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नेपाल में ताजा राजनीतिक घटनाक्रम: भारत क्यों उम्मीद लगाए बैठा है? - Political Developments in Nepal

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By Aroonim Bhuyan

Published : Jul 2, 2024, 2:20 PM IST

Updated : Jul 2, 2024, 3:18 PM IST

हाल के दिनों में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों ने नेपाल में वामपंथी गठबंधन सरकार के भविष्य को लेकर अटकलों को हवा दे दी है. सीपीएन-यूएमएल के नेता और सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा केपी शर्मा ओली ने पूर्व प्रधानमंत्री और विपक्षी नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा और तत्कालीन प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल के साथ कुछ समय के लिए बैठकें कीं. यह क्या संकेत देता है? इन सबका भारत के लिए क्या मतलब है?

Nepal's Prime Minister Pushpa Kamal Dahal
नेपाल के प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल (फोटो - ANI Photo)

नई दिल्ली: नेपाल में सरकार की अस्थिरता का एक और उदाहरण हाल के दिनों में नेपाल में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों से हिमालयी राष्ट्र के प्रधानमंत्री के रूप में पुष्प कमल दहल के भविष्य को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं. शनिवार को नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी - यूनाइटेड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (CPN-UML) के नेता केपी शर्मा ओली ने पूर्व प्रधानमंत्री और विपक्षी नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा के साथ बंद कमरे में बैठक की.

इसके बाद, सोमवार की सुबह ओली ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी - माओवादी केंद्र (CPN-माओवादी केंद्र) के नेता दहल के साथ बैठक की. शनिवार को हुई बैठक के बाद देउबा ने सोमवार को नेपाली कांग्रेस के सभी पदाधिकारियों और पूर्व पदाधिकारियों की बैठक बुलाई. खबर लिखे जाने तक यह पता नहीं चल पाया था कि बैठक में क्या हुआ.

याद रहे कि इसी साल मार्च में दहल ने अपने तत्कालीन गठबंधन सहयोगी नेपाली कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था और सीपीएन-यूएमएल को वामपंथी गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था. इसके बाद नेपाली कांग्रेस ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया. यहां यह बताना जरूरी है कि सीपीएम-यूएमएल और नेपाली कांग्रेस नेपाल की दो सबसे बड़ी पार्टियां हैं और गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए दहल इन दोनों पार्टियों में से किसी एक पर निर्भर होंगे.

हालांकि, ओली कथित तौर पर मौजूदा व्यवस्था से नाखुश हैं. कुछ सप्ताह पहले ही उन्होंने दहल के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा पेश किए गए वार्षिक बजट की आलोचना करते हुए इसे 'माओवादी बजट' बताया था. अब, उन्होंने देउबा के साथ बंद कमरे में बैठक की है. दहल भी मौजूदा व्यवस्था से खुश नहीं हैं. ओली-देउबा बैठक के बाद, काठमांडू पोस्ट की एक रिपोर्ट में एक विपक्षी नेता के हवाले से कहा गया कि दहल ने खुद स्वीकार किया है कि देश में मौजूदा तदर्थ राजनीति टिकाऊ नहीं है और वह मंत्रियों को बदलने के अलावा कुछ नहीं कर सकते.

इस बीच, सोमवार को ओली-दहल की बैठक के बारे में हिमालयन टाइम्स ने प्रधानमंत्री कार्यालय में संचार विशेषज्ञ मनोहर तिमिलसिना के हवाले से बताया कि इस बैठक में समकालीन राजनीतिक स्थिति पर चर्चा हुई. तिमिलसिना के अनुसार, इस बात पर भी चर्चा हुई कि सरकारी कामकाज को और अधिक प्रभावी कैसे बनाया जाए.

