नई दिल्ली : प्रवर्तन निदेशालय की हिरासत में भेजे जाने से नाखुश दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल सलाखों के पीछे हैं, वहीं, इस बात पर विवाद चल रहा है कि क्या उन्हें अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए. उनकी पार्टी (आप) ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वह जेल से सरकार चला सकते हैं. यहां तक कि दिल्ली विधानसभा के अध्यक्ष, जिनके मैदान में उतरने की उम्मीद नहीं है, उन्होंने भी कहा है कि केजरीवाल मुख्यमंत्री बने रहेंगे.
सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने चुटकी ली है कि गैंगस्टर जेलों से अपना साम्राज्य चलाने के लिए जाने जाते हैं, लेकिन संवैधानिक प्राधिकारी नहीं. उन्होंने जे जयललिता, लालू प्रसाद यादव, उमा देवी, बी.एस. येदियुरप्पा और हाल ही में हेमंत सोरेन के मामले का उदाहरण दिया है, जिन्होंने जेल जाने से पहले इस्तीफा दे दिया और अपने उत्तराधिकारियों को बागडोर सौंप दी. यह पहली बार है जब कोई सेवारत मुख्यमंत्री सलाखों के पीछे बैठा है.
एक्सपर्ट अपनी राय में बंटे हुए हैं. एक ओर, कुछ लोगों का कहना है कि केजरीवाल के मुख्यमंत्री बने रहने पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है. ऐसे उदाहरण हैं जब हमारे स्टेशन से फैक्स के माध्यम से आदेशों पर बिना किसी रोक-टोक के कार्रवाई की गई है. हालांकि, दूसरों को लगता है कि न्यायिक हिरासत में भेजे जाने के बाद भी वह ऐसे सार्वजनिक पद पर कैसे बने रह सकते हैं, जिसके लिए उच्च स्तर की नैतिकता की आवश्यकता होती है?
उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के पहले के निर्णयों ने निष्कर्ष निकाला है कि संवैधानिक नैतिकता, सुशासन और संवैधानिक विश्वास सार्वजनिक पद धारण करने के बुनियादी मानदंड हैं.
एस.रामचंद्रन बनाम वी. सेंथिलबालाजी मामले में मद्रास उच्च न्यायालय के हालिया फैसले में अदालत ने इस मुद्दे पर दिए गए तर्कों की जांच की कि क्या मंत्री को सार्वजनिक पद पर रहने का अपना अधिकार खो देना चाहिए, जो उच्च स्तर की नैतिकता की मांग करता है यदि उस पर वित्तीय घोटाले का आरोप लगाया जाता है.
दलीलें मनोज नरूला बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट की 2014 की संवैधानिक पीठ के फैसले का हवाला देती हैं, जिसमें कहा गया था कि सार्वजनिक पद संभालने के लिए बुनियादी मानदंड संवैधानिक नैतिकता थे, यानी कानून के शासन, सुशासन के विपरीत तरीके से कार्य करने से बचना है. इसका उद्देश्य व्यापक सार्वजनिक हित और संवैधानिक विश्वास में अच्छा करना है, यानी सार्वजनिक कार्यालय से जुड़ी उच्च स्तर की नैतिकता को बनाए रखना है. उच्च न्यायालय ने इस बात पर सहमति व्यक्त की कि नागरिक यह उम्मीद करते हैं कि सत्ता में रहने वाले व्यक्तियों में नैतिक आचरण के उच्च मानक होने चाहिए.
इसके अतिरिक्त एक लोक सेवक के रूप में मुख्यमंत्री के कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के निर्वहन में व्यावहारिकता का भी मुद्दा है. एक कैदी जेल नियमों के अधीन है. उसके लिए जेल में कैबिनेट बैठकों की अध्यक्षता करना या अधिकारियों से मिलना और फाइलों पर गौर करना और आदेश पारित करना व्यावहारिक नहीं हो सकता है.
सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से कहा है कि सिविल सेवकों को कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, राजनीतिक आकाओं के मौखिक निर्देशों पर कार्य करने से बचना चाहिए.
अदालत ने होता समिति (2004) और संथानम समिति की रिपोर्टों की सिफारिशों का हवाला दिया, जिसमें 'लोक सेवकों द्वारा निर्देशों और निर्देशों को रिकॉर्ड करने की आवश्यकता' पर प्रकाश डाला गया था. इस गतिरोध से बाहर निकलने के लिए 'आप' नेताओं ने सुझाव दिया है कि केजरीवाल को सरकार चलाने में सक्षम बनाने के लिए अस्थायी जेल घोषित एक इमारत में रखा जा सकता है. दूसरा रास्ता यह है कि दिल्ली के उपराज्यपाल को राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए यदि उन्हें लगता है कि केजरीवाल की कैद के कारण केंद्र शासित प्रदेश दिल्ली का शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है (भारत के संविधान का अनुच्छेद 356: संवैधानिक तंत्र की विफलता).
(डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं)