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Rajasthan: 175 साल पुराना धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का मंदिर, दीपोत्सव के 5 दिन रहती है श्रद्धालुओं की भीड़

अलवर में धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का मंदिर का 175 साल पुराना मंदिर है. दावा है कि धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का राजस्थान में एकमात्र मंदिर है.

धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का मंदिर
धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का मंदिर (ETV Bharat Alwar)
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By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Oct 29, 2024, 1:24 PM IST

अलवर : प्रदेश में वैसे तो कई ऐतिहासिक व पौराणिक मंदिर स्थापित हैं, जो अपनी अलग-अलग विशेषता व मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध हैं. अलवर शहर में भी ऐसा ही एक मंदिर स्थापित है, जहां दीपोत्सव के पांच दिनों में हजारों की संख्या में महिलाएं आकर भगवान चित्रगुप्त के समक्ष 13 पत्तल भेंट करती हैं. इसके बाद एक पत्तल भगवान को अर्पित कर शेष 12 पत्तल अन्य लोगों को बांटती हैं. दावा है कि प्रदेश में धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का यह एकमात्र मंदिर है. इस कारण यहां बड़ी दूर दूर से महिलाएं आती हैं. मंदिर के महंत ने बताया कि यह मूर्ति काले संगमरमर से निर्मित है, जो पारसी शैली को दर्शाता है.

मंदिर के महंत कृष्णदत्त शर्मा ने बताया कि यह मंदिर करीब 175 साल पुराना है. अलवर के तीसरे शासक महाराज शिवदान सिंह के मुंशी श्योराज बिहारी ने इस मंदिर को बनवाया था. इसके बाद महाराज ने इस मंदिर को अपने हाथ से हमारे पूर्वजों को संकल्पित कर भेंट कर दिया. तभी से हमारा परिवार इस मंदिर का रख रखाव व पूजा अर्चना कर रहा है. मंदिर के महंत ने बताया कि इस मंदिर को उनकी तीसरी व चौथी पीढ़ी संभाल रही है. यह मंदिर सभी अन्य मंदिरों की तरह साल के 365 दिन सुबह-शाम खुला रहता है. दीपोत्सव के पांच दिवस पर यहां बड़ी संख्या में महिलाओं का तांता लगा रहता है.

पढ़ें. Rajasthan: DHANTERAS SPECIAL : अजमेर के इस मंदिर की महिमा है खास, भक्त चढ़ाते हैं झाड़ू

इंद्र के शरीर की काया से उत्पन्न हुए चित्रगुप्त : महंत कृष्णदत्त ने बताया कि इन्हें धर्मराज इसलिए कहलाते हैं क्योंकि यह धर्मराज के स्वरूप हैं. धर्मराज के स्वरूप में 14 मूर्तियां हैं, जिनमें तीसरी मूर्ति चित्रगुप्त कहलाती है. इन्हें कायस्थों के देवता भी कहा जाता है. इन्हें मुंशी व जज के समान माना जाता है. प्राणी अपने जीवन में जैसा कर्म करता है, उन सबको चित्रगुप्त अपनी बही खाते में उतार रहे हैं. इनके एक हाथ में लाल रंग की बही, दूसरे हाथ में कलम व बगल में दवात है. जब व्यक्ति का जीवन समाप्त होगा, तब सबसे पहले व्यक्ति इन्हीं के समक्ष प्रस्तुत होता है और यह उस प्राणी का खाता खोल के कर्म बताएंगे. इसी के अनुसार अगली योनि निर्धारित होती है. ऐसी इस मंदिर की मान्यता है.

मंदिर के महंत ने बताया कि हर साल मंदिर प्रांगण में 5 से 10 हजार महिलाएं आती हैं और भगवान चित्रगुप्त को पत्तल देती हैं. महिलाओं की ओर से दी गई पत्तल पर सवा गुना प्रसाद होना जरूरी होता है. इसमें लड्डू, जलेबी, इमरती, पेठा सहित अन्य मिठाइयां रहती हैं. साल में एक बार एक पत्तल में चाकू, कॉपी, पेन भगवान चित्रगुप्त को चढ़ाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान चढ़ाई गई कॉपी में उनका लेखा-जोखा लिखते हैं.

प्रदेश का एकमात्र मंदिर : महंत कृष्ण दत्त शर्मा ने दावा किया कि यह मंदिर पूरे प्रदेश में एकमात्र मंदिर है जो अलवर में स्थापित है, जो दिशा के अनुसार उत्तर मुखी है. मंदिर में विराजित भगवान चित्रगुप्त की प्रतिमा काले संगमरमर से निर्मित है, जो पारसी शैली को दर्शाता है. इस मूर्ति को मथुरा के कारीगरों ने तैयार किया है, जिसके लिए करीब साढ़े चार साल की कड़ी मेहनत की गई.

