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कभी पुलिस एजेंट बोलकर होती थी पिटाई, उठा ले जाते थे बच्चे, अब बदल गए हालात, जानिए कैसे कमजोर हुए नक्सली - MAOISTS ATROCITIES

पलामू में माओवादियों के आतंक की कहानी काफी पुरानी है. सालों तक यहां के लोग लाल आतंक के खौफ में रहे हैं. अब स्थिति में बदलाव आया है.

Maoists atrocities
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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Dec 16, 2024, 7:35 PM IST

पलामू: एक समय था जब पुलिस का एजेंट बताकर ग्रामीणों के साथ मारपीट की जाती थी, बच्चों का सरेआम अपहरण कर उन्हें नक्सली संगठनों का हिस्सा बना दिया जाता था. ये लाल आतंक का दौर था. लाल आतंक का मतलब नक्सली संगठन. लेकिन अब ये दौर खत्म होता दिख रहा है. देश के कई इलाकों में नक्सली संगठन खुद को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. जहां से नक्सली संगठन पैदा हुए थे अब वहां हालात बदल गए हैं. लोग बेखौफ होकर अपनी जिंदगी जी रहे हैं. लोगों की जीवनशैली धीरे-धीरे बदल गई है.

1966-67 में नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैला. अविभाजित बिहार में पलामू के इलाकों को नक्सल आंदोलन का पहला अड्डा बनाया गया. 1984 में अविभाजित बिहार में नक्सली हिंसा में पहली हत्या पलामू के मोहम्मदगंज में हुई थी, जबकि 1988-89 में पलामू के किता (वर्तमान में लातेहार का चंदवा) में पहला नरसंहार हुआ और 23 लोगों की जान चली गई.

पलामू में माओवादियों के खौफ की कहानी (Etv Bharat)

कैसा था माओवादियों का साम्राज्य?

2004 में देशभर के नक्सली संगठनों का आपस में विलय हुआ था. इस विलय के बाद माओवादियों ने अपना साम्राज्य और सत्ता कायम किया. माओवादी अपनी खुद की अदालत लगाते थे, जिसे जन अदालत भी कहा जाता था. विशाल जन अदालत में माओवादी हत्याएं करते थे और अपना फैसला सुनाते थे. 2015-16 तक पलामू में कई ऐसे थाने थे जहां जमीन विवाद से जुड़ी शिकायतें नहीं भेजी जाती थीं, ग्रामीण इलाकों में माओवादियों का दखल बड़े पैमाने पर था. एक फरमान के बाद ग्रामीण इलाके पूरी तरह बंद हो जाते थे और कोई वहां नहीं जा सकता था.

Maoists atrocities
ग्राफिक्स (Etv Bharat)

2008-09 में पलामू के मनातू थाना क्षेत्र के चक को माओवादियों ने डेढ़ साल तक नाकेबंदी कर रखा था. चक की बड़ी आबादी पलायन कर गई थी. चक के सरयू प्रसाद यादव बताते हैं कि माओवादियों ने भीड़ भरे बाजार में दो जवानों को गोली मार दी थी. वे कई दिनों तक खौफ में रहे, न कहीं आ सकते थे, न कहीं जा सकते थे. यह वह दौर थो जो खत्म हो चुका है.

नक्सली हिंसा के बाद कैसे बदली लोगों की सोच

2004-05 के बाद नक्सलियों ने हमलों के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. माओवादियों के पास आधुनिक हथियार और विस्फोटक थे. 2007-08 में माओवादी हिंसा काफी बढ़ गई. माओवादी स्कूल भवनों और सरकारी भवनों को निशाना बना रहे थे. 2008 से 2013 के बीच अकेले माओवादियों ने पलामू प्रमंडल में 70 से ज्यादा स्कूल भवनों को उड़ा दिया. इस दौरान रेलवे पर 17 हमले हुए और एक ट्रेन को हाईजैक कर लिया गया. कई पुल-पुलिया उड़ा दिए गए. नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी में अंदरूनी दरार के बाद 2004-05 में टीएसपीसी और 2006-07 में जेजेएमपी का गठन हुआ. दोनों संगठनों के गठन के बाद कई खूनी खेल हुए. नक्सली संगठनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में ग्रामीण पिस रहे थे.

