पटना: बिहार में 2015-16 में दो दर्जन के करीब ही केंद्रीय प्रायोजित योजनाएं चल रही थी, जिसमें राज्य को कम हिस्सा देना पड़ता था. लेकिन अब यह संख्या 100 से ऊपर पहुंच गयी है. बिहार को लगभग 30 हजार करोड़ से अधिक की राशि हर साल देनी पड़ रही है. आर्थिक विशेषज्ञ भी कह रहे हैं कि केंद्र प्रायोजित योजनाओं में यदि राज्यों की हिस्सेदारी कम हो तो राज्यों में उससे ज्यादा विकास संभव हो सकेगा.
राज्यों की बढ़ रही हिस्सेदारीः केंद्रीय प्रायोजित योजनाओं में राज्यों को 40 से 50% तक हिस्सेदारी देनी पड़ रही है. कुछ योजनाओं में 25% तक की भी हिस्सेदारी राज्यों को देना पड़ता है. अधिकांश योजनाओं में 50% के आसपास पहुंच गया है. बिहार जैसे राज्यों के लिए यह एक बड़ी चुनौती है क्योंकि कई बार योजनाएं इसी कारण लटक जाती है कि राज्य अपनी हिस्सेदारी सही समय पर नहीं दे पता है. एक दशक पहले तक केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या 27 के आसपास थी लेकिन अब यह बढ़कर 107 पहुंच गई है.
नीतीश ने योजना घटाने की मांग की थीः केंद्र प्रायोजित योजनाओं को लेकर नीतीश कुमार और उनकी पार्टी जब महागठबंधन में थे तो लगातार यह डिमांड करते रहे हैं इसकी संख्या कम होनी चाहिए. अब नीतीश कुमार एनडीए में हैं. इसलिए जदयू मंत्रियों के भी सुर बदल गए हैं. यह मांग अब थम गयी है. मंत्रियों के सुर भी बदल गए हैं. बिहार सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री श्रवण कुमार का कहना है कि केंद्र से लगातार बिहार को मदद मिल रही है.
"रोड सेक्टर एनएच, पुल पुलिया, मनरेगा, बाढ़ से बचाव और कई क्षेत्रों में बिहार को केंद्र से पर्याप्त मदद मिल रहा है, जिससे विकास हो रहा है. हम लोगों की मांग जरूर थी कि केंद्र प्रायोजित योजनाओं की राशि सत प्रतिशत केंद्र दें लेकिन दूसरे माध्यम से भी केंद्र से राशि आ रही है और इससे भी बिहार का विकास हो रहा है."- श्रवण कुमार, ग्रामीण विकास मंत्री
पिछड़े राज्यों के सामने आर्थिक संकटः वरिष्ठ पत्रकार भोलानाथ का कहना है राजनीति में सुविधा के अनुसार बातें की जाती है. केंद्र प्रायोजित योजनाओं को लेकर एक समय नीतीश कुमार मांग करते थे कि इसकी संख्या घटाई जाए लेकिन स्थितियां बदली है, इसलिए अभी यह मांग दब गयी है. केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या अधिक होने से राज्यों को परेशानी होती है, क्योंकि राज्यों को भी हिस्सेदारी देनी पड़ती है. बिहार जैसे राज्यों के लिए तो और भी मुश्किल है क्योंकि आर्थिक रूप से पिछड़ा है.
"बिहार और कई राज्यों का तो पहले से भी कहना रहा है कि केंद्र की कई योजनाएं ऐसी है जिसका सही लाभ राज्य को नहीं मिल पाता है. यह सही भी है कि केंद्रीय योजनाओं की संख्या अधिक होने से राज्यों के लिए मुश्किलें आती हैं, क्योंकि केंद्र प्रायोजित योजनाओं में राज्यों की हिस्सेदारी काफी बढ़ा दी गई है."- भोलानाथ, वरिष्ठ पत्रकार
क्या कहते हैं आर्थिक जानकारः अर्थशास्त्रीय एन के चौधरी का कहना है केंद्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या राज्यों के हिसाब से बननी चाहिए. इसकी संख्या अधिक होने से बड़ी राशि राज्यों को देना पड़ता है. बिहार जैसे राज्य को ही 30000 करोड़ की राशि इसमें हिस्सेदारी के रूप में देना पड़ता है तो स्वाभाविक है कि बिहार अपनी जरूरत के हिसाब से योजना तैयार नहीं कर पाएगी. केंद्र सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए.
