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आदिवासियों की कला-कौशल ऐसी जिसे देखकर आप रह जाएंगे चकित, महिला महोत्सव में सामने आई प्रतिभा - Art And Craft Of Tribals

Tribals mahila mahotsav in Ranchi.आदिवासी समाज अपनी जीवन की जरूरतें पूरी करने के लिए शुरू से ही प्रकृति पर आश्रित रहा है.इस कारण उनमें खास तरह की कला कौशल है. इन कलाओं में बांस की टोकरी, बेंत की कुर्सी, चटाई और घरेलू साज-सज्जा के सामान बनाना तो आम है, लेकिन एक खास कला भी आदिवासियों में है, जो आप रांची के महिला महोत्सव कार्यक्रम में देख सकते हैं.

Art And Craft Of Tribals
महिला महोत्सव में आदिवासी महिलाएं. (फोटो-ईटीवी भारत)
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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Aug 10, 2024, 6:54 PM IST

रांचीः वन संपदा को अपना सर्वस्व मानने वाले जनजातियों की कला कौशल को आप देखकर आश्चर्यचकित हो जाएंगे. जंगल में वर्षा और जंगली जानवरों से बचाव के लिए पेड़ के पत्तों से खास तरह का पहनावा जनजाति महिलाएं तैयार करती हैं. झारखंड के सुदूरवर्ती गांव से महिला महोत्सव में शामिल होने के लिए पहुंचीं आदिवासी महिलाओं से जब ईटीवी भारत ने बात की तो उन्होंने इसकी उपयोगिता की विस्तार से जानकारी दी.

आदिवासी महोत्सव कार्यक्रम में जानकारी देतीं महिलाएं. (वीडियो-ईटीवी भारत)

सखुआ के पत्ते से बनाया जाता है खास पहनावा

ईटीवी भारत से बात करते हुए सुकनी असुर कहती हैं कि यह खास पहनावा सखुआ के पत्ते से बनाया जाता है. इसे जनजाति चुकरु कहते हैं. चुकरु बारिश में वाटरप्रूफ की तरह काम करता है. घने जंगल और खेतों में काम करने के दौरान चुकरु बारिश से तो बचाता ही है, साथ ही जंगली जीवों से भी रक्षा करता है.

चुकरु बनाने का तरीका भी है खास

चुकरु बनाने के लिए पहले जंगल में पत्ता चुनकर लाया जाता है. उसके बाद उसकी अच्छी तरह से सफाई कर पत्तों को चादरनुमा कई परतों में तैयार किया जाता है. खास बात यह है कि इस चुकरु में पेड़ के पत्ते के सिवा किसी भी चीज का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसे बनाने की भी कला होती है, जो सभी महिलाएं नहीं जानती हैं. इस वजह से इसकी मांग ग्रामीण क्षेत्र में काफी होती है. वहीं चुकरु की कीमत 1000 रुपये तक होती है. सुकनी असुर के अनुसार चुकरु तीन साल तक खराब नहीं होता है.

गुंगू और ढेपे भी तैयार करती हैं आदिवासी महिलाएं

चुकरु के बाद आदिवासियों का दूसरा सबसे लोकप्रिय पहनावा गुंगू और ढेपे है. टोपी की आकृति का बना गुंगू को सिर पर रखकर जनजाति जंगल जाते हैं. गुंगू भी बारिश और जंगली कीड़े-मकौड़े से बचाव करता है. इसे तैयार करने में चार से पांच घंटे लगते हैं. ये दोनों पहनावे भी सिर्फ पेड़ों के पत्तों से तैयार किए जाते हैं. इसमें भी कोई अन्य चीजों का इस्तेमाल नहीं होता है.

आदिवासी कला का विशिष्ट नमूना है ढेपे

ढेपे आदिवासी कला-संस्कृति का विशिष्ट नमूना है. इसका इस्तेमाल घरों में धान रखने के लिए भी किया जाता है.आम तौर पर आप इसे मिट्टी से बने बरतन के रूप में देखते होंगे, लेकिन जनजाति आज भी पेड़ के पत्तों से इसे तैयार कर घरों में इस्तेमाल करते हैं. इनका आकार इच्छानुसार बदल सकता है. इस संबंध में मीनी दीदी बताती हैं कि इसे सहेजकर रखने की आवश्यकता है. यदि इसे ठीक से रखा जाए तो तीन से चार साल तक चलेगा.

