देहरादून (उत्तराखंड): उत्तराखंड में आज मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को उच्च कमेटी ने समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) पर अपना फाइनल ड्राफ्ट बनाकर सौंप दिया है. अब आगामी 6 फरवरी को राज्य सरकार इसे विधानसभा में प्रस्तुत करेगी और फिर इसे लागू करवाए जाने की औपचारिकताएं पूरी की जाएंगी. यूसीसी यानि समान नागरिक संहिता को लेकर कई लोगों में अभी भी भ्रम की स्थिति है, लिहाजा इन सभी पहलुओं को जानने और यूनिफॉर्म सिविल कोड को ज्यादा अच्छे से समझने के लिए हमने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और संविधान के जानकार अश्विनी उपाध्याय से बातचीत की.
वरिष्ठ अधिवक्ता और संविधान विशेषज्ञ अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि, हमारा भारत देश बाइबिल या कुरान से नहीं बल्कि संविधान से चलता है. संविधान (सम+विधान) का अर्थ है- ऐसा विधान जो सब पर समान रूप से लागू हो, बेटा हो या बेटी, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई. मां के पेट में बच्चा नौ महीने ही रहता है और प्रसव पीड़ा भी बेटा-बेटी के लिए एक समान होती है. इससे स्पष्ट है कि महिला-पुरुष में भेदभाव भगवान, खुदा या जीसस ने नहीं बल्कि इंसान ने किया है.
संविधान से चलता है देश: आर्टिकल 14 के अनुसार हम सब समान हैं. आर्टिकल 15 जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को निषेध करता है. आर्टिकल 19 सभी नागरिकों को पूरे देश में कहीं पर भी जाने, रहने, बसने और रोजगार शुरू करने का अधिकार देता है. संविधान को यथारूप पढ़ने से स्पष्ट है कि समता, समानता, समरसता, समान अवसर और समान अधिकार भारतीय संविधान की आत्मा हैं. कुछ लोग आर्टिकल 25 में प्रदत्त धार्मिक आजादी की दुहाई देकर 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का विरोध करते हैं. लेकिन वास्तव में ऐसे लोग समाज को गुमराह कर रहे हैं. आर्टिकल 25 की तो शुरुआत ही होती है- 'सब्जेक्ट टू पब्लिक ऑर्डर, हेल्थ एंड मोरैलिटी' अर्थात रीति और प्रथा का पालन करने का अधिकार है, लेकिन किसी भी प्रकार की 'कुप्रथा, कुरीति, पाखंड और भेदभाव' को आर्टिकल 25 का संरक्षण प्राप्त नहीं है.
पहले UCC लागू करने के नहीं हुए गंभीर प्रयास: उपाध्याय बताते हैं कि, अंग्रेजों द्वारा 1860 में बनाई गई भारतीय दंड संहिता, 1961 में बनाया गया पुलिस एक्ट, 1872 में बनाया गया एविडेंस एक्ट और 1908 में बनाया गया सिविल प्रोसीजर कोड सहित सभी कानून बिना किसी भेदभाव के सभी भारतीयों पर समान रूप से लागू हैं. पुर्तगालियों द्वारा 1867 में बनाया गया पुर्तगाल सिविल कोड भी गोवा के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू है. लेकिन विस्तृत चर्चा के बाद बनाया गया आर्टिकल 44 अर्थात समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किया गया और एक ड्राफ्ट भी नहीं बनाया गया.
उन्होंने बताया कि, अब तक 125 बार संविधान में संशोधन किया जा चुका है और 5 बार तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी पलट दिया गया, लेकिन 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक मसौदा भी नहीं तैयार किया गया. परिणाम स्वरूप इससे होने वाले लाभ के बारे में बहुत कम लोगों को ही पता है. समान नागरिक संहिता शुरू से भाजपा के मेनिफेस्टो में है, इसलिए भाजपा समर्थक इसका समर्थन करते हैं और भाजपा विरोधी इसका विरोध करते हैं. लेकिन सच्चाई तो यह है कि समान नागरिक संहिता के लाभ के बारे में न तो इसके अधिकांश समर्थकों को पता है और न तो इसके विरोधियों को. इसलिए समान नागरिक संहिता का एक ड्राफ्ट तत्काल बनाना नितांत आवश्यक है.
