नई सरकारी रिपोर्ट (उपभोग व्यय पैटर्न पर घरेलू उपभोग व्यय सर्वे) में एक बड़ी सार्वजनिक स्वास्थ्य चेतावनी छिपी है - भारतीय प्रसंस्कृत खाद्य और पेय पदार्थों पर सबसे ज्यादा खर्च कर रहे हैं, जिनसे मोटापा, मधुमेह और हृदय रोगों में वृद्धि होती है. 27 दिसंबर, 2024 को जारी घरेलू उपभोग व्यय सर्वे से पता चला है कि 2023-24 में ग्रामीण भारत ने अपने मासिक बजट का 9.84 प्रतिशत पेय पदार्थों और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर खर्च किया, जबकि शहरी भारत ने अपने मासिक बजट का 11.09 प्रतिशत खर्ज किया.
2022-23 में भी इसी तरह के रुझान देखे गए और ग्रामीण तथा शहरी परिवारों ने अपने मासिक खर्च का क्रमशः 9.62 प्रतिशत और 10.64 प्रतिशत ऐसी वस्तुओं पर खर्च किया. दो दशक में पहली बार खाद्य और पेय पदार्थों के उपभोग पर मासिक बजट 10 प्रतिशत के आंकड़े को पार किया. उपभोग सर्वे भारत में गैर-संचारी रोगों (जो बीमारियां संक्रामक वायरस के कारण नहीं होती हैं और एक व्यक्ति से दूसरे में नहीं फैलती हैं) में वृद्धि के पीछे के कारणों का खुलासा करता है. प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थ कैलोरी से भरपूर होते हैं क्योंकि उनमें चीनी, नमक और ट्रांस-फैट की मात्रा अधिक होती है.
2023-24 का सर्वे 2.61 लाख परिवारों पर किया गया, जिनमें 1.54 लाख ग्रामीण परिवार और 1.07 लाख शहरी परिवार शामिल थे.
HCES (घरेलू उपभोग व्यय सर्वे) को वस्तुओं और सेवाओं पर परिवारों के उपभोग और खर्च के बारे में जानकारी जुटाने के लिए डिजाइन किया गया है. सर्वेक्षण आर्थिक कल्याण में रुझानों का आकलन करने और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना के लिए उपयोग की जाने वाली उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं और भार की टोकरी को निर्धारित करने और अपडेट करने के लिए जरूरी डेटा प्रदान करता है. एचसीईएस के जरिये एकत्र किए गए डेटा का उपयोग गरीबी, असमानता और सामाजिक बहिष्कार को मापने के लिए भी किया जाता है.
एचसीईएस से संकलित मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय (MPCE) अधिकांश विश्लेषणात्मक उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाने वाला प्राथमिक संकेतक है.
भोजन पर मासिक व्यय
सर्वे से पता चलता है कि ग्रामीण भारत अपने मासिक व्यय का 47 प्रतिशत भोजन पर खर्च करता है, जिसमें से करीब 10 प्रतिशत प्रसंस्कृत खाद्य और पेय पदार्थों पर खर्च होता है, जो फलों (3.85 प्रतिशत), सब्जियों (6.03 प्रतिशत), अनाज (4.99 प्रतिशत) तथा अंडे, मछली और मांस (4.92 प्रतिशत) से कहीं अधिक है.
शहरी आबादी में भी यही रुझान है, जो भोजन पर 39 प्रतिशत से अधिक खर्च करती है, जिसमें से 11 प्रतिशत पेय पदार्थों और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर खर्च होता है, जबकि फलों (3.87 प्रतिशत), सब्जियों (4.12 प्रतिशत), अनाज (3.76 प्रतिशत) और अंडे, मछली तथा मांस (3.56 प्रतिशत) पर खर्च होता है.
भारत की शहरी और ग्रामीण दोनों आबादी में पौष्टिक आहार की जगह अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खाद्य उत्पादों और चीनी युक्त मीठे पेय पदार्थों का चलन तेजी से बढ़ रहा है, जो चिंताजनक है.
इन उत्पादों को बनाने वाली कंपनियों द्वारा गलत तरीके से प्रचारित महत्वाकांक्षी जीवनशैली के कारण ऐसा होता है, जो अत्यधिक लत लगाने वाली वस्तुएं हैं. (निम्न आय वाले परिवार उच्च आय वाले परिवारों की नकल करने की कोशिश कर रहे हैं, जो प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर अधिक खर्च करते हैं).
दो दशक पहले जंक फूड पर खर्च
दो दशक पहले, ग्रामीण भारत ऐसे जंक फूड पर केवल 4 प्रतिशत खर्च करता था, जबकि शहरी इलाकों में यह 6.35 प्रतिशत था. 2004-05 और 2009-10 के बीच इस पैटर्न में बड़ी उछाल आई और तब से इसमें लगातार वृद्धि हो रही है.
इन उत्पादों के कारण परिवार की खर्च करने योग्य आय खत्म हो रही है और आहार (डाइट) से आवश्यक पोषक तत्व खत्म हो रहे हैं. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर के श्रीनाथ रेड्डी के अनुसार, स्वास्थ्य संबंधी परिणाम भयावह होने की संभावना है, क्योंकि भारत भर में हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा और कैंसर की संख्या में वृद्धि हो रही है. इसलिए, सरकारी नीति को बाजार से आने वाली इन बीमारियों को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने चाहिए.
पिछले वर्षों के उपभोग व्यय सर्वेक्षणों से तुलना करने पर, ताजा सर्वे में पाया गया कि शहरी और ग्रामीण परिवारों के उपभोग पैटर्न और लेवल के बीच का अंतर साल दर साल लगातार कम होता जा रहा है.
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