"यदि केंद्र को लगता है कि राज्यों में योजना चलाने की जरूरत है तो पूरी राशि केंद्र सरकार को देना चाहिए खासकर बिहार जैसे पिछले राज्यों के लिए भी पॉलिसी अलग केंद्र को बनानी पड़ेगी."- एन के चौधरी, अर्थशास्त्रीय
क्या है केंद्र प्रायोजित योजनाएंः केंद्र प्रायोजित योजनाओं का अर्थ कुछ ऐसी योजनाओं से होता है, जिनमें योजनाओं के कार्यान्वयन हेतु वित्त की व्यवस्था केंद्र तथा राज्य द्वारा मिलकर की जाती है. इस प्रकार की योजनाओं में राज्य द्वारा दी जाने वाली राशि का प्रतिशत राज्यों के साथ परिवर्तित भी होता रहता है. यह 50:50, 60:40, 70:30 या 75:25 में हो सकता है, वहीं कुछ विशेष राज्यों जैसे- पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों के लिये केंद्र और राज्य का हिस्सा 90:10 भी रहता है.
किन-किन विषयों पर बनती योजनाः CSS के तहत जो योजनाएं तैयार की जाती हैं वे मुख्यतः राज्य सूची के तहत आने वाले विषयों से संबंधित होती हैं. CSS के तहत आने वाली कुछ प्रमुख योजनाओं में MGNREGA, हरित क्रांति, प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत मिशन और राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, जल जीवन मिशन, अनुसूचित जाति के लिए चलाई जाने वाली योजना शामिल हैं.
राज्यों को नहीं देना होता हिस्साः नमामि गंगे-राष्ट्रीय गंगा योजना, गरीब घरों में LPG कनेक्शन, फसल बीमा योजना, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का पुनर्पूंजीकरण, परिवार कल्याण योजनाएँ, श्रमिक कल्याण योजनाएँ, छात्रवृत्ति योजना, माध्यमिक शिक्षा के लिये बालिका प्रोत्साहन, किसानों को अल्पकालिक ऋण के लिये ब्याज अनुदान और प्रधानमंत्री मुद्रा योजना जैसी योजनाओं में केंद्र शासित प्रतिशत राशि देती है इसमें राज्यों की हिस्सेदारी नहीं होती है.
योजना केंद्र के नाम से होती हैः नीतीश कुमार जब महा गठबंधन की सरकार बिहार में चला रहे थे उस समय विशेष राज्य के दर्जे की मांग जोर-जोर से हो रही थी. बिहार सरकार की ओर से केंद्र सरकार को पत्र भी भेजा गया था. यही नहीं केंद्रीय योजनाओं को लेकर भी सरकार को पत्र भेजा गया था योजनाओं को कम करने और बिहार की हिस्सेदारी कम करने की मांग की गई थी. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कई बार बोल चुके हैं योजना केंद्र के नाम से होती है और उसमें राशि राज्यों को देना पड़ता है राज्यों का कोई नाम नहीं.
विशेष राज्य दर्जा की मांग ठंडे बस्ते मेंः मंत्री विजय चौधरी ने यहां तक कहा था कि विशेष राज्य का दर्जा नहीं मिले तो कम से कम बिहार को केंद्रीय योजनाओं में हिस्सेदारी नहीं देना पड़े. ऐसी व्यवस्था केंद्र करे उससे बिहार को 30000 करोड़ की राशि हर साल बचेगी जिससे बिहार अपना विकास कर सकेगा. ऐसे डबल इंजन की सरकार में बिहार को केंद्रीय बजट में इस बार पैकेज मिले हैं. लेकिन नीतीश कुमार जहां विशेष राज के दर्जे की मांग फिलहाल भूल चुके हैं.
किसकी कितनी हिस्सेदारीः केंद्र प्रायोजित योजनाओं में आजीविका और मनरेगा की योजना में 75% केंद्र सरकार देती है तो 25% बिहार सरकार देती है. नदी जोड़ योजना में केंद्र सरकार 60% देती है तो बिहार सरकार का 40% लग रहा है. इसी तरह प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में केंद्र 60% तो बिहार को 40% देना होता है. प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना में केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी 60:40 का है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन कार्यक्रम में केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी 90:10 की है.
केंद्र-राज्य की बराबर हिस्सेदारीः जल जीवन मिशन केंद्र प्रवृत्ति योजना में 50% केंद्र देती है और 50% राज्यों को देना होता है. इसके साथ अनुसूचित जाति कल्याण निदेशालय द्वारा चलाई जाने वाली योजनाओं में भी केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी 50-50% है. केंद्र द्वारा जिन योजनाओं में पहले राज्यों की हिस्सेदारी कम थी अब उसमें भी हिस्सेदारी बढ़ाई जा रही है. इसीलिए कई राज्यों की तरफ से इस पर आपत्ति भी जताई जाती है.
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