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चार बार डाकुओं ने लूटा पर नहीं मानी हार, अनोखी है ‘डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया’ की कहानी - SUCCESS STORY

डॉल्फिन मैन रविंद्र कुमार सिन्हा डॉल्फिन के संरक्षण में एक बड़ी भूमिका निभाई है. डॉल्फिन जहां पाई जाती है वहां पानी की शुद्ध मिलता है.

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By ETV Bharat Bihar Team

Published : Jan 2, 2025, 8:34 PM IST

पटना: डॉल्फिन मैन रविंद्र कुमार सिन्हा का जन्म बिहार के जहानाबाद के मखदुमपुर के एक छोटे से गांव की ओटर में हुआ था. पूरी दुनिया में डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर रविंद्र कुमार सिन्हा जब गंगा पर रिसर्च कर रहे थे उस दौरान चार बार डाकुओं से भिड़ंत हुआ और डाकू उनका सब सामान लूटकर लिए. डाकुओं ने उनकी रिसर्च की गई प्रोजेक्ट को भी बर्बाद कर दिया. इसके बावजूद हार नहीं मानी. आईये जानते है डॉल्फिन मैन की अनोखी कहानी...

दादी के दाहसंस्कार में पहली बार देखा डॉल्फिन: दरअसल, 1961 में उनकी दादी का देहांत हुआ. शवदाह करने के लिए लोग पटना के बांस घाट लेकर आए. उन्होंने देखा कि काले रंग का एक जंतु पानी में बार-बार निकल रहा है और फिर पानी के अंदर चला जा रहा है. उनके मन में इस जंतु को जानने की जिज्ञासा जागी. लोगों से पूछा तो लोगों ने कहा कि गंगा में मत जाओ, यह सोंस है. यह आदमी को खा जाता है.

बचपन से ही डॉल्फिन के प्रति आकर्षण: रविंद्र बताते हैं कि साल 1970 में वह मखदुमपुर से ही हायर सेकेंडरी स्कूल पास कर पटना विश्वविद्यालय के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया. वह अपने प्रमंडल में इकलौते थे जिन्होंने उसे वर्ष प्रथम डिवीजन से पास किया था. उन्होंने बताया कि डॉल्फिन को जानने की जिज्ञासा उन्हें साल 1961 से हो गई. उस वक्त वे चौथी कक्षा में पढ़ाई करते थे.

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गंगा तट से देखा करते थे डॉल्फिन: रविंद्र बताते हैं कि इसके बाद पटना विश्वविद्यालय में दाखिला लेने से पहले कई बार ऐसे ही मौके पर वह पटना आते हैं और गंगा में डॉल्फिन को देखते. साल 1971 में वह जूलॉजी से ऑनर्स करने के लिए पटना साइंस कॉलेज में दाखिला लिए. साइंस कॉलेज गंगा नदी के घाट पर स्थित है ऐसे में वह लीजर पीरियड में नदी के घाट पर बैठकर सोंस (डॉल्फिन) को देखते रहते.

डॉल्फिन पानी में ही बच्चा देती है: रविंद्र बताते हैं कि कई दिनों तक यही कम चला और एक दिन मछुआरे से उन्होंने पूछा कि यह सोंस कैसा जानवर है. मछुआरे ने बताया कि यह बहुत अजीब जानवर है. पानी में ही बच्चा देती है और अपने बच्चों को पानी में ही दूध पिलाती है. रविंद्र बताते हैं कि उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह कैसी मछली है. इस दौरान वह अपने पाठ्यक्रम में मैमल्स के बारे में पढ़ चुके थे. वह समझ गए कि यह मैमल्स है.

स्नातक के बाद गंगा पर किया रिसर्च: रविंद्र ने बताया कि इसके बाद जब वह स्नातक कर गए और बीच में जेपी आंदोलन भी हुआ. जिसके कारण 2 वर्ष स्नातक पूरा करने में विलंब हो गया. कॉलेज में ही वह लेक्चर हो गये. इसके बाद उन्हें इकोलॉजी एनवायरमेंट पढ़ने का मौका मिला. जिसके बाद उन्होंने तय किया कि इसमें रिसर्च करेंगी ताकि बच्चों को अच्छा पढ़ सके.

मछुआरे करते थे डॉल्फिन की हत्या: रविंद्र ने बताया कि इसके बाद जब वह गंगा नदी गए तो मछुआरों को देखकर यही पूछे कि पहले नदी में सोंस बहुत दिखाई देता था और अब कम हो गया है. मछुआरा ने उन्हें बताया कि इसका वह लोग शिकार करते हैं लेकिन इसका मांस नहीं खाते हैं. इसका मांस स्वाद नहीं देता है लेकिन इसमें से तेल निकलता है जो अन्य मछलियों को पकड़ने के काम आता है.

