ग्वालियर। ग्वालियर में एक ऐसी फारसी में अनुवादित सालों पुरानी दुर्लभ वाल्मीकि रामायण है, जिसे बड़े श्रृद्धा भाव से सहेजकर रखा गया है. यह भारत की गंगा-जमुनी तहजीब की अनूठी मिसाल है. अकबर के समय की 468 साल पुरानी हस्तलिखित अरबी भाषा में अनुवादित रामायण ग्वालियर के पड़ाव स्थित गंगादास की शाला में मौजूद है. इसी जगह पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हुई थीं.
अकबर ने कराया अनुवाद : गंगा दास की शाला के महंत रामसेवक महाराज का कहना है कि जब अकबर ग्वालियर के प्रवास पर आए थे, तब उन्होंने गंगादास की शाला के महंत से शिक्षा ली थी. महंत ने उनसे कहा था कि आप केवल एक धर्म को मानने वाले हैं. सभी धर्म को मानो तब आपको शिक्षा देंगे. इसके बाद अकबर ने दिन ए इलाही धर्म की स्थापना की थी. साथ ही महंत से रामायण का अरबी भाषा में अनुवाद कराया था. तभी से यह रामायण गंगा दास की शाला में संरक्षित तरीके से रखी गई है.
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रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम संस्स्कार : खास बात यह है कि सालों बीत जाने के बावजूद इस रामायण के अक्षर अभी भी सोने से चमकते हैं, जो किसी चमत्कार से कम नहीं है. बता दें कि ये वही गंगादास की शाला है, जहां अंग्रेजों से लड़ते हुए वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग थे. उस दौरान यहां हजारों की संख्या नागा साधु रहते थे. उस दौरान युद्ध में घायल हुई रानी लक्ष्मी बाई को शरण दी और अंग्रेजों से लड़ते हुए 592 नागा साधुओं ने अपने प्राण त्याग दिए थे, लेकिन उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई का मृत शरीर नहीं छूने दिया. यहीं रानी लक्ष्मीबाई का नागा साधुओं ने दाह संस्कार किया था.