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सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी मामले में आरोपी को बरी किया - एससी एसटी की धारा हटाई

SC sets free man from SC ST Act : सुप्रीम कोर्ट ने एक आरोपी पर दर्ज एससी-एसटी की धाराएं हटा दी हैं. शीर्ष कोर्ट ने कहा कि अपराध ये सोचकर नहीं किया गया है कि वह अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की महिला से किया जा रहा है. ईटीवी भारत के वरिष्ठ संवाददाता सुमित सक्सेना की रिपोर्ट.

SC sets free man from SC ST Act
सुप्रीम कोर्ट
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jan 30, 2024, 8:48 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत आरोपित एक व्यक्ति की दोषसिद्धि को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि अधिनियम की भाषा में 'प्रावधान है कि अपराध अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर इस इरादे से किया जाना चाहिए कि यह जाति के आधार पर किया जा रहा है.'

न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1)(xi) के तहत अपीलकर्ता दशरथ साहू की सजा को रद्द कर दिया.

बेंच ने कहा कि 'एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (xi) की भाषा समान है क्योंकि इसमें यह भी प्रावधान है कि अपराध अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर इस इरादे से किया जाना चाहिए कि यह जाति के आधार पर किया जा रहा है.'

पीठ ने 'मसुमशा हसनशा मुसलमान बनाम महाराष्ट्र राज्य' (2000) मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला देते हुए कहा, 'शीर्ष अदालत ने एफआईआर और अभियोजक/शिकायतकर्ता की शपथपूर्ण गवाही की जांच की, जैसा कि उच्च न्यायालय के साथ-साथ ट्रायल कोर्ट के फैसलों में भी दिया गया है.'

पीठ ने कहा कि जैसा कि एफआईआर में पेश किया गया है और पीड़िता की शपथ ली गई गवाही से पता चलता है कि पीड़िता/शिकायतकर्ता आरोपी-अपीलकर्ता के घर में घरेलू काम करने के लिए लगी हुई थी, जिसने पीड़िता/शिकायतकर्ता के रहते हुए उसकी लज्जा भंग करने की कोशिश की थी.

बेंच ने कहा कि 'इस प्रकार स्पष्ट रूप से अभियोक्ता के उच्चतम आरोपों से भी अभियुक्त द्वारा आपत्तिजनक कृत्य इस इरादे से नहीं किया गया था कि वह अनुसूचित जाति से संबंधित व्यक्ति पर ऐसा कर रहा था.'

पीठ ने कहा कि 'धारा को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध इस इरादे से होना चाहिए कि पीड़िता अनुसूचित जाति वर्ग से है.' मामले में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सजा को एक वर्ष से घटाकर छह महीने कारावास कर दिया. भले ही अपीलकर्ता ने पीड़िता के साथ समझौता दायर किया था. उच्च न्यायालय ने कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध समझौता योग्य नहीं है, हालांकि, इसने आंशिक रूप से अपील की अनुमति दी और आरोपियों को आईपीसी की धारा 354 और 451 के तहत दंडनीय अपराधों से बरी कर दिया.

पीठ ने अपने 29 जनवरी के फैसले में कहा: 'हमारी राय है कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(xi) के तहत अपराध के लिए आरोपी अपीलकर्ता की सजा योग्यता के आधार पर अन्यथा भी टिकाऊ नहीं है. इसलिए एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(xi) के तहत अपराध के लिए ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज की गई और उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखी गई आरोपी अपीलकर्ता की सजा को रद्द कर दिया गया है. अपीलकर्ता को एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(xi) के तहत आरोप से बरी किया जाता है. अपीलार्थी जमानत पर है. उनके जमानत बांड खारिज कर दिए गए हैं.'

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत आरोपित एक व्यक्ति की दोषसिद्धि को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि अधिनियम की भाषा में 'प्रावधान है कि अपराध अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर इस इरादे से किया जाना चाहिए कि यह जाति के आधार पर किया जा रहा है.'

न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की धारा 3 (1)(xi) के तहत अपीलकर्ता दशरथ साहू की सजा को रद्द कर दिया.

बेंच ने कहा कि 'एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1) (xi) की भाषा समान है क्योंकि इसमें यह भी प्रावधान है कि अपराध अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति पर इस इरादे से किया जाना चाहिए कि यह जाति के आधार पर किया जा रहा है.'

पीठ ने 'मसुमशा हसनशा मुसलमान बनाम महाराष्ट्र राज्य' (2000) मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला देते हुए कहा, 'शीर्ष अदालत ने एफआईआर और अभियोजक/शिकायतकर्ता की शपथपूर्ण गवाही की जांच की, जैसा कि उच्च न्यायालय के साथ-साथ ट्रायल कोर्ट के फैसलों में भी दिया गया है.'

पीठ ने कहा कि जैसा कि एफआईआर में पेश किया गया है और पीड़िता की शपथ ली गई गवाही से पता चलता है कि पीड़िता/शिकायतकर्ता आरोपी-अपीलकर्ता के घर में घरेलू काम करने के लिए लगी हुई थी, जिसने पीड़िता/शिकायतकर्ता के रहते हुए उसकी लज्जा भंग करने की कोशिश की थी.

बेंच ने कहा कि 'इस प्रकार स्पष्ट रूप से अभियोक्ता के उच्चतम आरोपों से भी अभियुक्त द्वारा आपत्तिजनक कृत्य इस इरादे से नहीं किया गया था कि वह अनुसूचित जाति से संबंधित व्यक्ति पर ऐसा कर रहा था.'

पीठ ने कहा कि 'धारा को पढ़ने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपराध इस इरादे से होना चाहिए कि पीड़िता अनुसूचित जाति वर्ग से है.' मामले में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सजा को एक वर्ष से घटाकर छह महीने कारावास कर दिया. भले ही अपीलकर्ता ने पीड़िता के साथ समझौता दायर किया था. उच्च न्यायालय ने कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध समझौता योग्य नहीं है, हालांकि, इसने आंशिक रूप से अपील की अनुमति दी और आरोपियों को आईपीसी की धारा 354 और 451 के तहत दंडनीय अपराधों से बरी कर दिया.

पीठ ने अपने 29 जनवरी के फैसले में कहा: 'हमारी राय है कि एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(xi) के तहत अपराध के लिए आरोपी अपीलकर्ता की सजा योग्यता के आधार पर अन्यथा भी टिकाऊ नहीं है. इसलिए एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(xi) के तहत अपराध के लिए ट्रायल कोर्ट द्वारा दर्ज की गई और उच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखी गई आरोपी अपीलकर्ता की सजा को रद्द कर दिया गया है. अपीलकर्ता को एससी/एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(xi) के तहत आरोप से बरी किया जाता है. अपीलार्थी जमानत पर है. उनके जमानत बांड खारिज कर दिए गए हैं.'

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