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127 साल पहले वाराणसी में शुरू हुआ था गणेश उत्सव, बाल गंगाधर तिलक से है नाता - Ganesh Festival in Varanasi

महादेव की नगरी काशी में गणेश उत्सव (Ganesh Utsav in city of Mahadev) मनाने की परंपरा काफी पुरातन है. बताया जाता है कि करीब 127 साल से काशीवासी इस आस्था और विश्वास को संजोए हैं और हर साल धूमधाम से गणेश उत्सव मनाते हैं.

Ganesh Utsav in city of Mahadev.
Ganesh Utsav in city of Mahadev. (Photo Credit: ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Sep 5, 2024, 10:33 AM IST

काशी में गणेश उत्सव की परंपरा की जानकारी देते वाराणसी संवाददाता. (Video Credit : ETV Bharat)

वाराणसी : महादेव की नगरी काशी में एक मौका ऐसा भी है जब गणेश की जय जयकार होती है. गणेश चतुर्थी से सात दिन और कहीं 10 दिन चलने वाले इस पर्व में खूब श्रद्धा और भीड़ उमड़ी है. इस बार भी 7 सितंबर से शुरू होने वाले गणेश उत्सव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. पद्य गान के साथ बच्चे रिहर्सल कर रहे हैं और बप्पा के आने के इंतजार में सभी पूरी तरह से उत्सव के रंग में डूबे नजर आ रहे हैं. पढ़ें विस्तृत खबर...

गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे.
गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे. (Photo Credit: ETV Bharat)

गणेश उत्सव का असली आनंद उद्गम स्थली महाराष्ट्र में है. महाराष्ट्र के पुणे में बाल गंगाधर तिलक ने इसकी शुरुआत अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए की थी. उस वक्त मराठा साम्राज्य और महाराष्ट्र परिवारों को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव का श्रीगणेश हुआ. इसके बाद धर्मनगरी वाराणसी से लोगों को धर्म के नाम पर अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का संदेश दिया गया. तब से यह परंपरा करीब 127 साल से अनवरत जारी है.

गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे.
गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे. (Photo Credit: ETV Bharat)

वाराणसी के राजकन्दिर, ब्रह्माघाट, बीवी हटिया, पंचगंगा घाट समेत कई ऐसे इलाके हैं. जहां आज भी बड़ी संख्या में महाराष्ट्र की आबादी रहती है. इन्हीं मराठी परिवारों ने अपनी संस्कृति और सभ्यता को उत्तर प्रदेश में जीवित रखने के लिए महाराष्ट्र के इस महापर्व गणेश उत्सव की शुरुआत काशी में भी की. 127 साल से गणेश उत्सव काशी में अनवरत रूप से जारी है.

आयोजन समिति के ट्रस्टी वेद प्रकाश वेदांती ने बताया कि जब अंग्रेजों से लड़ाई करने के क्रम में देशभक्ति के आंदोलन की अलख जगा रहे थे तब तमाम क्रांतिकारी और महान नेताओं ने देश में लोगों को एकजुट करने का काम शुरू किया. उस वक्त 1894 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणेश उत्सव की शुरुआत की, जहां पद्दगान और अन्य तरह के आयोजनों के जरिए लोगों के अंदर उत्साह भरने का काम किया जाता था. इस आयोजन से प्रेरणा लेकर चार साल बाद ही वाराणसी में 1898 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए लोकमान्य तिलक के निर्देश पर काशी में महाराष्ट्र की आबादी ने लोगों को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव की शुरुआत की.



देश में गणेश उत्सव सबसे पहले महाराष्ट्र में सार्वजनिक रूप से शुरू हुआ और पहला शहर बनारस है. जहां महाराष्ट्र के बाहर इसकी शुरुआत की गई. यहां के मराठी परिवारों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए 7 दिन तक इस आयोजन को अनवरत रूप से जारी रखा और लगातार इस उत्सव की रूपरेखा खींचते हुए हर साल इसे आगे बढ़ाया गया. इससे खुश होकर 1920 में जब लोकमान्य तिलक वाराणसी आए तो उन्होंने इस उत्सव की भव्यता को देखकर महाराष्ट्र में होने वाले उत्सव से भी बेहतर इसे बताया और तब से यह परंपरा अनवरत रूप से चली आ रही है.

वेद प्रकाश वेदांती ने बताया कि भले ही महाराष्ट्र के पुणे में अब पद्दगान और अन्य परंपराओं को खत्म कर दिया गया हो, लेकिन बनारस में यह परंपरा आज भी निभाई जाती है. यहां की युवा पीढ़ी पद्दगान के साथ ही आज भी हारमोनियम, ढोल, नगाड़े, मजीरे लेकर भगवान गणपति का स्वागत करती है. इसकी रिहर्सल कई दिनों से जारी है.

यह भी पढ़ें : काशी में सावन की खास तैयारी, एक महीने नहीं खुलेंगी मांस की दुकानें, सिगरा में 40 करोड़ से बनेगा अंडरग्राउंड पार्किंग - Sawan 2024

यह भी पढ़ें : वाराणसी नगर निगम में 1955 से 2020 तक दर्ज जन्म-मृत्यु का ब्यौरा होगा ऑनलाइन - Digitization of certificates

काशी में गणेश उत्सव की परंपरा की जानकारी देते वाराणसी संवाददाता. (Video Credit : ETV Bharat)

वाराणसी : महादेव की नगरी काशी में एक मौका ऐसा भी है जब गणेश की जय जयकार होती है. गणेश चतुर्थी से सात दिन और कहीं 10 दिन चलने वाले इस पर्व में खूब श्रद्धा और भीड़ उमड़ी है. इस बार भी 7 सितंबर से शुरू होने वाले गणेश उत्सव की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. पद्य गान के साथ बच्चे रिहर्सल कर रहे हैं और बप्पा के आने के इंतजार में सभी पूरी तरह से उत्सव के रंग में डूबे नजर आ रहे हैं. पढ़ें विस्तृत खबर...

गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे.
गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे. (Photo Credit: ETV Bharat)

गणेश उत्सव का असली आनंद उद्गम स्थली महाराष्ट्र में है. महाराष्ट्र के पुणे में बाल गंगाधर तिलक ने इसकी शुरुआत अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए की थी. उस वक्त मराठा साम्राज्य और महाराष्ट्र परिवारों को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव का श्रीगणेश हुआ. इसके बाद धर्मनगरी वाराणसी से लोगों को धर्म के नाम पर अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट होने का संदेश दिया गया. तब से यह परंपरा करीब 127 साल से अनवरत जारी है.

गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे.
गणेश उत्सव पर प्रस्तुति के लिए रिहर्सल करते बच्चे. (Photo Credit: ETV Bharat)

वाराणसी के राजकन्दिर, ब्रह्माघाट, बीवी हटिया, पंचगंगा घाट समेत कई ऐसे इलाके हैं. जहां आज भी बड़ी संख्या में महाराष्ट्र की आबादी रहती है. इन्हीं मराठी परिवारों ने अपनी संस्कृति और सभ्यता को उत्तर प्रदेश में जीवित रखने के लिए महाराष्ट्र के इस महापर्व गणेश उत्सव की शुरुआत काशी में भी की. 127 साल से गणेश उत्सव काशी में अनवरत रूप से जारी है.

आयोजन समिति के ट्रस्टी वेद प्रकाश वेदांती ने बताया कि जब अंग्रेजों से लड़ाई करने के क्रम में देशभक्ति के आंदोलन की अलख जगा रहे थे तब तमाम क्रांतिकारी और महान नेताओं ने देश में लोगों को एकजुट करने का काम शुरू किया. उस वक्त 1894 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पुणे में गणेश उत्सव की शुरुआत की, जहां पद्दगान और अन्य तरह के आयोजनों के जरिए लोगों के अंदर उत्साह भरने का काम किया जाता था. इस आयोजन से प्रेरणा लेकर चार साल बाद ही वाराणसी में 1898 में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंकने के लिए लोकमान्य तिलक के निर्देश पर काशी में महाराष्ट्र की आबादी ने लोगों को एकजुट करने के लिए गणेश उत्सव की शुरुआत की.



देश में गणेश उत्सव सबसे पहले महाराष्ट्र में सार्वजनिक रूप से शुरू हुआ और पहला शहर बनारस है. जहां महाराष्ट्र के बाहर इसकी शुरुआत की गई. यहां के मराठी परिवारों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए 7 दिन तक इस आयोजन को अनवरत रूप से जारी रखा और लगातार इस उत्सव की रूपरेखा खींचते हुए हर साल इसे आगे बढ़ाया गया. इससे खुश होकर 1920 में जब लोकमान्य तिलक वाराणसी आए तो उन्होंने इस उत्सव की भव्यता को देखकर महाराष्ट्र में होने वाले उत्सव से भी बेहतर इसे बताया और तब से यह परंपरा अनवरत रूप से चली आ रही है.

वेद प्रकाश वेदांती ने बताया कि भले ही महाराष्ट्र के पुणे में अब पद्दगान और अन्य परंपराओं को खत्म कर दिया गया हो, लेकिन बनारस में यह परंपरा आज भी निभाई जाती है. यहां की युवा पीढ़ी पद्दगान के साथ ही आज भी हारमोनियम, ढोल, नगाड़े, मजीरे लेकर भगवान गणपति का स्वागत करती है. इसकी रिहर्सल कई दिनों से जारी है.

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