समान नागरिक संहिता लागू नहीं होने से अनेक समस्याएं हैं-
- मुस्लिम पर्सनल लॉ में बहुविवाह करने की छूट है, लेकिन अन्य धर्मों में 'एक पति-एक पत्नी' का नियम बहुत कड़ाई से लागू है. बांझपन या नपुंसकता जैसा उचित कारण होने पर भी हिंदू, ईसाई, पारसी के लिए दूसरा विवाह अपराध है और IPC की धारा 494 में 7 वर्ष की सजा का प्रावधान है. इसलिए कई लोग दूसरा विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म अपना लेते हैं. भारत जैसे सेक्युलर देश में चार निकाह जायज हैं, जबकि इस्लामिक देश पाकिस्तान में पहली बीवी की इजाजत के बिना शौहर दूसरा निकाह नहीं कर सकता है. 'एक पति-एक पत्नी' किसी भी प्रकार से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि "सिविल राइट, ह्यूमन राइट और राइट टू डिग्निटी" का मामला है. इसलिए यह जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए.
- विवाह की न्यूनतम उम्र भी सबके लिए समान नहीं है. मुस्लिम लड़कियों की वयस्कता की उम्र निर्धारित नहीं है और माहवारी शुरू होने पर लड़की को निकाह योग्य मान लिया जाता है. इसलिए 9 वर्ष की उम्र में भी लड़कियों का निकाह किया जाता है. जबकि अन्य धर्मों में लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष और लड़कों की विवाह की न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है. विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार कह चुका कि 20 वर्ष से पहले लड़की शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होती है और 20 वर्ष से पहले गर्भधारण करना जच्चा-बच्चा दोनों के लिए अत्यधिक हानिकारक है. लड़का हो या लड़की, 20 वर्ष से पहले दोनों ही मानसिक रूप से परिपक्व नहीं होते हैं. 20 वर्ष से पहले तो बच्चे ग्रेजुएशन भी नहीं कर पाते हैं और 20 वर्ष से पहले बच्चे आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर नहीं होते हैं. इसलिए विवाह की न्यूनतम उम्र सबके लिए एक समान 21 वर्ष करना आवश्यक है. 'विवाह की न्यूनतम उम्र' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है. इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल और रिलिजन न्यूट्रल होना चाहिए.
- तीन तलाक अवैध घोषित होने के बावजूद तलाक-ए-हसन एवं तलाक-ए-अहसन आज भी मान्य हैं. इसमें भी तलाक का आधार बताने की बाध्यता नहीं है और केवल 3 महीने प्रतीक्षा करना है. लेकिन अन्य धर्मों में केवल न्यायालय के माध्यम से ही विवाह-विच्छेद किया जा सकता है. हिंदू, ईसाई, पारसी दंपति आपसी सहमति से भी मौखिक विवाह विच्छेद की सुविधा से वंचित हैं. मुसलमानों में प्रचलित तलाक का न्यायपालिका के प्रति जवाबदेही नहीं होने के कारण मुस्लिम बेटियों को हमेशा भय के वातावरण में रहना पड़ता है. तुर्की जैसे मुस्लिम बाहुल्य देश में भी किसी तरह का मौखिक तलाक मान्य नहीं है. इसलिए तलाक का आधार भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए.
- मुस्लिम कानून में मौखिक वसीयत एवं दान मान्य है, लेकिन अन्य धर्मों में केवल पंजीकृत वसीयत एवं दान ही मान्य है. मुस्लिम कानून में एक-तिहाई से अधिक संपत्ति की वसीयत नहीं की जा सकती है, जबकि अन्य धर्मों में शत प्रतिशत संपत्ति की वसीयत की जा सकताी है. वसीयत और दान किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं हैं, बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट के मामले हैं. इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए.