हालांकि, इन सभी घटनाक्रमों से दहल के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार के भविष्य को लेकर अटकलें ही लगाई जा रही हैं. पोस्ट की रिपोर्ट में विपक्षी नेता के हवाले से कहा गया है, कि 'ओली के सार्वजनिक बयानों के बीच देउबा-ओली की मुलाकात से पता चलता है कि कुछ तो चल रहा है.' सवाल यह उठता है कि इन सभी घटनाक्रमों का पड़ोसी देश भारत के लिए क्या मतलब है.

किंग्स कॉलेज लंदन में किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन थिंक टैंक में उपाध्यक्ष (अध्ययन और विदेश नीति) हर्ष वी पंत ने ईटीवी भारत को बताया कि 'मौजूदा शासन में एक अंतर्निहित अस्थिरता है. भारत को द्विपक्षीय एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नेपाल में एक स्थिर सरकार की आवश्यकता है. चुनौती द्विपक्षीय एजेंडे को आगे बढ़ाने की है.'

साथ ही, पंत ने कहा कि भारत काठमांडू में सत्ता में रही किसी भी सरकार के साथ काम करता रहा है. उन्होंने कहा कि 'एक समय पर दहल भारत के सख्त विरोधी थे. उसके बाद से उन्होंने भारत के प्रति अपने विचारों को नरम कर लिया है और नई दिल्ली ने उनकी सरकार के साथ भी काम किया है.' वर्तमान वामपंथी शासन के तहत एक और विकास यह हुआ है कि नेपाल में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पसंदीदा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए काठमांडू ने बीजिंग के साथ बातचीत फिर से शुरू कर दी है.

यहां यह उल्लेखनीय है कि नेपाल और चीन ने इस वर्ष मार्च में नेपाली उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री नारायण काजी श्रेष्ठ की बीजिंग यात्रा के दौरान बीआरआई कार्यान्वयन योजना पर जल्द से जल्द हस्ताक्षर करने पर सहमति व्यक्त की थी. श्रेष्ठ और उनके चीनी समकक्ष वांग यी के बीच प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के दौरान यह निर्णय लिया गया था. हालांकि कोई विशेष तिथि नहीं बताई गई, लेकिन रिपोर्टों ने सुझाव दिया कि यह नेपाल और चीन के बीच किसी भी उच्च स्तरीय यात्रा के दौरान हो सकता है.

हालांकि नेपाल और चीन ने 12 मई, 2017 को बीआरआई फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और चीन ने 2019 में एक योजना का पाठ आगे बढ़ाया था, लेकिन मुख्य रूप से ऋण देनदारियों को लेकर काठमांडू की चिंताओं के कारण कोई और प्रगति नहीं हुई है. नेपाल ने चीन को यह स्पष्ट कर दिया है कि वह बीआरआई परियोजनाओं को लागू करने के लिए वाणिज्यिक ऋण लेने में दिलचस्पी नहीं रखता है, बल्कि अनुदान और वित्तीय सहायता को प्राथमिकता देगा.

बीआरआई एक वैश्विक अवसंरचना विकास रणनीति है, जिसे चीनी सरकार ने 2013 में 150 से अधिक देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में निवेश करने के लिए अपनाया था. इसे राष्ट्रपति शी जिनपिंग की विदेश नीति का केंद्रबिंदु माना जाता है. यह शी की 'प्रमुख देश कूटनीति' का एक केंद्रीय घटक है, जो चीन से अपनी बढ़ती शक्ति और स्थिति के अनुसार वैश्विक मामलों में अधिक नेतृत्व की भूमिका निभाने का आह्वान करता है.

पर्यवेक्षक और संशयवादी, मुख्य रूप से अमेरिका सहित गैर-भागीदार देशों से, इसे चीन-केंद्रित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क की योजना के रूप में व्याख्या करते हैं. आलोचक चीन पर BRI में भाग लेने वाले देशों को ऋण जाल में फंसाने का भी आरोप लगाते हैं. वास्तव में, पिछले साल इटली BRI से बाहर निकलने वाला पहला G7 देश बन गया. श्रीलंका, जिसने BRI में भाग लिया था, उसको अंततः ऋण चुकौती के मुद्दों के कारण हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को पट्टे पर देना पड़ा.

