नई दिल्ली: धरती पर सभी प्रकार के जीवन के अस्तित्व के लिए प्राकृतिक संसाधन जरूरी है. हालांकि, आज जिस प्रकार से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है उससे कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही है. मानव जनसंख्या विस्फोट भी धरती की समस्या का जड़ है. आज दुनिया विकास के नए-नए पैमाने गढ़ रही है. विकास की अंधी दौर में हमने प्रकृति संरक्षण के उद्देश्य को काफी पीछे छोड़ दिया है. आज दुनिया ग्लोबल वर्मिंग के साथ-साथ पानी की भारी कमी से जूझ रही है. बात भारत की करें, यहां पानी के अधिकार को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन के अधिकार के हिस्से के रूप में सुप्रीम कोर्ट ने एक मौलिक मानव अधिकार के रूप में संरक्षित किया है. पिछले तीन दशकों में जीवन के अधिकार का काफी विस्तार हुआ है. जिसमें स्वास्थ्य का अधिकार और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार शामिल है. इसके साथ ही भारत में स्वच्छ पेयजल का अधिकार भी शामिल हो सकता है. अनुच्छेद 21 के अलावा, राज्य नीति के निदेशक सिद्धातों (डीपीएसपी) के अनुच्छेद 39 (B), जिसे संविधान गैर-न्यायसंगत घोषित करता है, समुदाय के भौतिक संसाधनों तक समान पहुंच के सिद्धांत को मान्यता देता है.
वैश्विक जल संकट एक समस्या
वैसे देखा जाए तो परंपरागत रूप से, पर्यावरण से जुड़े अपराधों को 'पीड़ित रहित ' माना जाता है. क्योंकि वे किसी भी इंसान के विरूद्ध निर्देशित नहीं होते हैं. लेकिन संगठित पर्यावरणीय अपराध होने से इसके व्यापक नुकसान निकल कर सामने आते हैं. जिससे सभी लोगों को कष्ट भोगना पड़ता है. पर्यावरण संकट से धरती के जीव प्रभावित होते हैं. इतना ही नहीं, भविष्य की पीढ़ियां उनका स्वास्थ्य भी इससे प्रभावित होता है. यूएनओ ने 1977 में संयुक्त राष्ट्र जल सम्मेलन के दौरान एक आदेश पारित किया गया. इसमें कहा गया कि, चाहे विकास का स्तर और सामाजिक और आर्थिक स्थिति कुछ भी हो, सभी लोगों तक पानी की पहुंच का अधिकार है. संयुक्त राष्ट्र ने आगे कहा कि, पीने का पानी मात्रा में और उनकी बुनियादी जरूरतों के बराबर गुणवत्ता वाला होना चाहिए. यह अवधारणा सबसे पहले बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम भारत संघ के मामले में सामने आई और फिर इसका विस्तार हुआ. पानी से संबंधित मुद्दों पर विभिन्न निर्णयों में सुप्रीम कोर्ट ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित जूस जेंटियम या सार्वजनिक विश्वास के सिद्धांत पर जोर दिया है.
बेंगलुरु में गहराता जल संकट
भारत के बेंगलुरु में गहराता जल संकट चिंता का विषय है. भारत के तीसरे सबसे अधिक आबादी वाले इस शहर के करीब 14 मिलियन निवासियों में से कई ऐसे लोग हैं जो अलग-अलग अल्टरनेटिव हल की तलाश करते नजर आ रहे हैं. सबसे बड़ी समस्या यह है कि, जयपुर, इंदौर, ठाणे, वडोदरा, श्रीनगर, राजकोट, कोटा, नासिक जैसे शहरों की पाइपलाइन में नासिक की पानी की मांग उपलब्ध संसाधनों से अधिक है, जिससे संकट से निपटने के लिए आपसी सहयोग और प्रयासों की आवश्यकता है. जलवायु परिवर्तन परिदृश्यों में, शोधकर्ताओं ने पाया कि 2041 से 2080 तक भूजल स्तर (जीडब्ल्यूएल) में गिरावट का उनका अनुमान आरसीपी के आधार पर वर्तमान कमी दर का औसतन 3.26 गुना है. शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत और चीन जैसी बड़ी एशियाई अर्थव्यवस्थाएं पानी की कमी से सबसे अधिक प्रभावित होंगी.