डॉल्फिन 9 महीने का करती है गर्भधारण: यह सुनकर रविंद्र को आश्चर्य हुआ कि इसी प्रकार यदि मछुआरे सोंस को मारते रहे तो यह तो खत्म हो जाएगी. यह भी पता चला कि यह एक बार में एक ही बच्चा पैदा करती है और वह भी इससे पहले 9 महीने का गर्भधारण करती है. यह हर साल बच्चे भी नहीं देती. ऐसे में उन्होंने तय किया कि अब इसे बचाना होगा. इससे पहले सिंधु नदी में डॉल्फिन मिलने के लिटरेचर मौजूद थे.

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1983 में विश्वविद्यालय को दिया रिसर्च प्रपोजल: उन्होंने गंगा के प्रदूषण, जैव विविधता और डॉल्फिन पर खतरा क्या-क्या है इस पर रिसर्च शुरू कर दिया. उनका अपना रिसर्च वर्क चल रहा था. इसी भी साल 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्देश पर पटना विश्वविद्यालय को एक पत्र आता है कि गंगा पर इंट्रडिसीप्लिनरी रिसर्च किया जाए. गंगा जिन जिन राज्यों में बहती हैं वहां के विश्वविद्यालय हो कोई यह पत्र गया. कुलपति पत्र प्राप्त होने के बाद अगले दिन ही सभी विभाग के हेड को पत्र लिख बैठक बुलाई.

राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान लॉन्च: रविंद्र कुमार ने बताया कि बैठक में उन्होंने गंगा पर रिसर्च का अपना पूरा प्रस्ताव दे दिया. सभी विभाग के अध्यक्षों को यह पसंद आया. विश्वविद्यालय की ओर से योजना आयोग को प्रस्ताव भेज दिया गया. फिर 1985 में राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान लॉन्च किया. उनके प्रस्ताव पर डिस्कशन के लिए तीन लोग की एक कमेटी पटना पहुंची.

रिसर्च के लिए आया 28 लाख का फंड: कमेटी के सभी सवालों का 3 घंटे तक उन्होंने जवाब दिया. इसके बाद 10 दिन के बाद पटना में गंगा पर रिसर्च के लिए 28 लाख रुपए का प्रोजेक्ट आ गया. यह उस दौर में जब प्रोफेसर का वेतन ₹1000 से भी कम हुआ करता था. बक्सर से बाढ़ का क्षेत्र उन्हें दिया गया. गंगा की जैव विविधता, गंगा का प्रदूषण और सभी आयाम का रिसर्च के लिए उनके साथ टीम में 16 लोगों ने मिलकर गंगा पर रिसर्च शुरू किया.

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3 साल के रिसर्च में मिलने लगी प्रसिद्धि: रविंद्र कुमार ने बताया कि इसी बीच एक मछुआरे ने एक डॉल्फिन के छोटे मरे हुए बच्चे को लाकर दिया. पहली बार उन्होंने पूरी डॉल्फिन देखी. लेबोरेटरी में आकर उसकी तस्वीरें ली और उस पर रिसर्च शुरू किया. 3 साल के रिसर्च का डिटेल रिपोर्ट उन्होंने जब दिया तो उसके कलर पेज पर इसी डॉल्फिन की कलर फोटो रखी.

1992 में मिला डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया की उपाधि: डॉ रविंद्र कुमार बताते हैं कि इसी बीच साल 1992 में अंटार्कटिका में भारत की ओर से जाने वाले पहले वैज्ञानिक डॉ एस जेड काजिमी ने गंगा डॉल्फिन पर एक सेमिनार आयोजित किया. इस विदेश के सैकड़ों वैज्ञानिक उसमें पहुंचे. डॉक्टर काजिमी ने उन्हें मंच पर बुलाते हुए लोगों से परिचय कराया कि मिलिए भारत के डॉल्फिन मैन से. यहीं से उन्हें डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया की उपाधि मिल गई. वहीं साल 2016 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

डाकुओं से हुआ आमना-सामना: डॉ रविंद्र कुमार बताते हैं कि गंगा पर रिसर्च के लिए उन्होंने कई बार गंगोत्री से गंगासागर की यात्रा की. नाव में अपने साथ वह अपने छात्रों को लेकर जाते थे. चार बार उनका डाकुओं से आमना सामना भी हुआ है. डाकू उनका सब सामान लूटकर चले गए हैं और खाली हाथ आगे का वह सफर तय किए हैं.

