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झारखंड का आदिवासी समाज कैसे सेलिब्रेट करता है होली, होलिका दहन की जगह क्यों काटा जाता है फगुआ - Holi of tribals of Jharkhand

How tribals celebrate Holi in Jharkhand. झारखंड का आदिवासी समाज अलग-अलग तरीकों से होली मनाता है, कहीं पानी से होली खेलने की परंपरा है तो कहीं फगुआ काटने का चलन है. इस रिपोर्ट में जानें झारखंड में होली के रंग.

How tribals celebrate Holi in Jharkhand
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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Mar 23, 2024, 6:36 PM IST

Updated : Mar 24, 2024, 10:43 AM IST

रांची: प्रसिद्ध लेखक और कवि हरिवंश राय बच्चन ने क्या खूब लिखा है "जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो, होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो". होली की यह परंपरा सदियों से चली आ रही है. यह प्रेम का त्योहार है. गिले शिकवे दूर करने का भी त्योहार है. हालांकि वक्त के साथ होली पर फैशन का रंग भी चढ़ा है. बड़े शहरों में मास्क, मॉर्डन पिचकारियां और गुलाल भरे पटाखे चलन में आ गये हैं. डीजे की धून पर रेनवाटर डांस का कल्चर शुरु हो गया है. लेकिन गांव-देहात में आज भी गोबर, किचड़, रंग और गुलाल ही नफरत मिटा रहे हैं.

आखिर क्यों मनाई जाती है होली

होली का त्योहार फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. सनातम धर्म में इस पर्व के पीछे तीन मान्यताएं जुड़ी हुई हैं. कहा जाता है कि राक्षस कुल में जन्मे प्रह्लाद का भगवान विष्णु के प्रति आस्था उनके पिता हिरण्यकश्यप को अच्छी नहीं लगती थी. उन्होंने अपनी बहन होलिका को कहा था कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ जाए. क्योंकि होलिका को नहीं जलने का वरदान था. लेकिन होलिका जल गई और प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ. अत्याचार और क्रूरता पर भक्ति की जीत हुई. इसी वजह से होलिका दहन के अगले दिन होली खोलकर गिले-शिकवे दूर किया जाता है. इसे राधा-कृष्ण के निश्चल प्रेम के प्रतीक के रुप में भी मनाया जाता है. यह भी कहा जाता है कि फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने पार्वती से विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार किया था. तब देवताओं ने होली खोली थी.

आदिवासी समाज कैसे मनाता है होली का त्योहार

दरअसल, आदिवासी समाज में होली का त्योहार मनाने का चलन नहीं है. लेकिन बदलते दौर के साथ आदिवासी समाज के लोग भी होली खेलने लगे हैं. हालांकि, खास पकवान बनाने का कोई चलन नहीं है. 'संथाल' समाज में बाहा पर्व मनाया जाता है. कहीं-कहीं होली के पहले तो कहीं होली के बाद इस पर्व को मनाया जाता है. इसे फूलों का पर्व भी कहा जाता है. गांव के लोग जाहेरथान नामक पूजास्थल में साल के फूल और पत्तों को कान में लगाकर पारंपरिक हथियारों की पूजा करते हैं और बाद में पानी से होली खेलते हैं. यह अनूठी होली है. इसमें महिला और पुरूष अलग-अलग होली खेलते हैं. फिर पारंपरिक वस्त्र पहनकर नाच गान करते हैं, खुशियां मनाते हैं. यह पर्व प्रकृति से जुड़ा है.

'हो' आदिवासी बहुल सिंहभूम में उपरूम जुमूर पर्व मनाया जाता है. आमतौर पर इसे जनवरी माह में मनाया जाता है. गांव में साल के वृक्ष के डाल की पूजा होती है. इसके बाद हो समाज के लोग एक जगह इकट्ठा होकर एक-दूसरे को अपना परिचय देते हैं. फिर नाच-गान करते हैं. यह पर्व संस्कृति से खुद को जोड़े रखने और आपस में पहचान कायम रखने का महत्व बताता है.

'उरांव' समाज में फगुआ काटने की प्रथा है. होली के एक दिन पहले पूर्णिमा की रात को सेमल की डाली जलाई जाती है. मान्यता है कि सारु पहाड़ स्थित सेमल के पेड़ में दो गिद्धों का डेरा था जो बच्चों को निवाला बना लेता था. समाज के लोगों ने अपने आराध्य से बचाने की फरियाद की तो वह खुद आए और दोनों गिद्दों का वध किया. इसी वजह से सेमल की डाली को जलाकर समाज के लोग जंगल में जाते हैं और यह देखते हैं कि उनके ईर्द-गिर्द किस तरह के पशु-पक्षी वास कर रहे हैं.

