पश्चिम देशों और रूस व मध्य पूर्व जैसे प्रमुख क्षेत्रों के बीच चल रहे संघर्षों के कारण राजनीतिक विभाजन बढ़ गया है और चीन को अपना प्रभाव बढ़ाने का अवसर भी मिल गया है. इसके चलते दो अलग-अलग विश्व व्यवस्थाएं उभरी हैं: पहली धुरी पश्चिम देशों के प्रभुत्व वाली, और दूसरी धुरी में रूस, चीन, ईरान, उत्तर कोरिया, सीरिया और ग्लोबल साउथ के कई राष्ट्र शामिल हैं, जो पश्चिम विरोधी भावनाओं की ओर झुकते हैं या बहुत ज्यादा तटस्थ रुख अपनाते हैं.
देशों की इस गुटबाजी में चीन कई तरह से अमेरिका पर भारी है. विशेष रूप से, ग्लोबल साउथ से उभरकर चीन शाही जापान से उत्पीड़न का इतिहास रखता है और 1970 के दशक से एक उल्लेखनीय आर्थिक परिवर्तन का दावा करता है. इसके अलावा, घरेलू राष्ट्रवाद की लहर पर आधारित चीन की मुखर विदेश नीति ने 21वीं सदी की शुरुआत से गति पकड़ी है. चीन की यह मुखर रणनीति राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में और भी मजबूत हुई है. जिसे अक्सर कूटनीतिक उपकरणों के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
मुख्य रूप से, महाद्वीपीय और समुद्री विवादों के साथ-साथ ताइवान से संबंधित मुद्दों को सुलझाने के लिए चीन के दृष्टिकोण में महत्वपूर्ण बदलाव आया है. चीन द्वारा दक्षिण चीन सागर में फिलीपींस का उत्पीड़न अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया है. ताइवान को लेकर अमेरिकी खुफिया अधिकारियों के बीच ऐसी अटकलें हैं कि चीन साल 2027 तक इस द्वीप पर कब्जा करने का लक्ष्य बना सकता है. शी जिनपिंग के उन दावों से इस धारणा को बल मिला है कि ताइवान चीन का अभिन्न अंग है और आखिरकार मुख्य भूमि में शामिल हो जाएगा.
प्रौद्योगिकी-संचालित नेतृत्व का मुद्दा अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धा में एक महत्वपूर्ण कारक है. बाइडेन प्रशासन के तहत अमेरिका ने दो मुख्य कारणों से चीन को महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों के निर्यात को सीमित करने के लिए कई उपाय लागू किए हैं. पहला, यह कि अमेरिका इस क्षेत्र में चीन के व्यवहार को न तो खुला और न ही निष्पक्ष मानता है. दूसरा कारण, महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियां हैं. जटिल प्रणालियों में उनके इस्तेमाल और गुप्त अनुप्रयोगों के प्रति संवेदनशीलता के कारण चुनौतियां बढ़ गई हैं.
2022 में, अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन के चिप्स और विज्ञान अधिनियम का उद्देश्य चीन को निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर तकनीकी प्रतिस्पर्धा में अमेरिका को चीन से आगे रखना है. हालांकि इन प्रतिबंधों के प्रभाव के संबंध में अलग-अलग विश्लेषण हैं, लेकिन मोटे तौर पर इनके दो परिणाम सामने आए हैं. इन प्रतिबंधों ने उच्च-स्तरीय प्रौद्योगिकियों तक चीन की पहुंच को सीमित कर दिया है. हालांकि, हो सकता है कि चीन ने राष्ट्रवादी भावनाओं से प्रेरित होकर ऐसी प्रौद्योगिकियों में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया हो.
वर्तमान परिदृश्य में इसका महत्व
अमेरिका और चीन के बीच संबंध वैश्विक स्थिरता के लिए बहुत महत्व रखते हैं. दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच टकराव की स्थिति में वैश्विक व्यवस्था पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं, विशेष रूप से भारत सहित दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर असर पड़ सकता है. ऐसे संकेत हैं कि अमेरिका-चीन संबंध प्रतिस्पर्धा के नए चरण में विकसित हो रहे हैं, जो रूस और ईरान को चीन के गुप्त समर्थन पर अमेरिकी चिंताओं से प्रेरित है, जिसने उनकी सैन्य क्षमताओं को बढ़ाया है.