"यह वह दौर था जब काफी हिंसा होती थी. इस हिंसा से आम लोगों को काफी परेशानी होती थी. लोग स्कूल भवन और सड़क को क्षतिग्रस्त होते नहीं देखना चाहते थे. यहीं से लोगों के बीच माओवादियों या अन्य नक्सली संगठनों की पकड़ कमजोर पड़ने लगी." - सुरेंद्र यादव, पूर्व माओवादी

अब बदल गई स्थिति

ग्रामीण इलाकों में स्थिति बदल गई है, नक्सलवाद का दौर खत्म होता दिख रहा है. ग्रामीण इलाकों में बाजार लगने लगे हैं और बड़ी संख्या में पक्के मकान बन रहे हैं. पलामू के मनातू निवासी बुद्धेश्वर यादव कहते हैं कि पहले सड़क पर चलने में डर लगता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है, अब रात में कभी भी आ-जा सकते हैं. बूढ़ापहाड़ इलाके में रहने वाले इमामुद्दीन ने कहा कि पहले डर लगता था कि माओवादी बच्चों का अपहरण कर लेते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं है. गांव से बाहर जाने के बाद जब वापस लौटते थे तो पुलिस का एजेंट बताकर उनकी पिटाई की जाती थी. पुलिस का एजेंट बताकर बड़ी संख्या में ग्रामीणों की पिटाई की गई है. उनका कहना है कि अब खौफ का वह दौर खत्म हो गया है.

Maoists atrocities
ग्राफिक्स (Etv Bharat)

कैसे कमजोर हुए नक्सली?

पिछले एक दशक में सुरक्षा बलों को नक्सली संगठनों के खिलाफ बड़ी सफलता मिली है. सुरक्षाबलों ने एक नीति तय की और नक्सली इलाकों में पिकेट बनाने शुरू किए. धीरे-धीरे हालात बदले और नक्सली इलाकों में सुरक्षा बलों की गतिविधियां बढ़ने लगीं. पलामू प्रमंडल में सीआरपीएफ की पांच बटालियन तैनात की गईं और सुरक्षा बलों ने माओवादियों के सबसे सुरक्षित ठिकाने बूढ़ापहाड़ पर कब्जा कर लिया. इससे पहले सुरक्षा बलों ने माओवादियों के रेड कॉरिडोर पर 70 से ज्यादा कैंप बनाए थे जो बिहार के छकरबंधा से बूढ़ापहाड़ के बीच था. इस कॉरिडोर पर पांच से सात हजार जवान तैनात थे.

"पिछले कुछ सालों में हालात बदले हैं और सुरक्षा बलों को बड़ी सफलता मिली है. अभी भी कुछ नक्सली बचे हैं जिनके खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है. उनसे आत्मसमर्पण करने की अपील की जा रही है. पिछले कुछ सालों में जनता भी जागरूक हुई है, सुरक्षा बलों को सहायता मिल रही है." - वाईएस रमेश, डीआईजी, पलामू रेंज

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1966-67 में नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैला. अविभाजित बिहार में पलामू के इलाकों को नक्सल आंदोलन का पहला अड्डा बनाया गया. 1984 में अविभाजित बिहार में नक्सली हिंसा में पहली हत्या पलामू के मोहम्मदगंज में हुई थी, जबकि 1988-89 में पलामू के किता (वर्तमान में लातेहार का चंदवा) में पहला नरसंहार हुआ और 23 लोगों की जान चली गई.

पलामू में माओवादियों के खौफ की कहानी (Etv Bharat)

कैसा था माओवादियों का साम्राज्य?

2004 में देशभर के नक्सली संगठनों का आपस में विलय हुआ था. इस विलय के बाद माओवादियों ने अपना साम्राज्य और सत्ता कायम किया. माओवादी अपनी खुद की अदालत लगाते थे, जिसे जन अदालत भी कहा जाता था. विशाल जन अदालत में माओवादी हत्याएं करते थे और अपना फैसला सुनाते थे. 2015-16 तक पलामू में कई ऐसे थाने थे जहां जमीन विवाद से जुड़ी शिकायतें नहीं भेजी जाती थीं, ग्रामीण इलाकों में माओवादियों का दखल बड़े पैमाने पर था. एक फरमान के बाद ग्रामीण इलाके पूरी तरह बंद हो जाते थे और कोई वहां नहीं जा सकता था.

