नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि एक जज होने के नाते एक न्यायिक अधिकारी उन मौलिक अधिकारों को नहीं छोड़ सकता जो अन्य नागरिकों को हासिल है. जस्टिस स्वर्णकांता शर्मा की बेंच ने यह टिप्पणी एक आरोपी को जमानत देने से इनकार करते हुए किया.
कोर्ट ने कहा कि अगर किसी जज या उसके परिवार का कोई सदस्य, किसी आपराधिक मामले में शिकायतकर्ता है तो किसी आरोपी को न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता है. ठीक उसी तरह जज और उसके परिवार को भी पीड़ित होने की स्थिति में न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता है. ऐसा करना एक जज और उसके परिवार को मौलिक, निजी और सामाजिक अधिकारों से वंचित करने की तरह होगा.
दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा कि आम नागरिकों और समाज के लोगों को न्याय पाने का पूरा अधिकार है. कोर्ट ने कहा कि एक जज होने के नाते उन्हें या उनके परिवार को उनकी व्यक्तिगत क्षमता में न्याय से वंचित नहीं किया जाना चाहिए. न ही केवल व्यावसायिक खतरों के रुप में खारिज कर दिया जाना चाहिए.
दरअसल, हाई कोर्ट एक ऐसे मामले की सुनवाई कर रहा था जिसमें एक व्यक्ति ने जमानत याचिका दायर करते हुए कहा था कि उसकी जमानत याचिका इसलिए खारिज कर दी गई, क्योंकि शिकायतकर्ता जज की बहन थी. जानकारी के अनुसार, जज की बहन ने आरोपी के खिलाफ धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए ट्रायल कोर्ट में केस दर्ज कराया था.
लॉ कोर्सेज में शिक्षा का अधिकार कानून: लॉ कोर्सेज में शिक्षा के अधिकार कानून को शामिल करने पर एडवाइजरी कमेटी विचार करेगी. मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने एडवाइजरी कमेटी के फैसले का इंतजार करने का निर्देश दिया.