत अर्जियां बहस करने या शीघ्र सुनवाई के लिए दबाव बनाने का कोई प्रयास न करने पर ठंडे बस्ते में पड़ी हैं. कोर्ट ने कहा कि इन कैदियों का अपने वकीलों से कोई संपर्क नहीं है और उन्हें अपनी जमानत अर्जी की स्थिति की भी जानकारी नहीं है. कैदियों के इस वर्ग के पास अपनी जमानत के लिए प्रभावी पैरोकार या निगरानी के साधन नहीं हैं. इन कैदियों का भाग्य व्यवस्था पर एक मौन दोषारोपण है.
संविधान देता है समानता अधिकारः कोर्ट ने कहा कि अदालतों का यह सुनिश्चित करने का सर्वोच्च कर्तव्य है कि आपराधिक कार्यवाही में उपस्थित होने वाले कैदियों को कानूनी सहायता प्राप्त हो और वे मूकदर्शक न बने रहें. कानूनी सहायता से इनकार करने से निष्पक्ष, उचित और न्यायसंगत प्रक्रिया का उल्लंघन होता है. अनुचित कारावास और स्वतंत्रता में कटौती होती है. संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 समानता का आश्वासन देते हैं और नागरिक के जीवन और स्वतंत्रता की रक्षा करते हैं, वे इन परिस्थितियों में लागू होते हैं.
जरूरतमंद को सहयाता उपलब्ध कराना ट्रायल कोर्ट का कर्तव्यः कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 304/बीएनएस 2023 की धारा 341 के तहत ट्रायल कोर्ट का कर्तव्य प्रत्येक कैदी को जमानत मांगने के अधिकार से अवगत कराना और जरूरतमंद आरोपी को सक्षम अदालत के समक्ष जमानत अर्जी दाखिल करने के लिए कानूनी सहायता प्रदान करना है. शासन के विभिन्न अंगों और आईटी सुविधाओं के बीच उचित समन्वय की आवश्यकता होगी, ताकि अदालतें अपने आदेश को क्रियान्वित करने के लिए आसानी से सूचना प्राप्त कर सकें.
डिजिटल प्लेटफार्म पर हो कैदियों की जानकारीः कोर्ट ने कैदियों को कानूनी सहायता प्राप्त करने में जेल अधिकारियों की आवश्यकता पर बल दिया. साथ ही आईटी संसाधानों के उपयोग का आह्वान किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रत्येक जेल में प्रत्येक कैदी के बारे में जानकारी स्वतः ही उत्पन्न हो, ताकि उनकी सहायता की जा सके. विशेष रूप से उन्हें कानूनी सहायता प्राप्त करने में मदद मिले. कोर्ट ने कहा कि आधिकारिक डिजिटल प्लेटफॉर्म पर पहले से उपलब्ध डेटा को विभिन्न प्रासंगिक तथ्यों और विवरणों को शामिल करने के लिए समेकित और उन्नत किया जा सकता है. इस तरह के डिजिटल बुनियादी ढांचे/आईटी प्लेटफॉर्म ट्रायल कोर्ट, डीएलएसए और जेल अधिकारियों की क्षमता को बढ़ाएंगे ताकि कैदियों को कानूनी सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया को कुशल तरीके से पूरा किया जा सके.
डीएलएसए को प्रत्येक कैदी का रिकॉर्ड बनाने का निर्देशः कोर्ट ने डीएलएसए को प्रत्येक कैदी का रिकॉर्ड बनाने को कहा, जिसमें कानूनी सहायता के लिए कैदी की आवश्यकता निर्धारित करने और सक्षम न्यायालय के समक्ष जमानत अर्जी दाखिल करने के लिए आवश्यक सभी जानकारी शामिल हो. रिकॉर्ड बनाए रखने के लिए जेल अधिकारियों को भी इसी तरह का निर्देश दिया गया है. कोर्ट ने कहा कि समय पर जमानत अर्जी दाखिल न करने से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कानूनी सहायता न मिलने के कारण कैदी अदालत नहीं जा सका. कोर्ट ने इस उद्देश्य के लिए समयसीमा प्रदान करते हुए इस बात पर जोर दिया कि ट्रायल कोर्ट/मजिस्ट्रेट, जिला विधिक सेवा प्राधिकरण और जेल प्राधिकारियों पर यह दायित्व डाला गया है कि वे प्रत्येक घटना पर प्रत्येक कैदी की कानूनी सहायता के आवश्यकता की सक्रियतापूर्वक और स्वतंत्र रूप से जांच करें.