नई दिल्ली: अनुरा कुमारा दिसानायके ने सोमवार को जब पद की शपथ ली, तो वे आधिकारिक तौर पर श्रीलंका के नौवें कार्यकारी राष्ट्रपति बन गए, लेकिन असल में वे श्रीलंका के 10वें राष्ट्रपति हैं. हालांकि, नेशनल पीपुल्स पावर (NPP) गठबंधन के चुनाव घोषणापत्र के अनुसार, जिसके प्रतिनिधित्व में वे देश के सर्वोच्च पद पर चुने गए हैं, दिसानायके श्रीलंका के अंतिम निर्वाचित कार्यकारी राष्ट्रपति हो सकते हैं.
यह बात सोमवार को राष्ट्रपति सचिवालय के निकट मीडिया के सामने एनपीपी के वरिष्ठ नेता और सांसद सुनील हंडुनेट्टी द्वारा की गई टिप्पणियों से और भी स्पष्ट हो गई. उन्होंने यह टिप्पणी ऐसे समय की जब दिसानायके शपथ ले रहे थे.
इकोनॉमीनेक्स्ट डॉट कॉम ने हैंडुन्नेट्टी के हवाले से कहा, "आज आपने इस देश के आखिरी कार्यकारी राष्ट्रपति को चुना है. अब से कोई कार्यकारी राष्ट्रपति नहीं होगा. कार्यकारी राष्ट्रपति को खत्म करने के लिए राष्ट्रपति का चुनाव हो चुका है. हम देश के लोगों से इसका समर्थन करने का अनुरोध करते हैं."
हंडुनेट्टी एनपीपी गठबंधन के राष्ट्रपति चुनाव घोषणापत्र में किए गए वादे को दोहरा रहे थे, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि एक नया संविधान तैयार किया जाएगा और आवश्यक परिवर्तनों के साथ सार्वजनिक चर्चा करके जनमत संग्रह के माध्यम से इसे पारित किया जाएगा.
श्रीलंका में कार्यकारी राष्ट्रपति पद कब अस्तित्व में आया?
श्रीलंका ने 1948 में ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता प्राप्त की थी.उस समय इसे सीलोन के नाम से जाना था. संविधान के तहत जिसमें 1947 का सीलोन स्वतंत्रता अधिनियम और 1947 में सीलोन आदेश शामिल थे, सीलोन एक संवैधानिक राजतंत्र बन गया, जिसमें सरकार का वेस्टमिंस्टर संसदीय स्वरूप था.
सीलोन के सम्राट (ब्रिटिश सम्राट) राज्य के प्रमुख के रूप में कार्य करते थे, जिनका प्रतिनिधित्व गवर्नर-जनरल द्वारा किया जाता था और प्रधानमंत्री सरकार के प्रमुख के रूप में कार्य करते थे. गवर्नर-जनरल ने ब्रिटिश सीलोन के गवर्नर के पद को प्रतिस्थापित किया, जिन्होंने पहले 1815 से पूरे द्वीप पर कार्यकारी नियंत्रण का प्रयोग किया था.
1972 में एक नया गणतंत्रात्मक संविधान अपनाया गया, जिसने देश का नाम सीलोन से बदलकर श्रीलंका करने के अलावा द्वीप राष्ट्र को संसदीय गणराज्य घोषित किया, जिसमें राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है. राष्ट्रपति काफी हद तक औपचारिक व्यक्ति था, वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री के पास ही रही. विलियम गोपालवा, जो सीलोन के अंतिम गवर्नर-जनरल के रूप में कार्यरत थे, श्रीलंका के पहले राष्ट्रपति बने थे.
1978 में संविधान के दूसरे संशोधन ने वेस्टमिंस्टर सिस्टम को सेमी- प्रेजिडेंट सिस्टम से बदल दिया और राष्ट्रपति पद फ्रांसीसी मॉडल पर आधारित एक कार्यकारी पद बन गया और अब यह राज्य का प्रमुख और सरकार का प्रमुख दोनों था, जिसका कार्यकाल लंबा था और यह संसद से स्वतंत्र था. राष्ट्रपति सशस्त्र बलों के कमांडर-इन-चीफ, मंत्रियों के मंत्रिमंडल के प्रमुख थे, और उनके पास संसद को भंग करने और बुलाने की शक्ति थी. प्रधानमंत्री राष्ट्रपति के सहायक और उप-प्रधान और राष्ट्रपति के उत्तराधिकारी दोनों के रूप में काम करता था.