भारत ने शुरू से ही BRI का विरोध किया है, मुख्यतः इसलिए क्योंकि इसकी प्रमुख परियोजना, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC), पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से होकर गुजरती है. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, नेपाल महंगी अवसंरचना परियोजनाओं के लिए BRI ऋण के माध्यम से चीन के असह्य ऋण में फंसने से सावधान है. नेपाल द्वारा चीन को दिए जाने वाले वार्षिक ऋण भुगतान में पिछले दशक में पहले से ही तेजी से वृद्धि हो रही है.

अन्य ऋणदाताओं द्वारा दी जाने वाली अत्यधिक रियायती शर्तों के कारण BRI परियोजनाओं के लिए महंगे चीनी वाणिज्यिक ऋण लेना अनाकर्षक हो जाता है. नेपाल अपने पड़ोस में बीआरआई परियोजनाओं को लेकर भारत की चिंताओं को भी समझता है. भारत नेपाल के माध्यम से कुछ नियोजित बीआरआई बुनियादी ढांचे के गलियारों को विवादित क्षेत्र में अतिक्रमण के रूप में देखता है, जिस पर उसका दावा है.

नेपाल चीन के साथ भारत की प्रतिद्वंद्विता में पक्ष लेने के लिए अपने शक्तिशाली पड़ोसी भारत के साथ संबंधों को खराब होने से बचाना चाहता है. नई दिल्ली ने ऐतिहासिक रूप से नेपाली राजनीति और नीतियों पर काफी प्रभाव डाला है. नेपाल में सरकार और गठबंधन राजनीति में लगातार होने वाले बदलावों ने BRI नीतियों पर एकरूप बने रहना मुश्किल बना दिया है.

चीन के साथ BRI में गहन भागीदारी से होने वाले लागत/लाभ और संप्रभुता के संभावित नुकसान को लेकर नेपाल में घरेलू राजनीतिक मतभेद हैं. नौकरशाही की अक्षमताओं और चीन की स्वीकृति शर्तों को पूरा करने में कठिनाइयों के कारण कार्यान्वयन धीमा हो गया है. पंत के अनुसार, मतभेदों के बावजूद सभी राजनीतिक दलों के बीच इस बात पर आम सहमति है कि बीआरआई परियोजनाओं को कैसे आगे बढ़ाया जाए.

इन सबके मद्देनजर यह सवाल उठता है कि क्या सीपीएन-यूएमएल और नेपाली कांग्रेस की नई गठबंधन सरकार का गठन भारत के लिए अच्छा होगा. पंत ने कहा कि 'सीपीएन-यूएमएल और नेपाली कांग्रेस वैचारिक रूप से अलग हैं. मुझे नहीं लगता कि ऐसी गठबंधन सरकार लंबे समय तक टिकाऊ होगी.' ईटीवी भारत से बात करते हुए, नेपाल में संघर्ष, शिक्षा और जनयुद्ध नामक पुस्तक के लेखक संजीव राय ने बताया कि नेपाल में 1990 के दशक से ही राजनीतिक उथल-पुथल देखने को मिल रही है.

राय ने कहा कि 'जब कोई भी पार्टी बहुमत में नहीं होती है, तो आप कुछ भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते. लेकिन फिर, यह लोकतंत्र का एक पहलू है.' उन्होंने कहा कि नेपाल भारत का पड़ोसी होने के बावजूद एक संप्रभु देश भी है. राय ने कहा कि 'हां, नेपाल और भारत सांस्कृतिक संबंध साझा करते हैं. साथ ही, हमारे बीच राजनयिक संबंध भी हैं. इसलिए नेपाल में जो भी सरकार सत्ता में आएगी, भारत को उससे निपटना होगा.'