राज्यों की अपनी जल नीतियां
1980 के दशक में देश में जल प्रबंधन के लिए umbrella body का गठन किया गया था. इसकी अध्यक्षता भारत के प्रधान मंत्री ने की और इसे राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद (NWRC) कहा गया. भारत में कई राज्यों की अपनी जल नीतियां हैं. तमिलनाडु और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में जल नीतियां हैं जिनका झुकाव समानता के सिद्धांत पर है और जल संसाधनों पर लोगों के संगठनों या समुदाय आधारित नियंत्रण की भागीदारी भूमिका को ध्यान में रखती हैं. वहीं, संविधान केंद्र और राज्य सरकारों के बीच जल संसाधन विकास से संबंधित कार्यों के आवंटन को परिभाषित करता है. अंतरराज्यीय नदियों के विकास को विनियमित करने और पानी पर अंतरराज्यीय विवादों के निपटारे के लिए जल को केंद्रीय हस्तक्षेप के अधीन एक राज्य के रूप में नामित किया गया है. नदी बोर्ड अधिनियम और अंतरराज्यीय जल विवाद अधिनियम इन प्रावधानों के तहत बनाये गये हैं. केंद्र सरकार पर्यावरण और वन की रक्षा के हित में और विकास के लिए राष्ट्रीय योजना संबंधी प्रावधानों के तहत भी हस्तक्षेप कर सकती है.
भारत में जल प्रबंधन असंयमित
समान कानून और नीति के अभाव में, भारत में जल प्रबंधन काफी हद तक असंयमित बना हुआ है. जल स्वामित्व पर विभिन्न राज्यों की अलग-अलग कानूनी स्थितियां हैं. पानी के उपयोग को विनियमित करने में राज्य के अधिकार और इस अधिकार का प्रयोग करने के तरीके के संबंध में गंभीर प्रश्न हैं. केंद्र और राज्य दोनों सरकारें पानी पर प्रभुत्व और पूर्ण अधिकार का दावा करती हैं. इसे कहां और कैसे विकसित किया जाना है और इसे कैसे प्रबंधित किया जाना है और पात्रता और आवंटन बनाना और बदलना उनके विवेक पर निर्भर करता है. खतरा उस समय तब ज्यादा बढ़ जाता है जहां सभी प्रासंगिक कार्य विकास और प्रबंधन, नियामक कार्यों को लागू करना, शिकायतों का निवारण और संघर्ष समाधान सरकार की कार्यकारी शाखा द्वारा किए जाते हैं. चूंकि राज्य से अपने नागरिकों के हितों की सेवा करने की अपेक्षा की जाती है, इसलिए कोई भी यही सोचेगा कि संसाधन के विकास और प्रबंधन से संबंधित नियामक कार्यों को कार्यकारी एजेंसियों से स्वतंत्र निकायों में निहित किया जाना चाहिए. पानी के आवंटन एवं पात्रता के नियम बनाने एवं बदलने का निर्णय पारदर्शी प्रक्रिया से किया जाये. वहीं, नदी बेसिन को लेकर विभिन्न दावेदारी, अधिकारों को निर्धारित करने के लिए स्पष्ट रूप से दिए गए मानदंडों में कमी है. हार्मन सिद्धांत और हेलिंस्की-डबलिन नियम के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय संदर्भ में, विभिन्न राज्यों से बहने वाले बेसिन में पानी के बंटवारे के आधार के रूप में दो अलग-अलग मानदंडों की वकालत की गई है.
जल पर सबका अधिकार, पर कैसे?
पिछले कुछ सालों में जल क्षेत्र में कई नवीन नीतिगत हस्तक्षेप और कार्यक्रम हुए हैं. इससे जुड़े कानूनों के एकीकृत सेट के लिए व्यवस्थित रूप से कानूनी विकल्पों का पता लगाने की तत्काल आवश्यकता है जो पारिस्थितिक और सामाजिक विविधता के साथ-साथ भूजल और सतही जल के उपयोग के बीच अंतर-संबंध से संबंधित समस्याओं को भी शामिल करेगा. इसके अलावा, भूजल तक पहुंच अत्यधिक असमान है, क्योंकि यह भूमि के स्वामित्व,आर्थिक क्षमता पर निर्भर करती है. पानी के उचित और न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करने के लिए यह सिफारिश की गई है कि जल अधिकारों को भूमि अधिकारों से अलग किया जाना चाहिए. जिसको लेकर अभी तक कोई राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास नहीं किया गया है. इस दिशा में आगे बढ़ने वाला एकमात्र राज्य गुजरात राज्य है. हालांकि, भारत में जल प्रणाली के प्रबंधन के लिए सामाजिक-कानूनी पहलुओं से संबंधित रणनीतियों को घोर नजरअंदाज किया गया है. इसलिए मानव अधिकारों को समझते हुए जल प्रबंधन और उससे जुड़े कानून पर काम करने का आवश्यकता है.
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