- मुस्लिम कानून में 'उत्तराधिकार' की व्यवस्था अत्यधिक जटिल है. पैतृक संपत्ति में पुत्र एवं पुत्रियों के मध्य अत्यधिक भेदभाव है. अन्य धर्मों में भी विवाह के बाद अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं और उत्तराधिकार के कानून बहुत जटिल हैं. विवाह के बाद पुत्रियों के पैतृक संपत्ति में अधिकार सुरक्षित रखने की व्यवस्था नहीं है. शादी के बाद अर्जित संपत्ति में पत्नी के अधिकार अपरिभाषित हैं. 'उत्तराधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं हैं, बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है. इसलिए यह भी जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए.
- विवाह विच्छेद यानी तलाक का आधार भी सबके लिए एक समान नहीं है. व्यभिचार के आधार पर मुस्लिम अपनी बीवी को तलाक दे सकता है, लेकिन बीवी अपने शौहर को तलाक नहीं दे सकती है. हिंदू, पारसी और ईसाई धर्म में तो व्यभिचार तलाक का ग्राउंड ही नहीं है. कोढ़ जैसी लाइलाज बीमारी के आधार पर हिंदू और ईसाई धर्म में तलाक हो सकता है, लेकिन पारसी और मुस्लिम धर्म में नहीं. कम उम्र में विवाह के आधार पर हिंदू धर्म में विवाह विच्छेद हो सकता है, लेकिन पारसी, ईसाई और मुस्लिम में यह संभव नहीं है. 'विवाह विच्छेद' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है. इसलिए यह भी पूरी तरह से जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए.
- गोद लेने का नियम भी हिंदू, मुस्लिम, पारसी और ईसाइयों के लिए अलग अलग है. मुस्लिम महिला गोद नहीं ले सकती है और अन्य धर्मों में भी पुरुष प्रधानता के साथ गोद लेने की व्यवस्था लागू है. 'गोद लेने का अधिकार' किसी भी तरह से धार्मिक या मजहबी विषय नहीं है, बल्कि सिविल राइट और ह्यूमन राइट का मामला है. इसलिए यह भी पूरी तरह जेंडर न्यूट्रल रिलिजन न्यूट्रल और सबके लिए यूनिफॉर्म होना चाहिए.
- विवाह की न्यूनतम उम्र, विवाह विच्छेद (तलाक) का आधार, गुजारा भत्ता, गोद लेने का नियम, विरासत का नियम और संपत्ति का अधिकार सहित उपरोक्त सभी विषय सिविल राइट से संबंधित हैं, जिनका न तो मजहब से किसी तरह का संबंध है और न तो इन्हें धार्मिक या मजहबी व्यवहार कहा जा सकता है. लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी मजहब के नाम पर महिला-पुरुष में भेदभाव जारी है. हमारे संविधान निर्माताओं ने अनुच्छेद 44 के माध्यम से 'समान नागरिक संहिता' की कल्पना की थी ताकि सबको समान अधिकार और समान अवसर मिलें और देश की एकता अखंडता मजबूत हो. लेकिन वोट बैंक राजनीति के कारण 'समान नागरिक संहिता या भारतीय नागरिक संहिता' का एक ड्राफ्ट भी नहीं बनाया गया.
समान नागरिक संहिता हमारे संविधान की आत्मा है और इसके एक नहीं अनेक लाभ हैं:-
- भारतीय दंड संहिता की तर्ज पर देश के सभी नागरिकों के लिए एक भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से देश और समाज को सैकड़ों जटिल, बेकार और पुराने कानूनों से मुक्ति मिलेगी.
- अलग-2 धर्मों के लिए लागू अलग-2 ब्रिटिश कानूनों से सबके मन में हीन भावना व्याप्त है. इसलिए सबके लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू होने से हीन भावना से मुक्ति मिलेगी.
- 'एक पति-एक पत्नी' का नियम सब पर समान रूप से लागू होगा और बांझपन या नपुंसकता जैसे अपवाद का लाभ एक समान रूप से मिलेगा, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
- विवाह-विच्छेद का एक सामान्य नियम सबके लिए लागू होगा. विशेष परिस्थितियों में मौखिक तरीके से विवाह विच्छेद की अनुमति भी सभी को होगी, चाहे वह पुरुष हो या महिला, हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
- पैतृक संपति में पुत्र-पुत्री तथा बेटा-बहू को एक समान अधिकार प्राप्त होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और संपत्ति को लेकर धर्म जाति क्षेत्र और लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.
- विवाह-विच्छेद की स्थिति में विवाहोपरांत अर्जित संपत्ति में पति-पत्नी को समान अधिकार होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
- वसीयत, दान, धर्मजत्व संरक्षकता, बंटवारा, गोद के संबंध में सभी पर एक समान कानून लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई और धर्म जाति क्षेत्र लिंग आधारित विसंगति समाप्त होगी.
- राष्ट्रीय स्तर पर एक समग्र एवं एकीकृत कानून मिल सकेगा और सभी नागरिकों के लिए समान रूप से लागू होगा, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, पारसी हो या ईसाई.
- जाति धर्म क्षेत्र के आधार पर अलग-अलग कानून होने से पैदा होने वाली अलगाववादी मानसिकता समाप्त होगी और एक अखंड राष्ट्र के निर्माण की दिशा में हम तेजी से आगे बढ़ सकेंगे.
- अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग कानून होने के कारण अनावश्यक मुकदमे में उलझना पड़ता है. सबके लिए एक नागरिक संहिता होने से न्यायालय का बहुमूल्य समय बचेगा.
- भारतीय नागरिक संहिता लागू होने से रूढ़िवाद, कट्टरवाद, सम्प्रदायवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद समाप्त होगा. वैज्ञानिक सोच विकसित होगी तथा बेटियों के अधिकारों मे भेदभाव खत्म होगा. सच्चाई तो यह है कि इसका फायदा बेटियों को ज्यादा नहीं मिलेगा, क्योंकि हिंदू मैरिज एक्ट में महिला-पुरुष को लगभग समान अधिकार पहले से ही प्राप्त हैं. इसका सबसे ज्यादा फायदा मुस्लिम बेटियों को मिलेगा, क्योंकि शरिया कानून में उन्हें पुरुषों के बराबर नहीं माना जाता है.
नीति निर्देशक सिद्धांत लागू करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी: अश्विनी उपाध्याय बताते हैं, आर्टिकल 37 में स्पष्ट रूप से लिखा है कि नीति निर्देशक सिद्धांतों को लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है. जिस प्रकार संविधान का पालन करना सभी नागरिकों की फंडामेंटल ड्यूटी है, उसी प्रकार संविधान को शत प्रतिशत लागू करना सरकार की फंडामेंटल ड्यूटी है. किसी भी सेक्युलर देश में धार्मिक आधार पर अलग-अलग कानून नहीं होता है. लेकिन हमारे यहां आज भी हिंदू मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एक्ट और ईसाई मैरिज एक्ट लागू हैं. जब तक भारतीय नागरिक संहिता लागू नहीं होगी, तब तक भारत को सेक्युलर कहना सेक्युलर शब्द को गाली देना है. यदि गोवा के सभी नागरिकों के लिए एक 'समान नागरिक संहिता' लागू हो सकती है, तो देश के सभी नागरिकों के लिए एक 'भारतीय नागरिक संहिता' क्यों नहीं लागू हो सकती है?
नासमझ कर रहे हैं विरोध: समान नागरिक संहिता लागू होने से आर्टिकल 25 के अंतर्गत प्राप्त मूलभूत धार्मिक अधिकार जैसे पूजा, नमाज या प्रार्थना करने, व्रत या रोजा रखने तथा मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारा का प्रबंधन करने या धार्मिक स्कूल खोलने, धार्मिक शिक्षा का प्रचार प्रसार करने या विवाह-निकाह की कोई भी पद्धति अपनाने या मृत्यु पश्चात अंतिम संस्कार के लिए कोई भी तरीका अपनाने में किसी भी तरह का हस्तक्षेप नहीं होगा. जिस दिन 'भारतीय नागरिक संहिता' का एक ड्राफ्ट बनाकर सार्वजनिक कर दिया जाएगा और आम जनता विशेषकर बहन-बेटियों को इसके लाभ के बारे में पता चल जाएगा, उस दिन कोई भी इसका विरोध नहीं करेगा. उपाध्याय कहते हैं, सच तो यह है कि जो लोग समान नागरिक संहिता के बारे में कुछ नहीं जानते हैं वे ही इसका विरोध कर रहे हैं.
जाति धर्म भाषा क्षेत्र और लिंग आधारित अलग-अलग कानून 1947 के विभाजन की बुझ चुकी आग में सुलगते हुए धुएं की तरह हैं जो विस्फोटक होकर देश की एकता को कभी भी खंडित कर सकते हैं. इसलिए इन्हें समाप्त कर एक 'भारतीय नागरिक संहिता' लागू करना न केवल धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए बल्कि देश की एकता-अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए भी अति आवश्यक है. दुर्भाग्य से 'भारतीय नागरिक संहिता' को हमेशा तुष्टीकरण के चश्मे से देखा जाता रहा है.
सुप्रीम कोर्ट की अपनी सीमाएं: अश्विनी उपाध्याय बताते हैं कि, सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार से कानून बनाने के लिए तो नहीं कह सकता है, लेकिन वह अपनी भावना व्यक्त कर सकता है और बार-बार यही कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट समान नागरिक संहिता का ड्राफ्ट तैयार करने के लिए जुडिशियल कमीशन या एक्सपर्ट कमेटी बनाने का निर्देश दे सकता है जो विकसित देशों की समान नागरिक संहिता और भारत में लागू कानूनों का अध्ययन करे और उनकी अच्छाइयों को मिलाकर 'भारतीय नागरिक संहिता' का एक ड्राफ्ट तैयार कर सार्वजनिक करे, जिससे इस विषय पर सार्वजनिक चर्चा शुरू हो सके.
प्रभावी सिविल कोड हो लागू: वरिष्ठ अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय बताते हैं कि, विवाह की न्यूनतम उम्र, तलाक का आधार, गुजारा भत्ता, संपत्ति, विरासत और गोद लेने का नियम एक समान करने की मांग वाली उनकी जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में लंबित हैं. लेकिन गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय ने आज तक जवाब दाखिल नहीं किया. उनका व्यक्तिगत मत है कि कोर्ट के आदेश की प्रतीक्षा करने की बजाय सरकार को विकसित देशों की 'समान नागरिक संहिता' का अध्ययन कर दुनिया का सबसे अच्छा और प्रभावी 'सिविल कोड' लागू करना चाहिए.
बाबा साहेब ने क्या कहा था: बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था- व्यवहारिक रूप से इस देश में एक सिविल संहिता लागू है, जिसके प्रावधान सर्वमान्य हैं और समान रूप से पूरे देश में लागू हैं. केवल विवाह और उत्तराधिकार का क्षेत्र है जहां एक समान कानून लागू नहीं हैं. यह बहुत छोटा सा क्षेत्र है जिस पर हम समान कानून नहीं बना सके हैं. इसलिए हमारी इच्छा है कि अनुच्छेद 35 को संविधान का भाग बनाकर सकारात्मक बदलाव लाया जाए. यह आवश्यक नहीं है कि उत्तराधिकार के कानून धर्म द्वारा संचालित हों. धर्म को इतना विस्तृत और व्यापक क्षेत्र क्यों दिया जाए कि वह संपूर्ण जीवन पर कब्जा कर ले और विधायिका को इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने से रोके.
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