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'अरे पूनम पांडे! कैंसर कोई मज़ाक नहीं है, असंवेदनशील पब्लिसिटी स्टंट क्यों?'

Why Pull off an Insensitive Publicity Stunt : 'जब लोग कैंसर जैसी बीमारी का भद्दा मजाक बनाते हैं, तो यह हमारे जैसे लोगों को अच्छा नहीं लगता है.' ऐसा कहना है दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार तौफीक रशीद का. वह अपने इस लेख में वास्तविक कैंसर रोगियों और उनकी पीड़ा के बारे में बात कर रहे हैं. वह बता रहे हैं कि मॉडल पूनम पांडे का प्रचार स्टंट 'बेहद असंवेदनशील' क्यों हैं.

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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Feb 3, 2024, 10:41 PM IST

नई दिल्ली : इन दिनों मैं सांस रोककर अपने चचेरे भाई के 'गुड मॉर्निंग' मैसेज का इंतजार करता हूं. कुछ महीने पहले तक मैं इन मैसेज को किसी ऐसे व्यक्ति के लिए अवकाश का साधन मानता था जो अभी-अभी रिटायर हुआ हो. हालांकि अब उनके फ़ोन नंबर से आने वाली चर्चा मुझे परेशान कर देती है, क्योंकि यह एक कहानी के साथ आती है. सुबह-सुबह आए संदेशों का मतलब है कि वह ठीक हैं.

जो लोग थोड़ा देर से पहुंचे, उन्होंने अनुमान लगाया कि उनके दिन की शुरुआत ख़राब रही. उनका कोई भी संदेश बताने वाली कहानी नहीं है. असहनीय दर्द और थकावट की एक रात की कहानी जो दिन भर जारी रह सकती है.

जब इंतजार असहनीय हो जाता है तो मैं उनकी बहन या बेटे को फोन कर उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूं. मेरे चचेरे भाई जिनकी उम्र 60 से अधिक है, पेट के कैंसर से लड़ रहे हैं, जो मेटास्टेसिस हो गया है. उनके साथ परिवार में हममें से हर कोई हर दिन बीमारी से लड़ रहा है. हमारी बातचीत कीमो साइकिल, दर्द और मतली के इर्द-गिर्द घूमती है.

मैं सामान्य तौर पर ये पूछता हूं कि क्या वह कुछ खा पा रहे हैं, और यदि उऩ्होंने खाया है, तो क्या वह पचा पा रहे हैं? एक सामान्य कश्मीरी जो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में 'सब्जी गोश्त' का शौकीन था, अब अर्ध-ठोस आहार ले पा रहा है. वह भी मुश्किल से पच रहा है. बीमारी ने घर कर लिया है.

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डॉक्टर ने ये कहा

एक हेल्थ रिपोर्टर के रूप में मैं पहले भी इससे कई बार जूझ चुका हूं. मैंने कैंसर से लड़ने और उसे मात देने वाले लोगों की कुछ अद्भुत कहानियां देखी हैं. उन डॉक्टरों का संघर्ष देखा है जो दिन-ब-दिन इस बीमारी से निपटते हैं. देखा है कि कैसे कैंसर के इलाज में नई तकनीकी प्रगति के बारे में सुनकर मरीजों और परिवारों के चेहरे आशा से चमक उठे.

कुछ समय पहले मैंने एक पुराने मित्र और भारत के सबसे प्रसिद्ध ऑन्कोलॉजिस्टों में से एक से पूछा था कि क्या डायग्नोस्टिक और उपचार में काफी प्रगति के बाद भी यह बीमारी अभी भी मौत की वजह बन सकती है. उन्हें उम्मीद थी कि कई उपचार फायदेमंद साबित हो सकते हैं, बशर्ते लोग जागरूक हों. उन्होंने बताया कि इस तरह का उन्नत कैंसर उपचार और देखभाल कैसे वहनीय नहीं थी, खासकर भारत जैसे देश में. उन्होंने कहा कि 'लागत कम रखने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन यह एक बड़ी चुनौती है. यहां तक ​​कि संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश में भी लोग कैंसर के इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं.'

cervical cance
डॉक्टर ने ये बताया

इसलिए जब लोग कैंसर जैसी बीमारी का भद्दा मजाक बनाते हैं, तो यह हम जैसे लोगों को अच्छा नहीं लगता. हम जानते हैं कि यह बीमारी कोई मज़ाक नहीं है. कल मेरे लिए ऐसा ही एक दिन था. अब तक गलत वजहों से सुर्खियां बटोरने वाली एक मॉडल की अचानक कैंसर से मौत की खबर आई तो मैं चौंक गया.