Maoists atrocities
ग्राफिक्स (Etv Bharat)

2008-09 में पलामू के मनातू थाना क्षेत्र के चक को माओवादियों ने डेढ़ साल तक नाकेबंदी कर रखा था. चक की बड़ी आबादी पलायन कर गई थी. चक के सरयू प्रसाद यादव बताते हैं कि माओवादियों ने भीड़ भरे बाजार में दो जवानों को गोली मार दी थी. वे कई दिनों तक खौफ में रहे, न कहीं आ सकते थे, न कहीं जा सकते थे. यह वह दौर थो जो खत्म हो चुका है.

नक्सली हिंसा के बाद कैसे बदली लोगों की सोच

2004-05 के बाद नक्सलियों ने हमलों के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया. माओवादियों के पास आधुनिक हथियार और विस्फोटक थे. 2007-08 में माओवादी हिंसा काफी बढ़ गई. माओवादी स्कूल भवनों और सरकारी भवनों को निशाना बना रहे थे. 2008 से 2013 के बीच अकेले माओवादियों ने पलामू प्रमंडल में 70 से ज्यादा स्कूल भवनों को उड़ा दिया. इस दौरान रेलवे पर 17 हमले हुए और एक ट्रेन को हाईजैक कर लिया गया. कई पुल-पुलिया उड़ा दिए गए. नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी में अंदरूनी दरार के बाद 2004-05 में टीएसपीसी और 2006-07 में जेजेएमपी का गठन हुआ. दोनों संगठनों के गठन के बाद कई खूनी खेल हुए. नक्सली संगठनों के बीच वर्चस्व की लड़ाई में ग्रामीण पिस रहे थे.

"यह वह दौर था जब काफी हिंसा होती थी. इस हिंसा से आम लोगों को काफी परेशानी होती थी. लोग स्कूल भवन और सड़क को क्षतिग्रस्त होते नहीं देखना चाहते थे. यहीं से लोगों के बीच माओवादियों या अन्य नक्सली संगठनों की पकड़ कमजोर पड़ने लगी." - सुरेंद्र यादव, पूर्व माओवादी

अब बदल गई स्थिति

ग्रामीण इलाकों में स्थिति बदल गई है, नक्सलवाद का दौर खत्म होता दिख रहा है. ग्रामीण इलाकों में बाजार लगने लगे हैं और बड़ी संख्या में पक्के मकान बन रहे हैं. पलामू के मनातू निवासी बुद्धेश्वर यादव कहते हैं कि पहले सड़क पर चलने में डर लगता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है, अब रात में कभी भी आ-जा सकते हैं. बूढ़ापहाड़ इलाके में रहने वाले इमामुद्दीन ने कहा कि पहले डर लगता था कि माओवादी बच्चों का अपहरण कर लेते हैं, लेकिन अब ऐसा नहीं है. गांव से बाहर जाने के बाद जब वापस लौटते थे तो पुलिस का एजेंट बताकर उनकी पिटाई की जाती थी. पुलिस का एजेंट बताकर बड़ी संख्या में ग्रामीणों की पिटाई की गई है. उनका कहना है कि अब खौफ का वह दौर खत्म हो गया है.

Maoists atrocities
ग्राफिक्स (Etv Bharat)

कैसे कमजोर हुए नक्सली?

पिछले एक दशक में सुरक्षा बलों को नक्सली संगठनों के खिलाफ बड़ी सफलता मिली है. सुरक्षाबलों ने एक नीति तय की और नक्सली इलाकों में पिकेट बनाने शुरू किए. धीरे-धीरे हालात बदले और नक्सली इलाकों में सुरक्षा बलों की गतिविधियां बढ़ने लगीं. पलामू प्रमंडल में सीआरपीएफ की पांच बटालियन तैनात की गईं और सुरक्षा बलों ने माओवादियों के सबसे सुरक्षित ठिकाने बूढ़ापहाड़ पर कब्जा कर लिया. इससे पहले सुरक्षा बलों ने माओवादियों के रेड कॉरिडोर पर 70 से ज्यादा कैंप बनाए थे जो बिहार के छकरबंधा से बूढ़ापहाड़ के बीच था. इस कॉरिडोर पर पांच से सात हजार जवान तैनात थे.

"पिछले कुछ सालों में हालात बदले हैं और सुरक्षा बलों को बड़ी सफलता मिली है. अभी भी कुछ नक्सली बचे हैं जिनके खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है. उनसे आत्मसमर्पण करने की अपील की जा रही है. पिछले कुछ सालों में जनता भी जागरूक हुई है, सुरक्षा बलों को सहायता मिल रही है." - वाईएस रमेश, डीआईजी, पलामू रेंज

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