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ब्रिटिशकालीन डाकघर: पोस्टमास्टर और धावक की भूमिका में उत्तर बंगाल की महिला का संघर्ष

ई-कॉमर्स डिलीवरी और स्नैप शॉपिंग के इस दौर में, उत्तर बंगाल में ब्रिटिश काल का यह डाकघर संघर्ष कर रहा है. पढ़ें पूरी खबर...

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उत्तर बंगाल का ब्रिटिशकालीन डाकघर (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Oct 9, 2024, 4:23 PM IST

जलपाईगुड़ी: उत्तर बंगाल में ब्रिटिश काल का यह डाकघर लोगों की सेवा करने के लिए संघर्ष कर रहा है. वह इसलिए क्योंकि यहां एक अकेली महिला, पोस्टमास्टर और धावक दोनों की भूमिका में काम कर रही है. प्रतिष्ठित बंगाली कवि सुकांत भट्टाचार्य की प्रसिद्ध कविता "धावक" आज भी उत्तर बंगाल के अलीपुरद्वार जिले के पोस्टकार्ड पर्यटन स्थल बक्सा की पहाड़ियों में गूंजती है. 'धावक गुजर रहा है, इसलिए रात में घंटियां बज रही हैं'... कविता की शुरुआती पंक्ति यहां सटीक बैठती है.

डाक विभाग की एक महिला धावक श्रीजना थापा डाकघर के प्रबंधन और घर-घर चिट्ठियां और सामान पहुंचाने के काम को समान रूप से संतुलित करती हैं. यह विश्वास करना कठिन है, लेकिन सच है कि ई-मेल और व्हाट्सएप के युग में, डाकघर में बिजली का कनेक्शन नहीं है. हालांकि काम में तेजी लाने के लिए इसे इंटरनेट से जोड़ा गया है, लेकिन खराब नेटवर्क अक्सर उद्देश्य को झुठला देता है क्योंकि ग्राहकों को निकासी, जमा और अन्य उद्देश्यों के लिए राजाभटखावा डाकघर जाना पड़ता है.

स्थिति पोस्ट मास्टर के लिए परेशानी का सबब बन गई है. थापा राजाभटखावा डाकघर से सप्ताह में तीन बार- मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को पत्र एकत्र करती हैं. वह बस से संतालाबाड़ी जाती हैं, फिर तीन किलोमीटर पैदल चलकर बक्शादुआर पहुंचती हैं. वह 11 गांवों- सदर बाजार, लेप्चा बस्ती, 28 बस्ती, 29 बस्ती, अदमा, चूनावटी, संतलाबाड़ी, तासीगांव, बक्सा किला, दारागांव, खतलिंग और फुलबाड़ी में पत्र और अन्य खेप पहुंचाती हैं. वैश्वीकरण के युग में, श्रीजना थापा अभी भी कठिनाइयों के साथ अपने पैरों पर खड़ी हैं.

बक्शद्वार शाखा डाकघर की स्थापना 124 साल पहले हुई थी, जब औपनिवेशिक शासक पश्चिम बंगाल के कोने-कोने में क्रांतिकारी गतिविधियों से निपटने के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे. इसमें अभी भी औपनिवेशिक काल के तराजू और बाट हैं, लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद इसकी चमक खत्म हो गई है. रख-रखाव और सामान की कमी के कारण डाकघर बंद होने के कगार पर है.

1942 तक अंग्रेज इसी डाकघर के जरिए डुआर्स से जुड़ते थे. आजादी के बाद भी यह कार्यालय खराब बुनियादी ढांचे और जनशक्ति के साथ लोगों की ईमानदारी से सेवा कर रहा है. चूंकि यहां ज्यादातर काम ऑफलाइन होता है, इसलिए अस्थायी कर्मचारी थापा को डिलीवरी के अलावा अतिरिक्त समय भी काम करना पड़ता है. चिरिंग भूटिया डाकघर के आखिरी स्थायी कर्मचारी थे, जिनकी एक दशक पहले मौत हो गई थी. उनके बेटे पाशांग भूटिया अस्थायी डाकिया या रनर के तौर पर काम करते थे. लेकिन स्थायी कर्मचारी बनाने की मांग करने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया और शंकर मंडल नाम के व्यक्ति को यह काम सौंपा गया.

शंकर के जाने के बाद शिबू दास नामक व्यक्ति यहां सप्ताह में तीन दिन काम करता था और बाकी दिन थापा काम संभालते हैं. थापा कहती हैं, ''डाकघर बहुत बुरे हालात में चल रहा है. सभी दफ्तर इंटरनेट से जुड़ गए हैं और सारे काम ऑनलाइन हो रहे हैं. इसलिए इस डाकघर में जमा-निकासी की सुविधा नहीं है. अस्थायी कर्मचारी होने के बावजूद मुझे पोस्टमास्टर और पोस्टमैन का काम साथ-साथ संभालना पड़ता है. अगर यही चलता रहा तो जल्द ही यह दफ्तर बंद हो जाएगा.''

उन्होंने कहा, ''मेरा जन्म बक्सा हिल्स में हुआ है. इसलिए तमाम मुश्किलों के बावजूद मुझे करीब छह किलोमीटर पैदल चलकर दफ्तर आना पड़ता है. पहाड़ी इलाकों से होते हुए 11 गांवों में सामान पहुंचाना चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा है.''