कार्यकारी राष्ट्रपति पद क्रिएट करना आवश्यक क्यों समझा गया?
कार्यकारी राष्ट्रपति पद की शुरुआत 1978 में यूनाइटेड नेशनल पार्टी (UNP) के अध्यक्ष जेआर जयवर्धने के नेतृत्व में की गई थी. इसका उद्देश्य कार्यकारी नेतृत्व में निरंतरता सुनिश्चित करके देश के शासन को स्थिर करना था, विशेष रूप से संकट के समय में और 1970 के दशक की आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का समाधान करने के लिए अधिक केंद्रीकृत निर्णय लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा देना था.
जयवर्धने का मानना था कि यह सिस्टम तेजी से निर्णय लेने की अनुमति देगी, जिससे संसदीय प्रणालियों से जुड़े विधायी गतिरोध और गुटबाजी से बचा जा सकेगा. यह विशेष रूप से प्रासंगिक था, क्योंकि श्रीलंका को आर्थिक कठिनाइयों और सिंहली और तमिल अल्पसंख्यकों के बीच जातीय संघर्ष के शुरुआती संकेतों का सामना करना पड़ा था.
रणसिंघे प्रेमदासा, डिंगिरी बांदा विजेतुंगा, चंद्रिका कुमारतुंगा, महिंदा राजपक्षे, मैत्रीपाला सिरिसेना, गोटाबाया राजपक्षे, रानिल विक्रमसिंघे और अब दिसानायके ने जयवर्धने के बाद कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्यभार संभाला है.
अब कार्यकारी राष्ट्रपति पद को समाप्त करना क्यों जरूरी माना जा रहा है?
एक व्यक्ति के हाथों में सत्ता का संकेन्द्रण अक्सर अधिनायकवाद के आरोपों को जन्म देता है. इससे लोकतांत्रिक मानदंडों का उल्लंघन करने, मीडिया को नियंत्रित करने, विपक्ष को दबाने और असहमति को दबाया जा सकता है. सत्ता के इस केंद्रीकरण ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को कमजोर करने की चिंताओं को जन्म दिया है.
संसद को भंग करने की शक्ति और इमरजेंसी ऑर्डर के साथ इसे दरकिनार करने की क्षमता ने श्रीलंका की विधायी शाखा की प्रभावशीलता को कम कर दिया है. कार्यकारी राष्ट्रपति पद जांच और संतुलन में संसद की भूमिका को कम करता है, जिससे राष्ट्रपति को जवाबदेह ठहराना कठिन हो जाता है.
अपार शक्ति के साथ सहयोगियों और परिवार के सदस्यों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त करने की क्षमता भी आती है, जिससे भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं. कई राष्ट्रपतियों पर अपने पदों का इस्तेमाल वफादारों को पुरस्कृत करने और खुद को कानूनी जांच से बचाने के लिए करने का आरोप लगाया गया है.
इस सिस्टम की आलोचना श्रीलंका के जातीय विभाजन को बढ़ाने के लिए की गई है, खासकर श्रीलंकाई गृहयुद्ध (1983-2009) के दौरान. कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल अक्सर कठोर सैन्य और सुरक्षा उपायों को लागू करने के लिए किया जाता था, जिससे सिंहली बहुसंख्यकों और तमिल अल्पसंख्यकों के बीच तनाव बढ़ गया.
राष्ट्रपति की जजों की नियुक्ति और न्यायिक मामलों को नियंत्रित करने की क्षमता को न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए खतरा माना जाता रहा है. इसने कानूनी प्रणाली की निष्पक्षता पर चिंताएं बढ़ा दी हैं. कई लोगों का माननाहै कि कार्यकारी राष्ट्रपति पद को समाप्त करने से संसद की प्रधानता बहाल होगी और कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्ति का अधिक संतुलित वितरण हो सकेगा. राष्ट्रपति को दी गई कानूनी छूट के बिना यह तर्क दिया जाता है कि शासन में अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही होगी. सुधारों से राष्ट्रपति की निगरानी या कानूनी नतीजों के बिना कार्य करने की क्षमता सीमित हो सकती है.