डाकुओं ने रिसर्च वर्क कर दिया बर्बाद: रविंद्र बताते है कि कई बार डाकू उनके सिर पर पिस्टल रख देते थे कि बताओ कौन हो और छोड़ने के लिए बहुत पैसे की डिमांड करते थे. एक बार बुंदेलखंड के पास दिन के 11:00 बजे पिस्टल लिए डाकुओं ने बीच गंगा नदी में उन लोगों को रोक दिया. डाकुओं ने उनका सारा रिसर्च वर्क तहस-नहस कर दिया और रिसर्च वर्क बर्बाद हो गया.

2009 में डॉल्फिन संरक्षित जीव घोषित: डॉ रविंद्र कुमार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने काफी काम किया. गंगा स्वच्छता के लिए फंड जारी करने के कार्यक्रम में साल 2009 में प्रधानमंत्री आवास में बैठक में सम्मिलित हुए. उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा कि गंगा में प्रदूषण कम होगा तो गंगा डॉल्फिन की संख्या बढ़ेगी. इतने पैसे खर्च हो रहे हैं लेकिन आम आदमी को केमिस्ट्री की वह भाषा समझ में नहीं आती जो पानी की शुद्धता को तय करें.

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डॉल्फिन साफ पानी में ही रहते हैं: ऐसे में गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जंतु का दर्जा दिया जाए ताकि लोग इसे मारे नहीं और इसकी संख्या बढ़े. इसकी संख्या बढ़ेगी तो लोगों को यह समझ में आ जाएगा की पैसा खर्च करना सही जा रहा है और गंगा साफ हो रही है. डॉल्फिन साफ पानी में ही रहते हैं. इसके बाद गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जंतु प्रधानमंत्री ने घोषित कर दिया.

"भारत में पहला राष्ट्रीय स्तर का डॉल्फिन रिसर्च सेंटर पटना विश्वविद्यालय कैंपस में बनवाने की दिशा में काम शुरू किया. ऐसा इसलिए क्योंकि नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन के संबंध में सबसे अधिक लिटरेचर पटना विश्वविद्यालय में ही है और यही से रिसर्च की शुरुआत हुई थी. साल 2010 में इसका शिलान्यास हुआ और इस वर्ष यह बनकर तैयार हो गया है. अभी तक यह फंक्शनल नहीं है इसका दुख है लेकिन वह चाहते हैं कि जल्द से जल्द यह फंक्शनल हो." - रविंद्र कुमार सिंहा, डॉल्फिन मैन

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पटना: डॉल्फिन मैन रविंद्र कुमार सिन्हा का जन्म बिहार के जहानाबाद के मखदुमपुर के एक छोटे से गांव की ओटर में हुआ था. पूरी दुनिया में डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर रविंद्र कुमार सिन्हा जब गंगा पर रिसर्च कर रहे थे उस दौरान चार बार डाकुओं से भिड़ंत हुआ और डाकू उनका सब सामान लूटकर लिए. डाकुओं ने उनकी रिसर्च की गई प्रोजेक्ट को भी बर्बाद कर दिया. इसके बावजूद हार नहीं मानी. आईये जानते है डॉल्फिन मैन की अनोखी कहानी...

दादी के दाहसंस्कार में पहली बार देखा डॉल्फिन: दरअसल, 1961 में उनकी दादी का देहांत हुआ. शवदाह करने के लिए लोग पटना के बांस घाट लेकर आए. उन्होंने देखा कि काले रंग का एक जंतु पानी में बार-बार निकल रहा है और फिर पानी के अंदर चला जा रहा है. उनके मन में इस जंतु को जानने की जिज्ञासा जागी. लोगों से पूछा तो लोगों ने कहा कि गंगा में मत जाओ, यह सोंस है. यह आदमी को खा जाता है.

बचपन से ही डॉल्फिन के प्रति आकर्षण: रविंद्र बताते हैं कि साल 1970 में वह मखदुमपुर से ही हायर सेकेंडरी स्कूल पास कर पटना विश्वविद्यालय के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया. वह अपने प्रमंडल में इकलौते थे जिन्होंने उसे वर्ष प्रथम डिवीजन से पास किया था. उन्होंने बताया कि डॉल्फिन को जानने की जिज्ञासा उन्हें साल 1961 से हो गई. उस वक्त वे चौथी कक्षा में पढ़ाई करते थे.

