शहडोल। क्रिकेट की पिच हो या सियासी पिच बाजी कभी भी पलट सकती है. लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है और पहले चरण का चुनाव 19 अप्रैल को होने जा रहा है. जिसके लिए सभी पार्टियों ने तैयारियां भी तेज कर दी है. प्रत्याशियों के नाम के ऐलान हो चुके हैं. नामांकन फॉर्म भरने का दौर भी शुरू हो चुका है. बड़े-बड़े नेताओं के आने जाने का सिलसिला भी शुरू है. मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र के शहडोल लोकसभा सीट में भी पहले ही चरण में वोटिंग होनी है. शहडोल लोकसभा सीट ऐतिहासिक सीटों में से एक है, क्योंकि यहां पर बड़े-बड़े दिग्गज नेता भी चुनाव लड़ चुके हैं. यहां की जनता का मूड कोई नहीं भांप पाया है, क्योंकि बड़े-बड़े नेताओं को भी यहां से हार का सामना करना पड़ा है. लोकसभा चुनाव के इस रण में आज बात करेंगे दिग्गज नेता अजीत जोगी की. जिनका नाम शहडोल लोकसभा सीट से भी अक्सर जुड़ता है. फिर यहां से हारने के बाद कैसे वो मुख्यमंत्री बनते हैं, ये कहानी भी बड़ी दिलचस्प है.
जहां रहे कलेक्टर, वहीं से हारे चुनाव
अजीत जोगी भले ही अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन भारतीय राजनीति में उनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है. उन्हें राजनीति का चाणक्य कहा जाए तो गलत नहीं होगा. अजीत जोगी कभी शहडोल जिले के कलेक्टर हुआ करते थे. 1976-78 के बीच मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य शहडोल जिले के कलेक्टर अजीत जोगी रहे. जिनकी छवि तेजतर्रार और सख्त कलेक्टर की थी. फिर 1999 में उन्होंने शहडोल जिले से मध्यवर्ती लोकसभा चुनाव भी लड़ा था. जिसमें उन्हें करारी शिकस्त मिली थी.
हार की रही कई वजह
शहडोल जिला आदिवासी बहुल जिला है.तब यह जिला बहुत बड़ा हुआ करता था, क्योंकि जब अजीत जोगी इस जिले के कलेक्टर हुआ करते थे. तब शहडोल में उमरिया जिला और अनूपपुर जिले भी शामिल थे. उस दौरान अजीत जोगी शहडोल जिले के कलेक्टर हुआ करते थे. अजीत जोगी काफी सख्त मिजाज के कलेक्टर थे. लोगों के कामों को काफी तेजी से निपटाया करते थे. आदिवासियों के बीच उनकी एक अलग छवि थी. ऐंताझर, पडमनिया गांव के ग्रामीण बताते हैं कि आदिवासियों के बीच उनकी अच्छी पैठ थी. आदिवासी वर्ग उन्हें काफी मानता था. इसके बाद भी उन्हें लोकसभा चुनाव में इस आदिवासी बाहुल्य सीट से क्यों हार का सामना करना पड़ा, इसे लेकर हमने कई राजनीतिक नेताओं से बात की. जिसमें कई बातें निकलकर सामने आई.
कुछ लोगों का कहना है की अजीत जोगी को शहडोल लोकसभा से जब कांग्रेस ने चुनाव लड़ाया, तो उस समय के दिग्गज कांग्रेसी नेता दलबीर सिंह की टिकट काटकर उन्हें चुनावी मैदान पर उतारा गया था. जबकि दलबीर सिंह नरसिम्हा राव सरकार में वित्त राज्य मंत्री भी रह चुके थे. कई बार सांसद भी रहे, ऐसे में कांग्रेस ने जब अजीत जोगी को टिकट दिया, तो दलबीर सिंह गुट ने इसका विरोध कर दिया. दलवीर सिंह गुट का असहयोग इस चुनाव में जोगी पर भारी पड़ गया. इसके अलावा अजीत जोगी बाहर से आए हुए थे, तो उनमें बाहरी होने का टैग भी लगा दिया गया था. एक नारा भी उस समय चलाया गया था, कि "देश में विदेशी और जिले में परदेसी" नहीं चलेगा और यही नारा काम कर गया. अजीत जोगी को हार का सामना करना पड़ा. जिसमें कांग्रेस संगठन में आपसी फूट, असहयोग और बाहरी होना उनके हार की बड़ी वजह रही.
शहडोल में हारे, और यहां मुख्यमंत्री बने
अजीत जोगी को शहडोल लोकसभा सीट से हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद ऐसा माना जाने लगा था कि अजीत जोगी की राजनीति अब हासिए पर चली जाएगी, लेकिन जब साल 2000 में मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ नए राज्य का निर्माण किया गया. उस दौरान अजीत जोगी ने सियासी पिच पर ऐसी गेंद टर्न कराई कि उस घूमती गेंद में सभी कांग्रेसी दिग्गज नेता चकमा खा गए. अजीत जोगी नए प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए. अजीत जोगी साल 2000 से 2003 के बीच छत्तीसगढ़ राज्य के पहले मुख्यमंत्री रहे.
कलेक्टर रहते किये थे कई काम
अजीत जोगी 1976-78 के बीच मध्य प्रदेश के आदिवासी बाहुल्य शहडोल जिले में जब कलेक्टर रहे, तब इस जिले में उनकी छवि एक कड़क और तेजतर्रार कलेक्टर की थी. वह लोगों की शिकायतों को बहुत तेजी से निपटाते थे. वो किस तरह से काम करते थे. इसे ऐसे समझ जा सकता है कि 1977 की बात है, शहडोल जिला मुख्यालय से लगभग 12 किलोमीटर दूर ऐंताझर गांव है. वहां के ग्रामीण बताते हैं की एक बार अजीत जोगी कलेक्टर रहते स्कूल के फंक्शन में आए थे. उस फंक्शन में उन्हें महुआ से बना एक व्यंजन खिलाया गया था. जो उन्हें काफी पसंद आया था. उसके बाद वो इतने खुश हुए की उन आदिवासियों को कहा कि आप इस व्यंजन को खाया करो यह पौष्टिक होता है. इसके बाद आदिवासियों ने बोला उनके पास ना तो जमीन है ना महुआ का पेड़ है.
इस पर अजीत जोगी ने वहीं पर घोषणा कर दी थी, कि सरकारी जमीन पर जितने भी महुआ के पेड़ हैं. उन्हें उन आदिवासियों के नाम कर दिए जाएं. जिनके पास जमीन नहीं हैं. कुछ दिनों में ही कागजी कार्रवाई भी पूरी कर दी गई. अजीत जोगी ने जिले की कई सरकारी जमीन भी उन आदिवासियों के नाम कर दी थी, जो जंगलों के आसपास थी. जिन पर खेती की जा सकती थी. इसी से अंदाजा लगा सकते हैं कि आदिवासियों के मन में अजीत जोगी के प्रति कितना प्रेम था. आदिवासी कितना अजीत जोगी को मानते थे और आदिवासियों के लिए अजीत जोगी कितना काम करते थे, लेकिन फिर भी इस आदिवासी बाहुल्य लोकसभा सीट से अजीत जोगी को लोकसभा चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, क्योंकि जनता का मूड कब बदल जाए कोई नहीं जानता है.
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इस बार कांग्रेस ने खेला है इस नेता पर दांव
हर कोई जानता है कि शहडोल लोकसभा सीट में कब किसकी जीत हो जाए, कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यहां जनता का मूड कभी भी बदल सकता है. कांग्रेस ने इस बार इस आदिवासी लोकसभा सीट में अपने सबसे बड़े तुरुप के इक्के पर दांव खेला है. अपने एक ऐसे नेता को शहडोल लोकसभा सीट से चुनावी मैदान पर उतारा है, जो खुद भी सुर्खियों में रहते हैं. कभी अपने पहनावे को लेकर कभी अपने बयानों को लेकर तो कभी अपनी सिंपलीसिटी को लेकर. कांग्रेस ने शहडोल लोकसभा सीट से फुंदेलाल मार्को को टिकट दिया है.
फुंदेलाल वो आदिवासी नेता हैं. जो मोदी लहर के बीच में भी अभी हाल ही में शहडोल संभाग के अनूपपुर जिले के पुष्पराजगढ़ विधानसभा सीट से जीत की हैट्रिक लगाने में कामयाब रहे हैं. बता दें कि ये वही विधानसभा सीट है, जो वर्तमान में बीजेपी सांसद और प्रत्याशी हिमाद्री सिंह का गृह नगर वाला क्षेत्र है. फिर भी कांग्रेस के फुंदेलाल मार्को पिछले तीन बार से इस विधानसभा सीट से लगातार जीत रहे हैं. ऐसे में इस बार कांग्रेस ने अपने इस नेता को लोकसभा चुनावी मैदान में उतार दिया है. अब देखना दिलचस्प होगा कि आदिवासियों के बीच अच्छी पकड़ रखने वाले, फुन्देलाल सिंह मार्को लोकसभा चुनाव में क्या कमाल करते हैं. अजीत जोगी की तरह इन्हें भी हार का सामना करना पड़ता है, या फिर मोदी मैजिक को चुनौती देते हुए फुंदेलाल मार्को कोई नया कारनामा कर जाते हैं, देखना दिलचस्प होगा.