क्या कार्यकारी राष्ट्रपति की शक्तियों पर अंकुश लगाने के प्रयास किए गए हैं?
2001 में पेश किए गए 17वें संविधान संशोधन ने राष्ट्रपति की कुछ शक्तियों को कम कर दिया, विशेष रूप से उच्च न्यायपालिका और स्वतंत्र आयोगों जैसे कि चुनाव आयोग या रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार आयोग की नियुक्ति के संबंध में.
2010 में राष्ट्रपति पद के लिए दो कार्यकाल की सीमा को हटाने के लिए संविधान में अत्यधिक विवादास्पद 18वां संशोधन पेश किया गया था. 18वें संशोधन ने मौजूदा राष्ट्रपति को कई कार्यकालों तक सेवा करने की अनुमति दी और साथ ही व्यापक संवैधानिक परिषद को सीमित संसदीय परिषद से बदलकर उनकी शक्ति को बढ़ाया. यह संशोधन तत्कालीन राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे द्वारा पेश किया गया था और बाद में उन्होंने 2015 में राष्ट्रपति पद के तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ा, जिसमें उन्हें मैत्रीपाला सिरिसेना ने हरा दिया.
राष्ट्रपति की शक्तियों को कम करने के उद्देश्य से सबसे महत्वपूर्ण संशोधनों में से एक 19वां संशोधन था, जिसे 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति सिरिसेना के तहत पारित किया गया था. इस संशोधन ने राष्ट्रपति के कार्यकाल को छह साल से घटाकर पांच साल कर दिया, राष्ट्रपतियों के लिए दो कार्यकाल की सीमा को बहाल कर दिया और कुछ कार्यकारी शक्तियों को संसद और स्वतंत्र आयोगों को वापस सौंप दिया. इसने राष्ट्रपति की संसद को भंग करने की क्षमता को भी सीमित कर दिया और प्रमुख संस्थानों की स्वतंत्रता को बढ़ा दिया.
हालांकि, 2020 में तत्कालीन राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के तहत 20वें संशोधन ने 19वें संशोधन के कई प्रावधानों को उलट दिया, राष्ट्रपति की कार्यकारी शक्तियों को बहाल कर दिया और कार्यकाल की सीमा को हटा दिया, जिससे सत्तावाद पर चिंताएँ बढ़ गईं.
2022 में देश एक गंभीर आर्थिक संकट में फंस गया और परिणामस्वरूप, पूरे श्रीलंका में बड़े पैमाने पर सरकार विरोधी प्रदर्शन हुए. प्रदर्शनकारियों ने मांग की कि तत्कालीन राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे और उनकी सरकार को पद छोड़ देना चाहिए. प्रदर्शनकारियों ने श्रीलंका के संविधान में संशोधन और राष्ट्रपति की शक्तियों को कम करने की भी मांग की. गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफे के बाद, प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को संसद द्वारा राष्ट्रपति चुना गया.
अक्टूबर 2022 में 21वें संविधान संशोधन को कार्यकारी राष्ट्रपति पर संसद को सशक्त बनाने और राष्ट्रपति की कुछ शक्तियों पर अंकुश लगाने की योजना के रूप में पेश किया गया था. 21वें संशोधन के तहत, राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद और राष्ट्रीय परिषद सभी संसद के प्रति जवाबदेह हैं. पंद्रह समितियां और निरीक्षण समितियां भी संसद के प्रति जवाबदेह हैं.
21वें संशोधन में एक प्रमुख प्रावधान श्रीलंका में चुनाव लड़ने से दोहरी नागरिकता रखने वाले लोगों को अयोग्य ठहराना है. अब, जबकि दिसानायके को श्रीलंका का नया राष्ट्रपति चुन लिया गया है, यह देखना बाकी है कि क्या कार्यकारी राष्ट्रपति पद को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाएगा.