बलरामपुर : छत्तीसगढ़ में वनोपज के लिए मशहूर है. यहां के जंगलों में बेशकीमती वनोपज मिलते हैं. महुआ भी उन्हीं वनोपज में से एक है, जिसका संग्रहण करके आदिवासी अपनी आजीविका चलाते हैं. इन दिनों छत्तीसगढ़ का जंगल महुआ की खुशबू से गमक रहा है.जंगल में रहने वाले आदिवासी ग्रामीण महुआ इकट्ठा करने के लिए सूरज की पहली किरण फूटने से पहले ही जंगलों के अंदर चले जाते हैं,जहां वो महुआ पेड़ के नीचे गिरे फलों को इकट्ठा करते हैं.जंगली इलाका होने के कारण इस क्षेत्र में कई महुआ के पेड़ हैं,जो साल भर में इतनी वनोपज दे देते हैं,जिनसे आदिवासियों का ठीकठाक गुजारा हो जाता है.
महुआ बना आजीविका का जरिया : जंगल के बीच में होने वाला महुआ आदिवासियों के लिए जीवन की गाड़ी चलाने का ईंधन है. महुआ अपनी महक से पूरे जंगल में खुशबू बिखेरता है,साथ ही साथ इसकी खुशबू आदिवासियों को ये संदेश देती है कि उनके जीवन में भी अब खुशहाली आने वाली है.आदिवासी महुआ के पेड़ का सम्मान अपने माता पिता के जैसे ही करते हैं.जिस तरह से एक पालक अपने संतान को पालने के लिए हर कष्ट झेलता है,ठीक उसी तरह महुआ भी विपरित काल में भी आदिवासियों को ये भरोसा दिलाता है कि जब तक मैं यहां हूं आपकी थाली में निवाले की कोई कमी नहीं होगी.
महुआ पर हाथियों का साया : आदिवासी जंगल में महुआ बीनने के लिए तड़के सुबह निकलते हैं.लेकिन इन दिनों बलरामपुर के आदिवासी जंगल में डरे सहमे हैं.जंगल में हाथियों की आमद होने से महुआ बीनने के लिए जंगल जाने वाले आदिवासियों को अपनी जान का डर सता रहा है. आदिवासियों के सामने दोगुनी मुसीबत है,पहली तो महुआ बीनकर अपने लिए आजीविका की व्यवस्था करना और दूसरी अपनी जान जोखिम में डालकर जंगल से महुआ लेकर वापस सही सलामत घर आना.क्योंकि यदि रास्ते में गजराज का सामना हुआ तो ना जाने कौन सी अनहोनी घट जाए.
''हम लोग पूरा परिवार मिलकर महुआ के सीजन में लगभग पांच क्विंटल महुआ चुन लेते हैं. महुआ को हम लोग उबालकर खाते हैं. लाटा बनाकर भी खाते हैं. महुआ को सूखाकर मार्केट में बेचते भी हैं. महुआ का उपयोग देसी शराब बनाने में होता है. महुआ के बाद डोरी का फल आता है जिसका तेल निकालकर घर में पुड़ी पकवान बनाकर खाते हैं.'' जगरीत सिंह, ग्रामीण
आदिवासी परिवारों के बीच उनकी जीवन शैली और आदिवासी संस्कृति में महुआ का प्रमुख स्थान है. महुआ का सीजन आदिवासियों के लिए उत्सव जैसा है.लेकिन इन दिनों हाथियों के कारण उत्सव का रंग फीका पड़ रहा है.
''हम लोग जंगल में महुआ चुनने के लिए आए हैं. हर दिन हम लोग पूरा परिवार मिलकर दस बारह किलो महुआ चुन लेते हैं. फाल्गुन और चैत्र दो महीने तक महुआ चुनते हैं. हमारे पास कोई दूसरा रोजगार नहीं है. महुआ से हमारे साल भर के खाने-पीने का व्यवस्था होती है.जंगल में हाथी घूमते रहते हैं इसलिए डर भी लगता है.'' मनोहर कुजूर, ग्रामीण
महुआ संवारता है कई जिंदगी : महुआ बेचने पर आदिवासियों को अच्छी आमदनी होती है.बाजार भाव की बात करें तो आदिवासी वनोपज संग्रहण केंद्रों में जाकर महुआ अधिकतम 45 रुपए किलो तक के रेट में बेचते हैं.इसे बेचने के बाद जो आमदनी होती है,उसे आदिवासी अपने पास रखकर साल भर अपना गुजारा भत्ता चलाते हैं. महुआ की कमाई से ही आदिवासियों के घर पर दो वक्त का चूल्हा जलता है,तीज त्योहार में पकवान बनते हैं और बेटी का बाप उसे खुशी-खुशी विदा करने लायक बन पाता है.आदिवासियों के लिए महुआ ठीक वैसा ही है, जैसे शहद में मिठास का ना होना.महुआ आदिवासियों की जिंदगी में मिठास लाता है. उनकी बेरंग पड़ी दुनिया को रंगीन बनाता है.लेकिन इन दिनों इस रंगीन दुनिया में डर का साया है.