बाद में जब मैंने उसके पहले के वीडियो देखे तो मुझे संदेह हुआ. मैंने सोचा कि सर्वाइकल कैंसर से कोई भी चार दिनों में नहीं मर सकता और मैंने अपना डर ​​दोस्तों के साथ भी साझा किया. हालांकि, यह खबर मुझे कई साल पीछे ले गई जब मेरे गुरु और पहले बॉस की 54 साल की उम्र में ल्यूकेमिया के कारण मृत्यु हो गई. बहुत जल्दी डायग्नोसिस के बाद भी उन्हें खोने का सारा सदमा वापस आ गया, क्योंकि कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई थी.

मुझे याद आया कि कैसे मैंने एम्स के हृदय रोग विशेषज्ञ (cardiologist) से मंजूरी ली थी, क्योंकि बॉस का हार्ट कमजोर था. उनके हार्ट की स्थिति को ध्यान में रखते हुए उपचार की दिशा तय की गई थी. इस आश्वासन के साथ कि उनके जीवित रहने की बहुत अधिक संभावना है, मैं यह सोचकर कश्मीर में घर के लिए रवाना हुआ कि वह ऐसा करेंगे.

हालांकि, कीमोथेरेपी के पहले चरण के कुछ ही दिनों बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी. जो शख्स एक दिन ट्विटर पर अपने लिए खून का इंतजाम करने की कोशिश कर रहा था, अगले दिन वह नहीं रहा. सारी भविष्यवाणियां ग़लत साबित हुईं. उनका हार्ट जवाब दे गया और इलाज शुरू होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई.

इसलिए जब पूनम पांडे ने सर्वाइकल कैंसर के प्रति जागरुकता के नाम पर यह मजाक किया, तो मैंने सोचा कि उनका हश्र मेरे बॉस जैसा हुआ होगा. उनकी पत्नी और मैं अक्सर कुछ न कुछ चर्चा करते रहते हैं. मैंने फिर से उन्हें सबसे पहले कीमो देने के निर्णय के बारे में बहस शुरू कर दी.

cervical cancer
सर्वाइकल कैंसर

मुझे यह सोचकर खुद को सांत्वना देनी पड़ती है कि उस समय कीमो ही एकमात्र व्यवहार्य विकल्प लग रहा था, नहीं तो वह खून बहने से मर जाते. मैंने सोचा, मेरे गुरु की तरह, सुश्री पांडे भी कीमोथेरेपी से नहीं बच सकीं. मुझे यह भी नहीं पता कि वह आजीविका के लिए क्या करती है लेकिन मेरा दिन बर्बाद हो गया.

हालांकि, मुझे तब और बड़ा झटका लगा जब मैंने सुबह उसे दुनिया को यह कहते हुए देखा कि 'वह जीवित है' और यह सब 'जागरुकता' के लिए किया गया था. कुछ लोग कह सकते हैं कि वह लोगों को घातक बीमारी के बारे में बात करने में कामयाब रही.

हां, भारत में सभी पब्लिकेशन ने सर्वाइकल कैंसर के कारणों, लक्षणों और रोकथाम के बारे में लिखना शुरू कर दिया है, लेकिन मुझे लगता है कि 'मरने' और 'जीवन में वापस आने' का उनका कदम किसी न किसी मुद्दे पर जनता के सामने सार्वजनिक रूप से कपड़े उतारने के उनके अक्सर प्रचारित उद्धरणों से भी बदतर था.

सुश्री पांडे और उनके जैसे लोगों को बीमारी के बारे में जागरुकता की जरूरत है, जो इस तरह के खराब प्रचार स्टंट के साथ नहीं आती है. जागरुकता तब आती है जब देश के सुदूर कोने में बैठी एक महिला, जिसकी सोशल मीडिया तक पहुंच नहीं है, जानती हो कि इस बीमारी से बचने के लिए एक टीका है जो लड़कियों को यौन सक्रिय होने से पहले दिया जाता है. जब उस महिला और उसके परिवार को पता हो कि टीका 15 साल की उम्र से पहले दिए जाने पर सबसे अच्छा काम करता है, खासकर 11 से 12 साल के बच्चों को.