ये भी पढ़ें: हर महीने कमाई करवाती है यह सेविंग स्कीम, 1000 रुपये से कर सकते हैं निवेश

जलपाईगुड़ी: उत्तर बंगाल में ब्रिटिश काल का यह डाकघर लोगों की सेवा करने के लिए संघर्ष कर रहा है. वह इसलिए क्योंकि यहां एक अकेली महिला, पोस्टमास्टर और धावक दोनों की भूमिका में काम कर रही है. प्रतिष्ठित बंगाली कवि सुकांत भट्टाचार्य की प्रसिद्ध कविता "धावक" आज भी उत्तर बंगाल के अलीपुरद्वार जिले के पोस्टकार्ड पर्यटन स्थल बक्सा की पहाड़ियों में गूंजती है. 'धावक गुजर रहा है, इसलिए रात में घंटियां बज रही हैं'... कविता की शुरुआती पंक्ति यहां सटीक बैठती है.

डाक विभाग की एक महिला धावक श्रीजना थापा डाकघर के प्रबंधन और घर-घर चिट्ठियां और सामान पहुंचाने के काम को समान रूप से संतुलित करती हैं. यह विश्वास करना कठिन है, लेकिन सच है कि ई-मेल और व्हाट्सएप के युग में, डाकघर में बिजली का कनेक्शन नहीं है. हालांकि काम में तेजी लाने के लिए इसे इंटरनेट से जोड़ा गया है, लेकिन खराब नेटवर्क अक्सर उद्देश्य को झुठला देता है क्योंकि ग्राहकों को निकासी, जमा और अन्य उद्देश्यों के लिए राजाभटखावा डाकघर जाना पड़ता है.

स्थिति पोस्ट मास्टर के लिए परेशानी का सबब बन गई है. थापा राजाभटखावा डाकघर से सप्ताह में तीन बार- मंगलवार, गुरुवार और शनिवार को पत्र एकत्र करती हैं. वह बस से संतालाबाड़ी जाती हैं, फिर तीन किलोमीटर पैदल चलकर बक्शादुआर पहुंचती हैं. वह 11 गांवों- सदर बाजार, लेप्चा बस्ती, 28 बस्ती, 29 बस्ती, अदमा, चूनावटी, संतलाबाड़ी, तासीगांव, बक्सा किला, दारागांव, खतलिंग और फुलबाड़ी में पत्र और अन्य खेप पहुंचाती हैं. वैश्वीकरण के युग में, श्रीजना थापा अभी भी कठिनाइयों के साथ अपने पैरों पर खड़ी हैं.

बक्शद्वार शाखा डाकघर की स्थापना 124 साल पहले हुई थी, जब औपनिवेशिक शासक पश्चिम बंगाल के कोने-कोने में क्रांतिकारी गतिविधियों से निपटने के बारे में विचार-विमर्श कर रहे थे. इसमें अभी भी औपनिवेशिक काल के तराजू और बाट हैं, लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद इसकी चमक खत्म हो गई है. रख-रखाव और सामान की कमी के कारण डाकघर बंद होने के कगार पर है.

1942 तक अंग्रेज इसी डाकघर के जरिए डुआर्स से जुड़ते थे. आजादी के बाद भी यह कार्यालय खराब बुनियादी ढांचे और जनशक्ति के साथ लोगों की ईमानदारी से सेवा कर रहा है. चूंकि यहां ज्यादातर काम ऑफलाइन होता है, इसलिए अस्थायी कर्मचारी थापा को डिलीवरी के अलावा अतिरिक्त समय भी काम करना पड़ता है. चिरिंग भूटिया डाकघर के आखिरी स्थायी कर्मचारी थे, जिनकी एक दशक पहले मौत हो गई थी. उनके बेटे पाशांग भूटिया अस्थायी डाकिया या रनर के तौर पर काम करते थे. लेकिन स्थायी कर्मचारी बनाने की मांग करने पर उन्हें बर्खास्त कर दिया गया और शंकर मंडल नाम के व्यक्ति को यह काम सौंपा गया.

शंकर के जाने के बाद शिबू दास नामक व्यक्ति यहां सप्ताह में तीन दिन काम करता था और बाकी दिन थापा काम संभालते हैं. थापा कहती हैं, ''डाकघर बहुत बुरे हालात में चल रहा है. सभी दफ्तर इंटरनेट से जुड़ गए हैं और सारे काम ऑनलाइन हो रहे हैं. इसलिए इस डाकघर में जमा-निकासी की सुविधा नहीं है. अस्थायी कर्मचारी होने के बावजूद मुझे पोस्टमास्टर और पोस्टमैन का काम साथ-साथ संभालना पड़ता है. अगर यही चलता रहा तो जल्द ही यह दफ्तर बंद हो जाएगा.''

उन्होंने कहा, ''मेरा जन्म बक्सा हिल्स में हुआ है. इसलिए तमाम मुश्किलों के बावजूद मुझे करीब छह किलोमीटर पैदल चलकर दफ्तर आना पड़ता है. पहाड़ी इलाकों से होते हुए 11 गांवों में सामान पहुंचाना चुनौतीपूर्ण और जोखिम भरा है.''

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