भारत के लिए अपने आस-पास के इलाकों में स्थिरता सर्वोच्च प्राथमिकता है. राय ने कहा कि 'भारत नेपाल में स्थिर सरकार चाहता है.' जैसे-जैसे नेपाल में नई तस्वीर सामने आ रही है, नई दिल्ली बस अपनी उंगलियाँ पार करके देख सकती है.

नई दिल्ली: नेपाल में सरकार की अस्थिरता का एक और उदाहरण हाल के दिनों में नेपाल में हुए राजनीतिक घटनाक्रमों से हिमालयी राष्ट्र के प्रधानमंत्री के रूप में पुष्प कमल दहल के भविष्य को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं. शनिवार को नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी - यूनाइटेड मार्क्सिस्ट लेनिनिस्ट (CPN-UML) के नेता केपी शर्मा ओली ने पूर्व प्रधानमंत्री और विपक्षी नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष शेर बहादुर देउबा के साथ बंद कमरे में बैठक की.

इसके बाद, सोमवार की सुबह ओली ने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी - माओवादी केंद्र (CPN-माओवादी केंद्र) के नेता दहल के साथ बैठक की. शनिवार को हुई बैठक के बाद देउबा ने सोमवार को नेपाली कांग्रेस के सभी पदाधिकारियों और पूर्व पदाधिकारियों की बैठक बुलाई. खबर लिखे जाने तक यह पता नहीं चल पाया था कि बैठक में क्या हुआ.

याद रहे कि इसी साल मार्च में दहल ने अपने तत्कालीन गठबंधन सहयोगी नेपाली कांग्रेस से नाता तोड़ लिया था और सीपीएन-यूएमएल को वामपंथी गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था. इसके बाद नेपाली कांग्रेस ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया. यहां यह बताना जरूरी है कि सीपीएम-यूएमएल और नेपाली कांग्रेस नेपाल की दो सबसे बड़ी पार्टियां हैं और गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए दहल इन दोनों पार्टियों में से किसी एक पर निर्भर होंगे.

हालांकि, ओली कथित तौर पर मौजूदा व्यवस्था से नाखुश हैं. कुछ सप्ताह पहले ही उन्होंने दहल के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा पेश किए गए वार्षिक बजट की आलोचना करते हुए इसे 'माओवादी बजट' बताया था. अब, उन्होंने देउबा के साथ बंद कमरे में बैठक की है. दहल भी मौजूदा व्यवस्था से खुश नहीं हैं. ओली-देउबा बैठक के बाद, काठमांडू पोस्ट की एक रिपोर्ट में एक विपक्षी नेता के हवाले से कहा गया कि दहल ने खुद स्वीकार किया है कि देश में मौजूदा तदर्थ राजनीति टिकाऊ नहीं है और वह मंत्रियों को बदलने के अलावा कुछ नहीं कर सकते.

इस बीच, सोमवार को ओली-दहल की बैठक के बारे में हिमालयन टाइम्स ने प्रधानमंत्री कार्यालय में संचार विशेषज्ञ मनोहर तिमिलसिना के हवाले से बताया कि इस बैठक में समकालीन राजनीतिक स्थिति पर चर्चा हुई. तिमिलसिना के अनुसार, इस बात पर भी चर्चा हुई कि सरकारी कामकाज को और अधिक प्रभावी कैसे बनाया जाए.

हालांकि, इन सभी घटनाक्रमों से दहल के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार के भविष्य को लेकर अटकलें ही लगाई जा रही हैं. पोस्ट की रिपोर्ट में विपक्षी नेता के हवाले से कहा गया है, कि 'ओली के सार्वजनिक बयानों के बीच देउबा-ओली की मुलाकात से पता चलता है कि कुछ तो चल रहा है.' सवाल यह उठता है कि इन सभी घटनाक्रमों का पड़ोसी देश भारत के लिए क्या मतलब है.