अलवर : प्रदेश में वैसे तो कई ऐतिहासिक व पौराणिक मंदिर स्थापित हैं, जो अपनी अलग-अलग विशेषता व मान्यताओं के लिए प्रसिद्ध हैं. अलवर शहर में भी ऐसा ही एक मंदिर स्थापित है, जहां दीपोत्सव के पांच दिनों में हजारों की संख्या में महिलाएं आकर भगवान चित्रगुप्त के समक्ष 13 पत्तल भेंट करती हैं. इसके बाद एक पत्तल भगवान को अर्पित कर शेष 12 पत्तल अन्य लोगों को बांटती हैं. दावा है कि प्रदेश में धर्मराज स्वरूप चित्रगुप्त का यह एकमात्र मंदिर है. इस कारण यहां बड़ी दूर दूर से महिलाएं आती हैं. मंदिर के महंत ने बताया कि यह मूर्ति काले संगमरमर से निर्मित है, जो पारसी शैली को दर्शाता है.

मंदिर के महंत कृष्णदत्त शर्मा ने बताया कि यह मंदिर करीब 175 साल पुराना है. अलवर के तीसरे शासक महाराज शिवदान सिंह के मुंशी श्योराज बिहारी ने इस मंदिर को बनवाया था. इसके बाद महाराज ने इस मंदिर को अपने हाथ से हमारे पूर्वजों को संकल्पित कर भेंट कर दिया. तभी से हमारा परिवार इस मंदिर का रख रखाव व पूजा अर्चना कर रहा है. मंदिर के महंत ने बताया कि इस मंदिर को उनकी तीसरी व चौथी पीढ़ी संभाल रही है. यह मंदिर सभी अन्य मंदिरों की तरह साल के 365 दिन सुबह-शाम खुला रहता है. दीपोत्सव के पांच दिवस पर यहां बड़ी संख्या में महिलाओं का तांता लगा रहता है.

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इंद्र के शरीर की काया से उत्पन्न हुए चित्रगुप्त : महंत कृष्णदत्त ने बताया कि इन्हें धर्मराज इसलिए कहलाते हैं क्योंकि यह धर्मराज के स्वरूप हैं. धर्मराज के स्वरूप में 14 मूर्तियां हैं, जिनमें तीसरी मूर्ति चित्रगुप्त कहलाती है. इन्हें कायस्थों के देवता भी कहा जाता है. इन्हें मुंशी व जज के समान माना जाता है. प्राणी अपने जीवन में जैसा कर्म करता है, उन सबको चित्रगुप्त अपनी बही खाते में उतार रहे हैं. इनके एक हाथ में लाल रंग की बही, दूसरे हाथ में कलम व बगल में दवात है. जब व्यक्ति का जीवन समाप्त होगा, तब सबसे पहले व्यक्ति इन्हीं के समक्ष प्रस्तुत होता है और यह उस प्राणी का खाता खोल के कर्म बताएंगे. इसी के अनुसार अगली योनि निर्धारित होती है. ऐसी इस मंदिर की मान्यता है.

मंदिर के महंत ने बताया कि हर साल मंदिर प्रांगण में 5 से 10 हजार महिलाएं आती हैं और भगवान चित्रगुप्त को पत्तल देती हैं. महिलाओं की ओर से दी गई पत्तल पर सवा गुना प्रसाद होना जरूरी होता है. इसमें लड्डू, जलेबी, इमरती, पेठा सहित अन्य मिठाइयां रहती हैं. साल में एक बार एक पत्तल में चाकू, कॉपी, पेन भगवान चित्रगुप्त को चढ़ाया जाता है. ऐसी मान्यता है कि भगवान चढ़ाई गई कॉपी में उनका लेखा-जोखा लिखते हैं.

प्रदेश का एकमात्र मंदिर : महंत कृष्ण दत्त शर्मा ने दावा किया कि यह मंदिर पूरे प्रदेश में एकमात्र मंदिर है जो अलवर में स्थापित है, जो दिशा के अनुसार उत्तर मुखी है. मंदिर में विराजित भगवान चित्रगुप्त की प्रतिमा काले संगमरमर से निर्मित है, जो पारसी शैली को दर्शाता है. इस मूर्ति को मथुरा के कारीगरों ने तैयार किया है, जिसके लिए करीब साढ़े चार साल की कड़ी मेहनत की गई.

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