ये भी पढ़ें-सांस्कृतिक कार्यक्रम से गुलजार बिरसा स्मृति उद्यान, लोक कला से लेकर नृत्य नाटिका का आयोजन - Jharkhand Adivasi Mahotsav

ये भी पढ़ें-आदिवासी महोत्सव के इवेंट पर 6 करोड़ रु किये गये खर्च, कई और वजहों से भी चर्चा में रहा विश्व आदिवासी दिवस कार्यक्रम

ये भी पढ़ें-झारखंड के आदिवासियों का खान-पान बनाता है उन्हें औरों से अलग! जानें, क्या है खास - Jharkhand Adivasi Mahotsav

रांचीः वन संपदा को अपना सर्वस्व मानने वाले जनजातियों की कला कौशल को आप देखकर आश्चर्यचकित हो जाएंगे. जंगल में वर्षा और जंगली जानवरों से बचाव के लिए पेड़ के पत्तों से खास तरह का पहनावा जनजाति महिलाएं तैयार करती हैं. झारखंड के सुदूरवर्ती गांव से महिला महोत्सव में शामिल होने के लिए पहुंचीं आदिवासी महिलाओं से जब ईटीवी भारत ने बात की तो उन्होंने इसकी उपयोगिता की विस्तार से जानकारी दी.

आदिवासी महोत्सव कार्यक्रम में जानकारी देतीं महिलाएं. (वीडियो-ईटीवी भारत)

सखुआ के पत्ते से बनाया जाता है खास पहनावा

ईटीवी भारत से बात करते हुए सुकनी असुर कहती हैं कि यह खास पहनावा सखुआ के पत्ते से बनाया जाता है. इसे जनजाति चुकरु कहते हैं. चुकरु बारिश में वाटरप्रूफ की तरह काम करता है. घने जंगल और खेतों में काम करने के दौरान चुकरु बारिश से तो बचाता ही है, साथ ही जंगली जीवों से भी रक्षा करता है.

चुकरु बनाने का तरीका भी है खास

चुकरु बनाने के लिए पहले जंगल में पत्ता चुनकर लाया जाता है. उसके बाद उसकी अच्छी तरह से सफाई कर पत्तों को चादरनुमा कई परतों में तैयार किया जाता है. खास बात यह है कि इस चुकरु में पेड़ के पत्ते के सिवा किसी भी चीज का प्रयोग नहीं किया जाता है. इसे बनाने की भी कला होती है, जो सभी महिलाएं नहीं जानती हैं. इस वजह से इसकी मांग ग्रामीण क्षेत्र में काफी होती है. वहीं चुकरु की कीमत 1000 रुपये तक होती है. सुकनी असुर के अनुसार चुकरु तीन साल तक खराब नहीं होता है.

गुंगू और ढेपे भी तैयार करती हैं आदिवासी महिलाएं

चुकरु के बाद आदिवासियों का दूसरा सबसे लोकप्रिय पहनावा गुंगू और ढेपे है. टोपी की आकृति का बना गुंगू को सिर पर रखकर जनजाति जंगल जाते हैं. गुंगू भी बारिश और जंगली कीड़े-मकौड़े से बचाव करता है. इसे तैयार करने में चार से पांच घंटे लगते हैं. ये दोनों पहनावे भी सिर्फ पेड़ों के पत्तों से तैयार किए जाते हैं. इसमें भी कोई अन्य चीजों का इस्तेमाल नहीं होता है.

आदिवासी कला का विशिष्ट नमूना है ढेपे

ढेपे आदिवासी कला-संस्कृति का विशिष्ट नमूना है. इसका इस्तेमाल घरों में धान रखने के लिए भी किया जाता है.आम तौर पर आप इसे मिट्टी से बने बरतन के रूप में देखते होंगे, लेकिन जनजाति आज भी पेड़ के पत्तों से इसे तैयार कर घरों में इस्तेमाल करते हैं. इनका आकार इच्छानुसार बदल सकता है. इस संबंध में मीनी दीदी बताती हैं कि इसे सहेजकर रखने की आवश्यकता है. यदि इसे ठीक से रखा जाए तो तीन से चार साल तक चलेगा.

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