किंग्स कॉलेज लंदन में किंग्स इंडिया इंस्टीट्यूट के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के प्रोफेसर और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन थिंक टैंक में उपाध्यक्ष (अध्ययन और विदेश नीति) हर्ष वी पंत ने ईटीवी भारत को बताया कि 'मौजूदा शासन में एक अंतर्निहित अस्थिरता है. भारत को द्विपक्षीय एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए नेपाल में एक स्थिर सरकार की आवश्यकता है. चुनौती द्विपक्षीय एजेंडे को आगे बढ़ाने की है.'

साथ ही, पंत ने कहा कि भारत काठमांडू में सत्ता में रही किसी भी सरकार के साथ काम करता रहा है. उन्होंने कहा कि 'एक समय पर दहल भारत के सख्त विरोधी थे. उसके बाद से उन्होंने भारत के प्रति अपने विचारों को नरम कर लिया है और नई दिल्ली ने उनकी सरकार के साथ भी काम किया है.' वर्तमान वामपंथी शासन के तहत एक और विकास यह हुआ है कि नेपाल में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पसंदीदा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) परियोजनाओं के कार्यान्वयन के लिए काठमांडू ने बीजिंग के साथ बातचीत फिर से शुरू कर दी है.

यहां यह उल्लेखनीय है कि नेपाल और चीन ने इस वर्ष मार्च में नेपाली उप प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री नारायण काजी श्रेष्ठ की बीजिंग यात्रा के दौरान बीआरआई कार्यान्वयन योजना पर जल्द से जल्द हस्ताक्षर करने पर सहमति व्यक्त की थी. श्रेष्ठ और उनके चीनी समकक्ष वांग यी के बीच प्रतिनिधिमंडल स्तर की वार्ता के दौरान यह निर्णय लिया गया था. हालांकि कोई विशेष तिथि नहीं बताई गई, लेकिन रिपोर्टों ने सुझाव दिया कि यह नेपाल और चीन के बीच किसी भी उच्च स्तरीय यात्रा के दौरान हो सकता है.

हालांकि नेपाल और चीन ने 12 मई, 2017 को बीआरआई फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और चीन ने 2019 में एक योजना का पाठ आगे बढ़ाया था, लेकिन मुख्य रूप से ऋण देनदारियों को लेकर काठमांडू की चिंताओं के कारण कोई और प्रगति नहीं हुई है. नेपाल ने चीन को यह स्पष्ट कर दिया है कि वह बीआरआई परियोजनाओं को लागू करने के लिए वाणिज्यिक ऋण लेने में दिलचस्पी नहीं रखता है, बल्कि अनुदान और वित्तीय सहायता को प्राथमिकता देगा.

बीआरआई एक वैश्विक अवसंरचना विकास रणनीति है, जिसे चीनी सरकार ने 2013 में 150 से अधिक देशों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में निवेश करने के लिए अपनाया था. इसे राष्ट्रपति शी जिनपिंग की विदेश नीति का केंद्रबिंदु माना जाता है. यह शी की 'प्रमुख देश कूटनीति' का एक केंद्रीय घटक है, जो चीन से अपनी बढ़ती शक्ति और स्थिति के अनुसार वैश्विक मामलों में अधिक नेतृत्व की भूमिका निभाने का आह्वान करता है.

पर्यवेक्षक और संशयवादी, मुख्य रूप से अमेरिका सहित गैर-भागीदार देशों से, इसे चीन-केंद्रित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार नेटवर्क की योजना के रूप में व्याख्या करते हैं. आलोचक चीन पर BRI में भाग लेने वाले देशों को ऋण जाल में फंसाने का भी आरोप लगाते हैं. वास्तव में, पिछले साल इटली BRI से बाहर निकलने वाला पहला G7 देश बन गया. श्रीलंका, जिसने BRI में भाग लिया था, उसको अंततः ऋण चुकौती के मुद्दों के कारण हंबनटोटा बंदरगाह को चीन को पट्टे पर देना पड़ा.

