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साल 2005 में ही मुख्यमंत्री बन गए होते हेमंत सोरेन, एक गलती के कारण 2013 तक करना पड़ा इंतजार, स्टीफन बने थे बैरियर - Jharkhand Assembly Election

CM Hemant Soren. साल 2005 में ही हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री बन गए होते लेकिन एक गलती के कारण 2013 तक उन्हें इंतजार करना पड़ा. उनकी इस राह में उन्हीं की पार्टी के नेता रहे स्टीफन मरांडी बैरियर बन गए थे.

CM Hemant Soren
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By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : Sep 25, 2024, 4:27 PM IST

रांची: झारखंड की राजनीति में अब बहुमत की बात होती है. एक दौर था, जब यहां अल्पमत की सरकारें चलती थीं. आए दिन सरकारें बनतीं थी और गिरती थीं. साल 2005 के चुनाव में फ्रैक्चर्ड मैनडेट के कारण झारखंड की राजनीति इस कदर डिरेल हुई कि उसे पटरी पर आने में नौ साल लग गए. शिबू सोरेन को मौका मिला था लेकिन बहुमत नहीं जुटा पाए और 9 दिन में ही उन्हें सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी.

उनकी जगह अर्जुन मुंडा ने 12 मार्च 2005 से 18 सितंबर 2006 तक सरकार चलायी. लेकिन निर्दलीयों की महत्वकांक्षा के आगे अर्जुन मुंडा भी बेबस हो गये. अस्थिरता की आड़ में निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा के सिर मुख्यमंत्री का सेहरा सजा था. आज भी इस बात की चर्चा होती है कि अगर 2005 का चुनाव हेमंत सोरेन जीते होते तो शायद गुरूजी की जगह उनको सीएम बनने का मौका मिला होता. लेकिन राजनीतिक अपरिवक्वता और ओवर कांफिडेंस के शिकार हो गये.

2005 में गलतफहमी के शिकार हुए थे हेमंत सोरेन

2005 तक हेमंत सोरेन राजनीति में सक्रिय हो गए थे. उनकी नजर झामुमो की परंपरागत सीट दुमका पर थी. तब तक दुमका में झामुमो का झंडा पार्टी के कद्दावर नेता रहे स्टीफन मरांडी की हाथों में था. स्टीफन मरांडी 1980 से 2000 तक हुए पांच विधानसभा चुनावों में दुमका सीट से झामुमो की टिकट पर जीतते आ रहे थे. लिहाजा, हेमंत सोरेन को विधानसभा की चौखट तक पहुंचने के लिए इससे बेहतर और मुफीद सीट कोई और नहीं दिखी. लेकिन हेमंत के इस राह में स्टीफन मरांडी बड़ा रोड़ा थे.

लिहाजा 2005 के चुनाव में झामुमो ने स्टीफन का टिकट काट दिया. हेमंत इस बात को लेकर कांफिडेंट थे कि दुमका के लोग उनके पिता यानी गुरूजी के नाम पर उन्हें सिर आंखों पर बिठाएंगे. लेकिन अपमान की आग में जल रहे स्टीफन मरांडी ने दुमका सीट से बतौर निर्दलीय ताल ठोक दी थी. 27 फरवरी 2005 को जब नतीजा आया तो हेमंत सोरेन की गलतफहमी दूर हो गई. उन्हें अपने पिता के करीबी और झामुमो के पुराने सिपहसलार से करारी शिकस्त मिली थी. इस चुनाव में हेमंत तीसरे स्थान पर आ गए थे.

अच्छी बात थी कि 2005 की गलती से हेमंत सोरेन सबक ले चुके थे. उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता के दौर में दुमका में अपनी पकड़ बनायी और 2009 में हुए चुनाव में भाजपा की लुईस मरांडी को 2,669 वोट के अंतर से हराकर विधानसभा में दस्तक दी. उस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी रहे स्टीफन मरांडी तीसरे स्थान पर थे. इस हार से स्टीफन मरांडी समझ गये थे कि राजनीति में व्यक्ति नहीं पार्टी बड़ी होती है. पांच साल तक संघर्ष के बाद उन्हें गुरुजी के सानिध्य में आना पड़ा. तब से 2014 और 2019 के चुनाव में महेशपुर से झामुमो के विधायक हैं.

हेमंत को गवानी पड़ी दुमका की सीट

2009 में यह पहला मौका था जब झामुमो के गढ़ में भाजपा जीत के इतना करीब पहुंच चुकी थी. शायद यही वजह रही कि 2014 के चुनाव में मुख्यमंत्री होने के बाद भी हेमंत सोरेन को दुमका के साथ-साथ बरहेट सीट पर उतरना पड़ा. उनका यह फैसला सही साबित हुआ क्योंकि पहली बार लुईस मरांडी दुमका विधानसभा क्षेत्र में कमल खिलाने में सफल हुईं. सीएम रहते दुमका सीट हार गये थे हेमंत. इस बड़ी उपलब्धि के लिए लुईस मरांडी को रघुवर कैबिनेट में जगह भी मिली.