लोहरदगा में होती है ढेला मार होली

लोहरदगा के सेनहा प्रखंड में है बरही चटकपुर गांव. यहां ढेला मार होली होती है. होलिका दहन के दिन पूजा के बाद गांव के मैदान में पुजारी एक खंभा गाड़ते हैं. दूसरे दिन उस खंभा को उखाड़ने और छूने की होड़ मच जाती है. दूसरी तरफ ऐसा करने से रोकने के लिए गांव के लोग मिट्टी के ढेलों की बरसात करने लगते हैं. मान्यता है कि ढेला मार होली के दौरान कोई चोटिल नहीं होता. अब इस अनोखी होली को देखने के लिए आसपास के गांव के लोग भी जुटने लगे हैं. कहा जाता है कि दामादों के लिए इस परंपरा की शुरुआत हुई थी.

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आखिर क्यों मनाई जाती है होली

होली का त्योहार फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है. सनातम धर्म में इस पर्व के पीछे तीन मान्यताएं जुड़ी हुई हैं. कहा जाता है कि राक्षस कुल में जन्मे प्रह्लाद का भगवान विष्णु के प्रति आस्था उनके पिता हिरण्यकश्यप को अच्छी नहीं लगती थी. उन्होंने अपनी बहन होलिका को कहा था कि वह प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठ जाए. क्योंकि होलिका को नहीं जलने का वरदान था. लेकिन होलिका जल गई और प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ. अत्याचार और क्रूरता पर भक्ति की जीत हुई. इसी वजह से होलिका दहन के अगले दिन होली खोलकर गिले-शिकवे दूर किया जाता है. इसे राधा-कृष्ण के निश्चल प्रेम के प्रतीक के रुप में भी मनाया जाता है. यह भी कहा जाता है कि फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन ही भगवान शिव ने पार्वती से विवाह के प्रस्ताव को स्वीकार किया था. तब देवताओं ने होली खोली थी.

आदिवासी समाज कैसे मनाता है होली का त्योहार

दरअसल, आदिवासी समाज में होली का त्योहार मनाने का चलन नहीं है. लेकिन बदलते दौर के साथ आदिवासी समाज के लोग भी होली खेलने लगे हैं. हालांकि, खास पकवान बनाने का कोई चलन नहीं है. 'संथाल' समाज में बाहा पर्व मनाया जाता है. कहीं-कहीं होली के पहले तो कहीं होली के बाद इस पर्व को मनाया जाता है. इसे फूलों का पर्व भी कहा जाता है. गांव के लोग जाहेरथान नामक पूजास्थल में साल के फूल और पत्तों को कान में लगाकर पारंपरिक हथियारों की पूजा करते हैं और बाद में पानी से होली खेलते हैं. यह अनूठी होली है. इसमें महिला और पुरूष अलग-अलग होली खेलते हैं. फिर पारंपरिक वस्त्र पहनकर नाच गान करते हैं, खुशियां मनाते हैं. यह पर्व प्रकृति से जुड़ा है.

'हो' आदिवासी बहुल सिंहभूम में उपरूम जुमूर पर्व मनाया जाता है. आमतौर पर इसे जनवरी माह में मनाया जाता है. गांव में साल के वृक्ष के डाल की पूजा होती है. इसके बाद हो समाज के लोग एक जगह इकट्ठा होकर एक-दूसरे को अपना परिचय देते हैं. फिर नाच-गान करते हैं. यह पर्व संस्कृति से खुद को जोड़े रखने और आपस में पहचान कायम रखने का महत्व बताता है.

'उरांव' समाज में फगुआ काटने की प्रथा है. होली के एक दिन पहले पूर्णिमा की रात को सेमल की डाली जलाई जाती है. मान्यता है कि सारु पहाड़ स्थित सेमल के पेड़ में दो गिद्धों का डेरा था जो बच्चों को निवाला बना लेता था. समाज के लोगों ने अपने आराध्य से बचाने की फरियाद की तो वह खुद आए और दोनों गिद्दों का वध किया. इसी वजह से सेमल की डाली को जलाकर समाज के लोग जंगल में जाते हैं और यह देखते हैं कि उनके ईर्द-गिर्द किस तरह के पशु-पक्षी वास कर रहे हैं.

लोहरदगा में होती है ढेला मार होली

लोहरदगा के सेनहा प्रखंड में है बरही चटकपुर गांव. यहां ढेला मार होली होती है. होलिका दहन के दिन पूजा के बाद गांव के मैदान में पुजारी एक खंभा गाड़ते हैं. दूसरे दिन उस खंभा को उखाड़ने और छूने की होड़ मच जाती है. दूसरी तरफ ऐसा करने से रोकने के लिए गांव के लोग मिट्टी के ढेलों की बरसात करने लगते हैं. मान्यता है कि ढेला मार होली के दौरान कोई चोटिल नहीं होता. अब इस अनोखी होली को देखने के लिए आसपास के गांव के लोग भी जुटने लगे हैं. कहा जाता है कि दामादों के लिए इस परंपरा की शुरुआत हुई थी.

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Last Updated : Mar 24, 2024, 10:43 AM IST
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