भारत ने शुरू से ही BRI का विरोध किया है, मुख्यतः इसलिए क्योंकि इसकी प्रमुख परियोजना, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC), पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर से होकर गुजरती है. इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए, नेपाल महंगी अवसंरचना परियोजनाओं के लिए BRI ऋण के माध्यम से चीन के असह्य ऋण में फंसने से सावधान है. नेपाल द्वारा चीन को दिए जाने वाले वार्षिक ऋण भुगतान में पिछले दशक में पहले से ही तेजी से वृद्धि हो रही है.

अन्य ऋणदाताओं द्वारा दी जाने वाली अत्यधिक रियायती शर्तों के कारण BRI परियोजनाओं के लिए महंगे चीनी वाणिज्यिक ऋण लेना अनाकर्षक हो जाता है. नेपाल अपने पड़ोस में बीआरआई परियोजनाओं को लेकर भारत की चिंताओं को भी समझता है. भारत नेपाल के माध्यम से कुछ नियोजित बीआरआई बुनियादी ढांचे के गलियारों को विवादित क्षेत्र में अतिक्रमण के रूप में देखता है, जिस पर उसका दावा है.

नेपाल चीन के साथ भारत की प्रतिद्वंद्विता में पक्ष लेने के लिए अपने शक्तिशाली पड़ोसी भारत के साथ संबंधों को खराब होने से बचाना चाहता है. नई दिल्ली ने ऐतिहासिक रूप से नेपाली राजनीति और नीतियों पर काफी प्रभाव डाला है. नेपाल में सरकार और गठबंधन राजनीति में लगातार होने वाले बदलावों ने BRI नीतियों पर एकरूप बने रहना मुश्किल बना दिया है.

चीन के साथ BRI में गहन भागीदारी से होने वाले लागत/लाभ और संप्रभुता के संभावित नुकसान को लेकर नेपाल में घरेलू राजनीतिक मतभेद हैं. नौकरशाही की अक्षमताओं और चीन की स्वीकृति शर्तों को पूरा करने में कठिनाइयों के कारण कार्यान्वयन धीमा हो गया है. पंत के अनुसार, मतभेदों के बावजूद सभी राजनीतिक दलों के बीच इस बात पर आम सहमति है कि बीआरआई परियोजनाओं को कैसे आगे बढ़ाया जाए.

इन सबके मद्देनजर यह सवाल उठता है कि क्या सीपीएन-यूएमएल और नेपाली कांग्रेस की नई गठबंधन सरकार का गठन भारत के लिए अच्छा होगा. पंत ने कहा कि 'सीपीएन-यूएमएल और नेपाली कांग्रेस वैचारिक रूप से अलग हैं. मुझे नहीं लगता कि ऐसी गठबंधन सरकार लंबे समय तक टिकाऊ होगी.' ईटीवी भारत से बात करते हुए, नेपाल में संघर्ष, शिक्षा और जनयुद्ध नामक पुस्तक के लेखक संजीव राय ने बताया कि नेपाल में 1990 के दशक से ही राजनीतिक उथल-पुथल देखने को मिल रही है.

राय ने कहा कि 'जब कोई भी पार्टी बहुमत में नहीं होती है, तो आप कुछ भी भविष्यवाणी नहीं कर सकते. लेकिन फिर, यह लोकतंत्र का एक पहलू है.' उन्होंने कहा कि नेपाल भारत का पड़ोसी होने के बावजूद एक संप्रभु देश भी है. राय ने कहा कि 'हां, नेपाल और भारत सांस्कृतिक संबंध साझा करते हैं. साथ ही, हमारे बीच राजनयिक संबंध भी हैं. इसलिए नेपाल में जो भी सरकार सत्ता में आएगी, भारत को उससे निपटना होगा.'

भारत के लिए अपने आस-पास के इलाकों में स्थिरता सर्वोच्च प्राथमिकता है. राय ने कहा कि 'भारत नेपाल में स्थिर सरकार चाहता है.' जैसे-जैसे नेपाल में नई तस्वीर सामने आ रही है, नई दिल्ली बस अपनी उंगलियाँ पार करके देख सकती है.

Last Updated : Jul 2, 2024, 3:18 PM IST
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