खास बात रही कि हर हार के बाद हेमंत सोरेन मजबूत होकर सामने आए. 2019 के चुनाव में भी उन्होंने बरहेट के अलावा दुमका सीट से ताल ठोका और लुईंस मरांडी से 2014 की हार का बदला ले लिया. बाद में यह सीट अपने अनुज बसंत सोरेन को हैंडओवर कर दी. दुमका में 2020 में उपचुनाव हुआ और बसंत सोरेन झामुमो का झंडा लहराने में सफल रहे.

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उनकी जगह अर्जुन मुंडा ने 12 मार्च 2005 से 18 सितंबर 2006 तक सरकार चलायी. लेकिन निर्दलीयों की महत्वकांक्षा के आगे अर्जुन मुंडा भी बेबस हो गये. अस्थिरता की आड़ में निर्दलीय विधायक मधु कोड़ा के सिर मुख्यमंत्री का सेहरा सजा था. आज भी इस बात की चर्चा होती है कि अगर 2005 का चुनाव हेमंत सोरेन जीते होते तो शायद गुरूजी की जगह उनको सीएम बनने का मौका मिला होता. लेकिन राजनीतिक अपरिवक्वता और ओवर कांफिडेंस के शिकार हो गये.

2005 में गलतफहमी के शिकार हुए थे हेमंत सोरेन

2005 तक हेमंत सोरेन राजनीति में सक्रिय हो गए थे. उनकी नजर झामुमो की परंपरागत सीट दुमका पर थी. तब तक दुमका में झामुमो का झंडा पार्टी के कद्दावर नेता रहे स्टीफन मरांडी की हाथों में था. स्टीफन मरांडी 1980 से 2000 तक हुए पांच विधानसभा चुनावों में दुमका सीट से झामुमो की टिकट पर जीतते आ रहे थे. लिहाजा, हेमंत सोरेन को विधानसभा की चौखट तक पहुंचने के लिए इससे बेहतर और मुफीद सीट कोई और नहीं दिखी. लेकिन हेमंत के इस राह में स्टीफन मरांडी बड़ा रोड़ा थे.

लिहाजा 2005 के चुनाव में झामुमो ने स्टीफन का टिकट काट दिया. हेमंत इस बात को लेकर कांफिडेंट थे कि दुमका के लोग उनके पिता यानी गुरूजी के नाम पर उन्हें सिर आंखों पर बिठाएंगे. लेकिन अपमान की आग में जल रहे स्टीफन मरांडी ने दुमका सीट से बतौर निर्दलीय ताल ठोक दी थी. 27 फरवरी 2005 को जब नतीजा आया तो हेमंत सोरेन की गलतफहमी दूर हो गई. उन्हें अपने पिता के करीबी और झामुमो के पुराने सिपहसलार से करारी शिकस्त मिली थी. इस चुनाव में हेमंत तीसरे स्थान पर आ गए थे.

अच्छी बात थी कि 2005 की गलती से हेमंत सोरेन सबक ले चुके थे. उन्होंने राजनीतिक अस्थिरता के दौर में दुमका में अपनी पकड़ बनायी और 2009 में हुए चुनाव में भाजपा की लुईस मरांडी को 2,669 वोट के अंतर से हराकर विधानसभा में दस्तक दी. उस चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी रहे स्टीफन मरांडी तीसरे स्थान पर थे. इस हार से स्टीफन मरांडी समझ गये थे कि राजनीति में व्यक्ति नहीं पार्टी बड़ी होती है. पांच साल तक संघर्ष के बाद उन्हें गुरुजी के सानिध्य में आना पड़ा. तब से 2014 और 2019 के चुनाव में महेशपुर से झामुमो के विधायक हैं.

हेमंत को गवानी पड़ी दुमका की सीट

2009 में यह पहला मौका था जब झामुमो के गढ़ में भाजपा जीत के इतना करीब पहुंच चुकी थी. शायद यही वजह रही कि 2014 के चुनाव में मुख्यमंत्री होने के बाद भी हेमंत सोरेन को दुमका के साथ-साथ बरहेट सीट पर उतरना पड़ा. उनका यह फैसला सही साबित हुआ क्योंकि पहली बार लुईस मरांडी दुमका विधानसभा क्षेत्र में कमल खिलाने में सफल हुईं. सीएम रहते दुमका सीट हार गये थे हेमंत. इस बड़ी उपलब्धि के लिए लुईस मरांडी को रघुवर कैबिनेट में जगह भी मिली.

खास बात रही कि हर हार के बाद हेमंत सोरेन मजबूत होकर सामने आए. 2019 के चुनाव में भी उन्होंने बरहेट के अलावा दुमका सीट से ताल ठोका और लुईंस मरांडी से 2014 की हार का बदला ले लिया. बाद में यह सीट अपने अनुज बसंत सोरेन को हैंडओवर कर दी. दुमका में 2020 में उपचुनाव हुआ और बसंत सोरेन झामुमो का झंडा लहराने में सफल रहे.

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