लोगों को यह जानने की जरूरत है कि किसी के स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में सक्रिय रूप से जागरूक होना, छोटे-मोटे संकेतों पर ध्यान देना और लगातार लक्षणों को नजरअंदाज न करना, अपनी जीवनशैली में बदलाव करना, अधिक व्यायाम करना और स्वस्थ आहार लेना कितना जरूरी है. हमें कार्सिनोजेन्स की भूमिका के बारे में जागरूकता पैदा करनी होगी जो हमारे भोजन, पर्यावरण, जिस हवा में हम सांस लेते हैं और जो कपड़े पहनते हैं उनमें मौजूद हैं. हमारे शरीर के डीएनए के साथ उनकी बातचीत. वह जागरुकता होगी.

पोलियो जैसी बीमारी पर नियंत्रण पाने और व्यावहारिक रूप से इसे ख़त्म करने में दशकों लग गए. और उसकी मौत को नकली बनाने के लिए किसी 'सेलिब्रिटी' की आवश्यकता नहीं थी.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के हालिया बजट भाषण में वैक्सीन की आवश्यकता पर जोर देना एक दूरदर्शी पहल है. युवा आबादी की भलाई पर जोर देना और रोकथाम योग्य बीमारियों को खत्म करने के वैश्विक प्रयासों के साथ जुड़ना ही आगे का रास्ता है.

हमें याद रखना होगा कि कैंसर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे कोई दिखावा कर सके. ग्लोबोकैन 2020 के अनुसार, भारत में गर्भाशयग्रीवा का कैंसर 18.3 प्रतिशत की दर के साथ तीसरा सबसे आम कैंसर है और 9.1 प्रतिशत की मृत्यु दर के साथ मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है.

इसलिए जो लोग इस बीमारी के खिलाफ अपनी लड़ाई हार गए हैं, जो इसके साथ जी रहे हैं, उनके परिवार इसे बेहतर जानते हैं. तो अगली बार जब कोई इस तरह का स्टंट करने के बारे में सोचे, तो याद रखे कि यह न केवल अरुचिकर है बल्कि बेहद असंवेदनशील भी है.

(डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं)

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नई दिल्ली : इन दिनों मैं सांस रोककर अपने चचेरे भाई के 'गुड मॉर्निंग' मैसेज का इंतजार करता हूं. कुछ महीने पहले तक मैं इन मैसेज को किसी ऐसे व्यक्ति के लिए अवकाश का साधन मानता था जो अभी-अभी रिटायर हुआ हो. हालांकि अब उनके फ़ोन नंबर से आने वाली चर्चा मुझे परेशान कर देती है, क्योंकि यह एक कहानी के साथ आती है. सुबह-सुबह आए संदेशों का मतलब है कि वह ठीक हैं.

जो लोग थोड़ा देर से पहुंचे, उन्होंने अनुमान लगाया कि उनके दिन की शुरुआत ख़राब रही. उनका कोई भी संदेश बताने वाली कहानी नहीं है. असहनीय दर्द और थकावट की एक रात की कहानी जो दिन भर जारी रह सकती है.

जब इंतजार असहनीय हो जाता है तो मैं उनकी बहन या बेटे को फोन कर उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछता हूं. मेरे चचेरे भाई जिनकी उम्र 60 से अधिक है, पेट के कैंसर से लड़ रहे हैं, जो मेटास्टेसिस हो गया है. उनके साथ परिवार में हममें से हर कोई हर दिन बीमारी से लड़ रहा है. हमारी बातचीत कीमो साइकिल, दर्द और मतली के इर्द-गिर्द घूमती है.

मैं सामान्य तौर पर ये पूछता हूं कि क्या वह कुछ खा पा रहे हैं, और यदि उऩ्होंने खाया है, तो क्या वह पचा पा रहे हैं? एक सामान्य कश्मीरी जो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में 'सब्जी गोश्त' का शौकीन था, अब अर्ध-ठोस आहार ले पा रहा है. वह भी मुश्किल से पच रहा है. बीमारी ने घर कर लिया है.