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गंगा तट से देखा करते थे डॉल्फिन: रविंद्र बताते हैं कि इसके बाद पटना विश्वविद्यालय में दाखिला लेने से पहले कई बार ऐसे ही मौके पर वह पटना आते हैं और गंगा में डॉल्फिन को देखते. साल 1971 में वह जूलॉजी से ऑनर्स करने के लिए पटना साइंस कॉलेज में दाखिला लिए. साइंस कॉलेज गंगा नदी के घाट पर स्थित है ऐसे में वह लीजर पीरियड में नदी के घाट पर बैठकर सोंस (डॉल्फिन) को देखते रहते.

डॉल्फिन पानी में ही बच्चा देती है: रविंद्र बताते हैं कि कई दिनों तक यही कम चला और एक दिन मछुआरे से उन्होंने पूछा कि यह सोंस कैसा जानवर है. मछुआरे ने बताया कि यह बहुत अजीब जानवर है. पानी में ही बच्चा देती है और अपने बच्चों को पानी में ही दूध पिलाती है. रविंद्र बताते हैं कि उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह कैसी मछली है. इस दौरान वह अपने पाठ्यक्रम में मैमल्स के बारे में पढ़ चुके थे. वह समझ गए कि यह मैमल्स है.

स्नातक के बाद गंगा पर किया रिसर्च: रविंद्र ने बताया कि इसके बाद जब वह स्नातक कर गए और बीच में जेपी आंदोलन भी हुआ. जिसके कारण 2 वर्ष स्नातक पूरा करने में विलंब हो गया. कॉलेज में ही वह लेक्चर हो गये. इसके बाद उन्हें इकोलॉजी एनवायरमेंट पढ़ने का मौका मिला. जिसके बाद उन्होंने तय किया कि इसमें रिसर्च करेंगी ताकि बच्चों को अच्छा पढ़ सके.

मछुआरे करते थे डॉल्फिन की हत्या: रविंद्र ने बताया कि इसके बाद जब वह गंगा नदी गए तो मछुआरों को देखकर यही पूछे कि पहले नदी में सोंस बहुत दिखाई देता था और अब कम हो गया है. मछुआरा ने उन्हें बताया कि इसका वह लोग शिकार करते हैं लेकिन इसका मांस नहीं खाते हैं. इसका मांस स्वाद नहीं देता है लेकिन इसमें से तेल निकलता है जो अन्य मछलियों को पकड़ने के काम आता है.

डॉल्फिन 9 महीने का करती है गर्भधारण: यह सुनकर रविंद्र को आश्चर्य हुआ कि इसी प्रकार यदि मछुआरे सोंस को मारते रहे तो यह तो खत्म हो जाएगी. यह भी पता चला कि यह एक बार में एक ही बच्चा पैदा करती है और वह भी इससे पहले 9 महीने का गर्भधारण करती है. यह हर साल बच्चे भी नहीं देती. ऐसे में उन्होंने तय किया कि अब इसे बचाना होगा. इससे पहले सिंधु नदी में डॉल्फिन मिलने के लिटरेचर मौजूद थे.

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1983 में विश्वविद्यालय को दिया रिसर्च प्रपोजल: उन्होंने गंगा के प्रदूषण, जैव विविधता और डॉल्फिन पर खतरा क्या-क्या है इस पर रिसर्च शुरू कर दिया. उनका अपना रिसर्च वर्क चल रहा था. इसी भी साल 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्देश पर पटना विश्वविद्यालय को एक पत्र आता है कि गंगा पर इंट्रडिसीप्लिनरी रिसर्च किया जाए. गंगा जिन जिन राज्यों में बहती हैं वहां के विश्वविद्यालय हो कोई यह पत्र गया. कुलपति पत्र प्राप्त होने के बाद अगले दिन ही सभी विभाग के हेड को पत्र लिख बैठक बुलाई.

राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान लॉन्च: रविंद्र कुमार ने बताया कि बैठक में उन्होंने गंगा पर रिसर्च का अपना पूरा प्रस्ताव दे दिया. सभी विभाग के अध्यक्षों को यह पसंद आया. विश्वविद्यालय की ओर से योजना आयोग को प्रस्ताव भेज दिया गया. फिर 1985 में राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान लॉन्च किया. उनके प्रस्ताव पर डिस्कशन के लिए तीन लोग की एक कमेटी पटना पहुंची.

रिसर्च के लिए आया 28 लाख का फंड: कमेटी के सभी सवालों का 3 घंटे तक उन्होंने जवाब दिया. इसके बाद 10 दिन के बाद पटना में गंगा पर रिसर्च के लिए 28 लाख रुपए का प्रोजेक्ट आ गया. यह उस दौर में जब प्रोफेसर का वेतन ₹1000 से भी कम हुआ करता था. बक्सर से बाढ़ का क्षेत्र उन्हें दिया गया. गंगा की जैव विविधता, गंगा का प्रदूषण और सभी आयाम का रिसर्च के लिए उनके साथ टीम में 16 लोगों ने मिलकर गंगा पर रिसर्च शुरू किया.

