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सुप्रीम कोर्ट ने ननों और पादरियों की सैलरी पर TDS कटौती को सही बताया

सुप्रीम कोर्ट ने पादरियों और ननों के वेतन पर टीडीएस लागू करने के खिलाफ याचिकाओं को खारिज कर दिया.

Supreme Court
सुप्रीम कोर्ट (ANI)
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By Sumit Saxena

Published : Nov 9, 2024, 12:27 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें कहा गया था कि चर्च द्वारा संचालित सहायता प्राप्त स्कूलों में शिक्षकों नन और पादरियों को दिया जाने वाला वेतन आयकर के अधीन है. सुप्रीम कोर्ट ने वेतनभोगी नन और पादरियों को आयकर से छूट देने के लिए विभिन्न मिशनरियों की 90 से अधिक याचिकाओं को खारिज कर दिया.

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने गुरुवार को कहा कि स्कूल को यह पैसा वेतन अनुदान के रूप में दिया जाता है. इसलिए इसे टीडीएस से छूट नहीं दी जा सकती. सीजेआई ने कहा, 'यह एक वेतन है जो नन या फादर में से किसी एक को दिया जाता है.

अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने पीठ के समक्ष दलील दी कि यह पैसा स्कूलों को नहीं दिया जाता है, बल्कि सीधे डायोसीज (चर्चों का समूह जिसका पर्यवेक्षण बिशप करता है) को जाता है.

पीठ अपीलकर्ताओं के वकील की दलील से संतुष्ट नहीं थी और पूछा, सरकार डायोसिस को कैसे भुगतान करेगी? पीठ ने कहा, 'सरकार डायोसिस को कभी भी भुगतान नहीं करेगी. सरकार किसी धर्म में योगदान नहीं कर सकती, इसलिए सरकार स्कूल को भुगतान करेगी.

दातार ने कहा कि तकनीकी रूप से यह स्कूल को भुगतान करेगा और फंड सीधे डायोसीज को जाएगा. पीठ में जस्टिस जे बी पारदीवाला और मनोज मिश्रा ने शामिल थे. सीजेआई ने कहा कि संगठन फादर या नन को वेतन का बिल भेजते हैं लेकिन इसे किसी एक सहयोगी संगठन या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए किसी अन्य को देता है. सीजेआई ने स्पष्ट किया कि टीडीएस काटा जाना चाहिए.

पीठ को बताया गया कि अधिनियम की धारा 11 के तहत धर्मार्थ ट्रस्ट के रूप में सूबा पंजीकृत है. दातार ने जोर देकर कहा कि उन्हें जो भी पैसा इकट्ठा होता है उसका 75 प्रतिशत धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए बांटना पड़ता है. पादरी को कुछ नहीं मिलता. उन्होंने आगे कहा कि पिछले 85 सालों से पादरियों पर कभी टैक्स नहीं लगाया गया.

पीठ ने कहा, 'उदाहरण के लिए एक हिंदू पुजारी जो कहता है कि मैं वेतन नहीं रखूंगा और जो पैसा मुझे मिलता है, उसे मैं किसी संगठन को पूजा करने के लिए दे दूंगा. लेकिन अगर व्यक्ति नौकरी करता है तो उसे वेतन मिलता है, टैक्स काटा जाना चाहिए. कानून सभी के लिए समान है. आप कैसे कह सकते हैं कि यह टीडीएस के अधीन नहीं है?

अपीलकर्ताओं के वकील ने मद्रास हाईकोर्ट और केरल हाईकोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि यदि किसी पुजारी की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है तो आर्थिक मुआवजा परिवार को नहीं बल्कि धर्मप्रांत को मिलता है. इसपर सीजेआई ने कहा कि इसके पीछे एक कारण है क्योंकि एक बार जब आप संन्यासी बनते हैं तो वह व्यक्ति अपने प्राकृतिक परिवार से सभी संबंध पूरी तरह से तोड़ देता है. सीजेआई ने कहा, 'जब वह व्यक्ति मर जाता है, तो उस परिवार के पास मुआवजे का कोई दावा नहीं होगा क्योंकि परिवार को त्यागने के समय वह परिवार से सभी संबंध तोड़ देता है.

मद्रास हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने पादरियों और ननों के पक्ष में फैसला सुनाया था. हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने कहा था कि उनके वेतन पर आयकर नहीं लगाया जा सकता क्योंकि यह पैसा उन्हें नहीं बल्कि केवल धर्मप्रांत को दिया जाता है. आयकर विभाग ने इस आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट की खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की, जिसने 2019 में इस आदेश को पलट दिया. इस आदेश को शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई थी.

