सराज: देवी-देवताओं की धरती कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश की संस्कृति बेहद ही अनोखी और अद्भुत है. हिमाचल के लोगों में देवी-देवताओं के प्रति अथाह विश्वास और गहरी आस्था है. हिमाचल में अनेकों ऐसे मंदिर हैं, जिनकी अपनी एक अलग कहानी और मान्यता है. जिन पर लोगों का अटूट विश्वास है. हिमाचल प्रदेश में ऐसे कई ऐतिहासिक और चमत्कारिक धार्मिक स्थल मौजूद हैं. ऐसा ही एक धार्मिक स्थल मंडी जिले में भी स्थित है. जंजैहली से 16 किलोमीटर दूर शिकारी देवी मंदिर एक ऐसा मंदिर है, जिस पर आज तक कोई छत नहीं बनाई गई है.
यहां एक साथ 64 योगिनियां विराजमान हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने करवाया था. मान्यता है कि मार्कंडेय ऋषि ने इस जगह पर कई साल तपस्या की थी. उनकी तपस्या से खुश होकर मां दुर्गा अपने शक्ति रूप में इस जगह पर स्थापित हुई थी. वहीं, बाद में इस स्थान पर अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने भी तपस्या की. पांडवों की तपस्या से खुश होकर मां दुर्गा प्रकट हुई और पांडवों को युद्ध में जीत का आशीर्वाद दिया. उसी समय पांडवों ने मंदिर का निर्माण करवाया, लेकिन किसी कारण इस मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हो सका और पांडव यहां पर मां की पत्थर की मूर्ति स्थापित करने के बाद चले गए थे.
मूर्ति पर नहीं टिकती बर्फ
शिकारी शिखर की पहाड़ियों पर हर साल सर्दियों में कई फीट तक स्नोफॉल होता है. मंदिर के प्रांगण में भी कई फीट तक बर्फ गिर जाती है, लेकिन छत न होने के बाद भी माता की मूर्ति पर ना बर्फ टिकती है और ना ही जमती है. मंदिर कमेटी के सदस्य धनीराम ठाकुर ने बताया कि कई कोशिशों के बाद भी इस रहस्यमय शिकारी देवी मंदिर की छत नहीं बन पाई. शिकारी माता खुले स्थान पर आसमान के नीचे रहना ही पसंद करती है. कई कोशिशें करने के बाद माता ने मंदिर पर छत बनाने की अनुमति नहीं दी. माता की अनुमति के बिना यहां एक पत्थर भी नहीं लगाया जा सकता है. बारिश, आंधी, तूफान और बर्फबारी में भी शिकारी माता खुले आसमान के नीचे रहना ही पसंद करती हैं.
वीरभद्र सिंह की मन्नत हुई थी पूरी
धनीराम ठाकुर ने बताया कि स्व. वीरभद्र सिंह को इसी मंदिर से मन्नत मांगने के बाद विक्रमादित्य सिंह के रूप में पुत्र की प्राप्ति हुई थी. स्व. वीरभद्र सिंह और मंदिर कमेटी ने यहां पद छत डालने का काफी प्रयास किया लेकिन माता ने इसकी इजाजत नहीं दी.
जिला मंडी के तहत आने वाली सराज घाटी में स्थित शिकारी देवी माता का मंदिर समुद्र तल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित है. बर्फबारी होने के कारण सर्दियों में यह मंदिर नवम्बर से 3 से 4 माह तक श्रद्धालुओं के लिए बंद रहता है, जिसके बाद मार्च माह के अंत या अप्रैल के पहले सप्ताह में इस मंदिर के कपाट खोल दिए जाते हैं. अप्रैल, मई और जून में श्रद्धालुओं के आने की संख्या में ज्यादा बढ़ोतरी होती है.
शिकारी माता मंदिर की दूसरी कथा
एक अन्य मान्यता के अनुसार यह पूरा इलाका जंगलों से घिरा हुआ था और यहां पर शिकारी वन्यजीवों का शिकार करने के लिए आते थे. शिकार करने से पहले शिकारी इस मंदिर में सफलता की प्रार्थना करते और उनकी मनोकामना पूरी हो जाती. इसी के बाद इस मंदिर का नाम शिकारी देवी पड़ गया. शिकारी माता दर्शन करने के लिए हर साल यहां पर लाखों श्रद्धालु पहुंचते हैं. गर्मियों के दिनों में मंदिर के चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखती है और श्रद्धालुओं के पहुंचने के लिए यहां पर बेहद सुंदर मार्ग बनाया गया है.
इन दिनों पहुंच रहे हजारों श्रद्धालु
मंदिर के सेवादार शेष राम ने बताया कि इन दिनों रोजाना मंदिर में 500 से 1000 श्रद्धालु आ रहे हैं, जबकि छुट्टियों के दौरान यह आंकड़ा 10 हजार तक भी पहुंच जाता है. माता शिकारी देवी का मंदिर श्रद्धालुओं के लिए आजकल किसी जन्नत से कम नहीं है. मन्नत पूरी होने के साथ-साथ यहां पहुंचने पर भक्तों को ठंड का एहसास भी होता है. मंदिर आए श्रद्धालु कुलदीप चंद, सीमा देवी, निर्मला देवी और विजय कुमारी ने बताया कि उन्होंने मंदिर के बारे में काफी सुना था और जब यहां पहुंचे तो उससे कहीं ज्यादा पाया. मंदिर पहुंचने पर एक अलग सुकून की अनुभूति होती है और माता अपने भक्तों की हर मुराद को पूरा करती है.
शारीरिक कष्टों को दूर करती हैं माता
मंदिर कमेटी के सदस्य धनीराम ठाकुर ने कहा कि शिकारी माता शारीरिक कष्टों को दूर करती हैं. मान्यता है कि इस मंदिर से कभी भी कोई भक्त खाली हाथ नहीं लौटता. माता अपने भक्तों की सच्चे मन से मांगी सभी मनोकामनाओं को पूरा करती है. कहा जाता है कि यदि आपके शरीर के किसी अंग में अत्याधिक कष्ट रहता है तो आप यहां आकर उस अंग के स्वस्थ होने की कामना करते हैं तो फिर उस कामना के पूरा होने पर भक्तों को चांदी से बने अंग की छोटी सी प्रतिमा इस मंदिर में भेंट स्वरूप चढ़ाते हैं. आज मंदिर कमेटी के पास 10 से 15 किलो चांदी एकत्रित हो चुकी है.