बाकू (अजरबैजान): भारत ने 'ग्लोबल साउथ' के लिए सालाना कुल 300 अरब अमेरिकी डॉलर मुहैया कराने का लक्ष्य 2035 तक हासिल करने के जलवायु वित्त पैकेज को रविवार को यहां संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में खारिज कर दिया और इसे 'बहुत कम एवं बहुत दूर की कौड़ी' बताया.
वित्तीय मदद का 300 अरब अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा उस 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से बहुत कम है, जिसकी मांग 'ग्लोबल साउथ' देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पिछले तीन साल से कर रहे हैं. 'ग्लोबल साउथ' का संदर्भ दुनिया के कमजोर या विकासशील देशों के लिए दिया जाता है. आर्थिक मामलों के विभाग की सलाहकार चांदनी रैना ने भारत की ओर से बयान देते हुए कहा कि उन्हें समझौते को अपनाने से पहले अपनी बात नहीं रखने दी गई जिससे प्रक्रिया में उनका विश्वास कम हो गया है.
उन्होंने कहा कि यह समावेशिता का पालन न करने, देशों के रुख का सम्मान न करने जैसी कई घटनाओं की पुनरावृत्ति है. हमने अध्यक्ष को सूचित किया था, हमने सचिवालय को सूचित किया था कि हम कोई भी निर्णय लेने से पहले बयान देना चाहते हैं लेकिन यह सभी ने देखा कि यह सब कैसे पहले से तय करके किया गया. हम बेहद निराश हैं. रैना ने कहा कि यह लक्ष्य बहुत छोटा और बहुत दूर की कौड़ी है. उन्होंने जोर देकर कहा कि इसे 2035 तक के लिए निर्धारित किया गया है, जो बहुत दूर की बात है.
रैना ने कहा कि अनुमान बताते हैं कि हमें 2030 तक प्रति वर्ष कम से कम 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होगी. उन्होंने कहा कि 300 अरब अमेरिकी डॉलर विकासशील देशों की जरूरतों और प्राथमिकताओं के अनुरूप नहीं हैं. यह सीबीडीआर (साझा लेकिन अलग-अलग जिम्मेदारी) और समानता के सिद्धांत के साथ अनुरूप नहीं है.
इस दौरान राजनयिकों, नागरिक समाज के सदस्यों और पत्रकारों से भरे कक्ष में भारतीय वार्ताकार को जोरदार समर्थन मिला. रैना ने कहा कि हम इस प्रक्रिया से बहुत नाखुश और निराश हैं और इस एजेंडे को अपनाए जाने पर आपत्ति जताते हैं. नाइजीरिया ने भारत का समर्थन करते हुए कहा कि 300 अरब अमेरिकी डॉलर का जलवायु वित्त पैकेज एक 'मजाक' है. मलावी और बोलीविया ने भी भारत को समर्थन दिया.
रैना ने कहा कि परिणाम विकसित देशों की अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने की अनिच्छा को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं. उन्होंने कहा कि विकासशील देश जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं और उन्हें अपने विकास की कीमत पर भी कम कार्बन उत्सर्जन वाले माध्यम अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है.
उन्हें विकसित देशों द्वारा अपनाए गए कार्बन सीमा समायोजन तंत्र जैसे एकतरफा कदमों का भी सामना करना पड़ रहा है. रैना ने कहा कि प्रस्तावित परिणाम विकासशील देशों की जलवायु परिवर्तन के अनुसार ढलने की क्षमता को और अधिक प्रभावित करेगा तथा जलवायु लक्ष्य संबंधी उनकी महत्वाकांक्षाओं और विकास पर अत्यधिक असर डालेगा.
उन्होंने कहा कि भारत वर्तमान स्वरूप में इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता. विकासशील देशों के लिए यह नया जलवायु वित्त पैकेज या नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (एनसीक्यूजी) 2009 में तय किए गए 100 अरब अमेरिकी डॉलर के लक्ष्य का स्थान लेगा.
समझौते पर वार्ता के बाद जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि देश विभिन्न स्रोतों - सार्वजनिक और निजी, द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय तथा वैकल्पिक स्रोतों से कुल 300 अरब अमेरिकी डॉलर प्रति वर्ष मुहैया कराने का लक्ष्य 2035 तक हासिल करेंगे. दस्तावेज में 1.3 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा है लेकिन इसमें सार्वजनिक और निजी सहित 'सभी कारकों' से 2035 तक इस स्तर तक पहुंचने के लिए 'एक साथ काम करने' का आह्वान किया गया है. इसमें केवल विकसित देशों पर ही जिम्मेदारी नहीं डाली गई है.