ये भी पढ़ें- 'आप बुलडोजर लेकर रातों-रात घर नहीं गिरा सकते', SC ने यूपी के अधिकारियों को 25 लाख मुआवजा देने को कहा

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास हाईकोर्ट के उस आदेश को बरकरार रखा जिसमें कहा गया था कि चर्च द्वारा संचालित सहायता प्राप्त स्कूलों में शिक्षकों नन और पादरियों को दिया जाने वाला वेतन आयकर के अधीन है. सुप्रीम कोर्ट ने वेतनभोगी नन और पादरियों को आयकर से छूट देने के लिए विभिन्न मिशनरियों की 90 से अधिक याचिकाओं को खारिज कर दिया.

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने गुरुवार को कहा कि स्कूल को यह पैसा वेतन अनुदान के रूप में दिया जाता है. इसलिए इसे टीडीएस से छूट नहीं दी जा सकती. सीजेआई ने कहा, 'यह एक वेतन है जो नन या फादर में से किसी एक को दिया जाता है.

अपीलकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार ने पीठ के समक्ष दलील दी कि यह पैसा स्कूलों को नहीं दिया जाता है, बल्कि सीधे डायोसीज (चर्चों का समूह जिसका पर्यवेक्षण बिशप करता है) को जाता है.

पीठ अपीलकर्ताओं के वकील की दलील से संतुष्ट नहीं थी और पूछा, सरकार डायोसिस को कैसे भुगतान करेगी? पीठ ने कहा, 'सरकार डायोसिस को कभी भी भुगतान नहीं करेगी. सरकार किसी धर्म में योगदान नहीं कर सकती, इसलिए सरकार स्कूल को भुगतान करेगी.

दातार ने कहा कि तकनीकी रूप से यह स्कूल को भुगतान करेगा और फंड सीधे डायोसीज को जाएगा. पीठ में जस्टिस जे बी पारदीवाला और मनोज मिश्रा ने शामिल थे. सीजेआई ने कहा कि संगठन फादर या नन को वेतन का बिल भेजते हैं लेकिन इसे किसी एक सहयोगी संगठन या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए किसी अन्य को देता है. सीजेआई ने स्पष्ट किया कि टीडीएस काटा जाना चाहिए.

पीठ को बताया गया कि अधिनियम की धारा 11 के तहत धर्मार्थ ट्रस्ट के रूप में सूबा पंजीकृत है. दातार ने जोर देकर कहा कि उन्हें जो भी पैसा इकट्ठा होता है उसका 75 प्रतिशत धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए बांटना पड़ता है. पादरी को कुछ नहीं मिलता. उन्होंने आगे कहा कि पिछले 85 सालों से पादरियों पर कभी टैक्स नहीं लगाया गया.

पीठ ने कहा, 'उदाहरण के लिए एक हिंदू पुजारी जो कहता है कि मैं वेतन नहीं रखूंगा और जो पैसा मुझे मिलता है, उसे मैं किसी संगठन को पूजा करने के लिए दे दूंगा. लेकिन अगर व्यक्ति नौकरी करता है तो उसे वेतन मिलता है, टैक्स काटा जाना चाहिए. कानून सभी के लिए समान है. आप कैसे कह सकते हैं कि यह टीडीएस के अधीन नहीं है?

अपीलकर्ताओं के वकील ने मद्रास हाईकोर्ट और केरल हाईकोर्ट के निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि यदि किसी पुजारी की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है तो आर्थिक मुआवजा परिवार को नहीं बल्कि धर्मप्रांत को मिलता है. इसपर सीजेआई ने कहा कि इसके पीछे एक कारण है क्योंकि एक बार जब आप संन्यासी बनते हैं तो वह व्यक्ति अपने प्राकृतिक परिवार से सभी संबंध पूरी तरह से तोड़ देता है. सीजेआई ने कहा, 'जब वह व्यक्ति मर जाता है, तो उस परिवार के पास मुआवजे का कोई दावा नहीं होगा क्योंकि परिवार को त्यागने के समय वह परिवार से सभी संबंध तोड़ देता है.

मद्रास हाईकोर्ट के एकल न्यायाधीश ने पादरियों और ननों के पक्ष में फैसला सुनाया था. हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने कहा था कि उनके वेतन पर आयकर नहीं लगाया जा सकता क्योंकि यह पैसा उन्हें नहीं बल्कि केवल धर्मप्रांत को दिया जाता है. आयकर विभाग ने इस आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट की खंडपीठ के समक्ष अपील दायर की, जिसने 2019 में इस आदेश को पलट दिया. इस आदेश को शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई थी.

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