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने हाल ही में चीन की यात्रा के दौरान वहां के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात की थी. इस दौरान ब्लिंकन ने रूस को चीन की सहायता की सीमा को रेखांकित करते हुए कहा, चीन मॉस्को को मशीन टूल्स, माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स, युद्ध सामग्री और रॉकेट प्रणोदक के लिए महत्वपूर्ण नाइट्रोसेल्यूलोज, अन्य दोहरे उपयोग वाली वस्तुओं का प्राथमिक आपूर्तिकर्ता है. रूस जिनका उपयोग अपने रक्षा औद्योगिक आधार को बढ़ाने के लिए करता है.
चीन रूस, ईरान और उत्तर कोरिया को कंपोनेंट और प्रौद्योगिकी सहायता तो करता ही है. साथ ही वह ईरान और रूस जैसे ऊर्जा निर्यातक देशों के लिए राजस्व का प्राथमिक स्रोत भी बना हुआ है. रक्षा निर्यात के कारण ईरान का रक्षा क्षेत्र काफी बढ़ गया है. खास कर ईरान के किफायती शाहिद ड्रोन ने रूस-यूक्रेन युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ईरान और रूस दोनों चीन के सहारे पश्चिमी प्रतिबंधों से बचते हैं. दोनों देशों को एक इच्छुक भागीदार मिल गया है जो वैश्विक व्यवस्थाओं में दरार पैदा करने का इरादा रखता है. इसमें आश्चर्य नहीं है कि इस साल अप्रैल में एंटनी ब्लिंकन की बीजिंग की तीन दिवसीय यात्रा के दौरान वॉशिंगटन की चीन को चेतावनियों के साथ ही अमेरिका को भी उतनी ही कड़ी चेतावनी मिली है कि वह चीन की लाल रेखाओं पर कदम न उठाए, अन्यथा संबंध और खराब हो सकते हैं.
भारत के लिए क्या हैं मायने
वैश्विक व्यवस्था में भारत का महत्व पिछले एक दशक में तेजी से बढ़ा है. यह विश्व की दो अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं- अमेरिका, चीन के साथ इसके विकसित होते संबंधों में विशेष रूप से स्पष्ट है. जैसे-जैसे भारत का आर्थिक कद बढ़ा है, इसने वैश्विक गतिशीलता में उल्लेखनीय बदलाव लाया है. भारत की रैंकिंग अब दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में हो रही है. अपने विशाल आर्थिक आकार और गैर-टकराववादी दृष्टिकोण के साथ, भारत ने पिछली आधी शताब्दी में चीन, रूस और अमेरिका के साथ अपने संबंधों को कुशलतापूर्वक निभाया है.
एक तरफ जहां अमेरिका के साथ भारत के संबंधों में सकारात्मक परिवर्तन देखा गया है, वहीं चीन के साथ भारत के रिश्ते और अधिक सतर्क हो गए हैं, खासकर पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर 2020 के गलवान संघर्ष के बाद.
अमेरिका और चीन के बीच प्रतिस्पर्धात्मक गतिशीलता के बढ़ने से हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की संभावना है. भारत, अमेरिका के साथ व्यापार अधिशेष और चीन के साथ व्यापार घाटे के साथ, इस गतिशील वातावरण में खुद को नाजुक स्थिति में पाता है. हालांकि, 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के अनुभव से सीख लेते हुए भारत की अर्थव्यवस्था ने कुछ हद तक लचीलेपन और इन्सुलेशन का प्रदर्शन किया है.
पिछले डेढ़ दशक में, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भारत के एकीकरण के कई नए आयाम उभरे हैं, विशेष रूप से महत्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों, बुनियादी ढांचे और आपूर्ति श्रृंखलाओं में. हिंद-प्रशांत क्षेत्र की स्थिरता इस बात पर निर्भर करती है कि ये तीन आयाम कैसे विकसित होते हैं और क्या वे महान शक्ति संघर्षों से मुक्त रहते हैं. इन क्षेत्रों में अपनी स्थिति मजबूत करने की कोशिश कर रहे भारत का लक्ष्य एक केंद्रीय हितधारक के रूप में स्वतंत्र, खुले और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र की वकालत करते हुए किसी भी बड़ी शक्ति प्रतियोगिता में उलझने से बचना है.
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