1
डॉक्टर ने ये कहा

एक हेल्थ रिपोर्टर के रूप में मैं पहले भी इससे कई बार जूझ चुका हूं. मैंने कैंसर से लड़ने और उसे मात देने वाले लोगों की कुछ अद्भुत कहानियां देखी हैं. उन डॉक्टरों का संघर्ष देखा है जो दिन-ब-दिन इस बीमारी से निपटते हैं. देखा है कि कैसे कैंसर के इलाज में नई तकनीकी प्रगति के बारे में सुनकर मरीजों और परिवारों के चेहरे आशा से चमक उठे.

कुछ समय पहले मैंने एक पुराने मित्र और भारत के सबसे प्रसिद्ध ऑन्कोलॉजिस्टों में से एक से पूछा था कि क्या डायग्नोस्टिक और उपचार में काफी प्रगति के बाद भी यह बीमारी अभी भी मौत की वजह बन सकती है. उन्हें उम्मीद थी कि कई उपचार फायदेमंद साबित हो सकते हैं, बशर्ते लोग जागरूक हों. उन्होंने बताया कि इस तरह का उन्नत कैंसर उपचार और देखभाल कैसे वहनीय नहीं थी, खासकर भारत जैसे देश में. उन्होंने कहा कि 'लागत कम रखने के प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन यह एक बड़ी चुनौती है. यहां तक ​​कि संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देश में भी लोग कैंसर के इलाज का खर्च उठाने में असमर्थ हैं.'

cervical cance
डॉक्टर ने ये बताया

इसलिए जब लोग कैंसर जैसी बीमारी का भद्दा मजाक बनाते हैं, तो यह हम जैसे लोगों को अच्छा नहीं लगता. हम जानते हैं कि यह बीमारी कोई मज़ाक नहीं है. कल मेरे लिए ऐसा ही एक दिन था. अब तक गलत वजहों से सुर्खियां बटोरने वाली एक मॉडल की अचानक कैंसर से मौत की खबर आई तो मैं चौंक गया.

बाद में जब मैंने उसके पहले के वीडियो देखे तो मुझे संदेह हुआ. मैंने सोचा कि सर्वाइकल कैंसर से कोई भी चार दिनों में नहीं मर सकता और मैंने अपना डर ​​दोस्तों के साथ भी साझा किया. हालांकि, यह खबर मुझे कई साल पीछे ले गई जब मेरे गुरु और पहले बॉस की 54 साल की उम्र में ल्यूकेमिया के कारण मृत्यु हो गई. बहुत जल्दी डायग्नोसिस के बाद भी उन्हें खोने का सारा सदमा वापस आ गया, क्योंकि कुछ ही समय बाद उनकी मृत्यु हो गई थी.

मुझे याद आया कि कैसे मैंने एम्स के हृदय रोग विशेषज्ञ (cardiologist) से मंजूरी ली थी, क्योंकि बॉस का हार्ट कमजोर था. उनके हार्ट की स्थिति को ध्यान में रखते हुए उपचार की दिशा तय की गई थी. इस आश्वासन के साथ कि उनके जीवित रहने की बहुत अधिक संभावना है, मैं यह सोचकर कश्मीर में घर के लिए रवाना हुआ कि वह ऐसा करेंगे.

हालांकि, कीमोथेरेपी के पहले चरण के कुछ ही दिनों बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी. जो शख्स एक दिन ट्विटर पर अपने लिए खून का इंतजाम करने की कोशिश कर रहा था, अगले दिन वह नहीं रहा. सारी भविष्यवाणियां ग़लत साबित हुईं. उनका हार्ट जवाब दे गया और इलाज शुरू होने से पहले ही उनकी मृत्यु हो गई.

इसलिए जब पूनम पांडे ने सर्वाइकल कैंसर के प्रति जागरुकता के नाम पर यह मजाक किया, तो मैंने सोचा कि उनका हश्र मेरे बॉस जैसा हुआ होगा. उनकी पत्नी और मैं अक्सर कुछ न कुछ चर्चा करते रहते हैं. मैंने फिर से उन्हें सबसे पहले कीमो देने के निर्णय के बारे में बहस शुरू कर दी.

cervical cancer
सर्वाइकल कैंसर

मुझे यह सोचकर खुद को सांत्वना देनी पड़ती है कि उस समय कीमो ही एकमात्र व्यवहार्य विकल्प लग रहा था, नहीं तो वह खून बहने से मर जाते. मैंने सोचा, मेरे गुरु की तरह, सुश्री पांडे भी कीमोथेरेपी से नहीं बच सकीं. मुझे यह भी नहीं पता कि वह आजीविका के लिए क्या करती है लेकिन मेरा दिन बर्बाद हो गया.