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3 साल के रिसर्च में मिलने लगी प्रसिद्धि: रविंद्र कुमार ने बताया कि इसी बीच एक मछुआरे ने एक डॉल्फिन के छोटे मरे हुए बच्चे को लाकर दिया. पहली बार उन्होंने पूरी डॉल्फिन देखी. लेबोरेटरी में आकर उसकी तस्वीरें ली और उस पर रिसर्च शुरू किया. 3 साल के रिसर्च का डिटेल रिपोर्ट उन्होंने जब दिया तो उसके कलर पेज पर इसी डॉल्फिन की कलर फोटो रखी.

1992 में मिला डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया की उपाधि: डॉ रविंद्र कुमार बताते हैं कि इसी बीच साल 1992 में अंटार्कटिका में भारत की ओर से जाने वाले पहले वैज्ञानिक डॉ एस जेड काजिमी ने गंगा डॉल्फिन पर एक सेमिनार आयोजित किया. इस विदेश के सैकड़ों वैज्ञानिक उसमें पहुंचे. डॉक्टर काजिमी ने उन्हें मंच पर बुलाते हुए लोगों से परिचय कराया कि मिलिए भारत के डॉल्फिन मैन से. यहीं से उन्हें डॉल्फिन मैन ऑफ इंडिया की उपाधि मिल गई. वहीं साल 2016 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया.

डाकुओं से हुआ आमना-सामना: डॉ रविंद्र कुमार बताते हैं कि गंगा पर रिसर्च के लिए उन्होंने कई बार गंगोत्री से गंगासागर की यात्रा की. नाव में अपने साथ वह अपने छात्रों को लेकर जाते थे. चार बार उनका डाकुओं से आमना सामना भी हुआ है. डाकू उनका सब सामान लूटकर चले गए हैं और खाली हाथ आगे का वह सफर तय किए हैं.

डाकुओं ने रिसर्च वर्क कर दिया बर्बाद: रविंद्र बताते है कि कई बार डाकू उनके सिर पर पिस्टल रख देते थे कि बताओ कौन हो और छोड़ने के लिए बहुत पैसे की डिमांड करते थे. एक बार बुंदेलखंड के पास दिन के 11:00 बजे पिस्टल लिए डाकुओं ने बीच गंगा नदी में उन लोगों को रोक दिया. डाकुओं ने उनका सारा रिसर्च वर्क तहस-नहस कर दिया और रिसर्च वर्क बर्बाद हो गया.

2009 में डॉल्फिन संरक्षित जीव घोषित: डॉ रविंद्र कुमार बताते हैं कि इसके बाद उन्होंने काफी काम किया. गंगा स्वच्छता के लिए फंड जारी करने के कार्यक्रम में साल 2009 में प्रधानमंत्री आवास में बैठक में सम्मिलित हुए. उन्होंने प्रधानमंत्री से कहा कि गंगा में प्रदूषण कम होगा तो गंगा डॉल्फिन की संख्या बढ़ेगी. इतने पैसे खर्च हो रहे हैं लेकिन आम आदमी को केमिस्ट्री की वह भाषा समझ में नहीं आती जो पानी की शुद्धता को तय करें.

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डॉल्फिन साफ पानी में ही रहते हैं: ऐसे में गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जंतु का दर्जा दिया जाए ताकि लोग इसे मारे नहीं और इसकी संख्या बढ़े. इसकी संख्या बढ़ेगी तो लोगों को यह समझ में आ जाएगा की पैसा खर्च करना सही जा रहा है और गंगा साफ हो रही है. डॉल्फिन साफ पानी में ही रहते हैं. इसके बाद गंगा डॉल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जंतु प्रधानमंत्री ने घोषित कर दिया.

"भारत में पहला राष्ट्रीय स्तर का डॉल्फिन रिसर्च सेंटर पटना विश्वविद्यालय कैंपस में बनवाने की दिशा में काम शुरू किया. ऐसा इसलिए क्योंकि नदियों में पाई जाने वाली डॉल्फिन के संबंध में सबसे अधिक लिटरेचर पटना विश्वविद्यालय में ही है और यही से रिसर्च की शुरुआत हुई थी. साल 2010 में इसका शिलान्यास हुआ और इस वर्ष यह बनकर तैयार हो गया है. अभी तक यह फंक्शनल नहीं है इसका दुख है लेकिन वह चाहते हैं कि जल्द से जल्द यह फंक्शनल हो." - रविंद्र कुमार सिंहा, डॉल्फिन मैन

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