हालांकि, मुझे तब और बड़ा झटका लगा जब मैंने सुबह उसे दुनिया को यह कहते हुए देखा कि 'वह जीवित है' और यह सब 'जागरुकता' के लिए किया गया था. कुछ लोग कह सकते हैं कि वह लोगों को घातक बीमारी के बारे में बात करने में कामयाब रही.

हां, भारत में सभी पब्लिकेशन ने सर्वाइकल कैंसर के कारणों, लक्षणों और रोकथाम के बारे में लिखना शुरू कर दिया है, लेकिन मुझे लगता है कि 'मरने' और 'जीवन में वापस आने' का उनका कदम किसी न किसी मुद्दे पर जनता के सामने सार्वजनिक रूप से कपड़े उतारने के उनके अक्सर प्रचारित उद्धरणों से भी बदतर था.

सुश्री पांडे और उनके जैसे लोगों को बीमारी के बारे में जागरुकता की जरूरत है, जो इस तरह के खराब प्रचार स्टंट के साथ नहीं आती है. जागरुकता तब आती है जब देश के सुदूर कोने में बैठी एक महिला, जिसकी सोशल मीडिया तक पहुंच नहीं है, जानती हो कि इस बीमारी से बचने के लिए एक टीका है जो लड़कियों को यौन सक्रिय होने से पहले दिया जाता है. जब उस महिला और उसके परिवार को पता हो कि टीका 15 साल की उम्र से पहले दिए जाने पर सबसे अच्छा काम करता है, खासकर 11 से 12 साल के बच्चों को.

लोगों को यह जानने की जरूरत है कि किसी के स्वास्थ्य की स्थिति के बारे में सक्रिय रूप से जागरूक होना, छोटे-मोटे संकेतों पर ध्यान देना और लगातार लक्षणों को नजरअंदाज न करना, अपनी जीवनशैली में बदलाव करना, अधिक व्यायाम करना और स्वस्थ आहार लेना कितना जरूरी है. हमें कार्सिनोजेन्स की भूमिका के बारे में जागरूकता पैदा करनी होगी जो हमारे भोजन, पर्यावरण, जिस हवा में हम सांस लेते हैं और जो कपड़े पहनते हैं उनमें मौजूद हैं. हमारे शरीर के डीएनए के साथ उनकी बातचीत. वह जागरुकता होगी.

पोलियो जैसी बीमारी पर नियंत्रण पाने और व्यावहारिक रूप से इसे ख़त्म करने में दशकों लग गए. और उसकी मौत को नकली बनाने के लिए किसी 'सेलिब्रिटी' की आवश्यकता नहीं थी.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के हालिया बजट भाषण में वैक्सीन की आवश्यकता पर जोर देना एक दूरदर्शी पहल है. युवा आबादी की भलाई पर जोर देना और रोकथाम योग्य बीमारियों को खत्म करने के वैश्विक प्रयासों के साथ जुड़ना ही आगे का रास्ता है.

हमें याद रखना होगा कि कैंसर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे कोई दिखावा कर सके. ग्लोबोकैन 2020 के अनुसार, भारत में गर्भाशयग्रीवा का कैंसर 18.3 प्रतिशत की दर के साथ तीसरा सबसे आम कैंसर है और 9.1 प्रतिशत की मृत्यु दर के साथ मृत्यु का दूसरा प्रमुख कारण है.

इसलिए जो लोग इस बीमारी के खिलाफ अपनी लड़ाई हार गए हैं, जो इसके साथ जी रहे हैं, उनके परिवार इसे बेहतर जानते हैं. तो अगली बार जब कोई इस तरह का स्टंट करने के बारे में सोचे, तो याद रखे कि यह न केवल अरुचिकर है बल्कि बेहद असंवेदनशील भी है.

(डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं)

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