रांची: झारखंड में नक्सलवाद के घटते प्रभाव और कई नक्सली नेताओं के लोकतंत्र की राह में जुड़ने से चुनाव के दौरान नक्सली हिंसा में काफी कमी आई है. एक दौर वह भी था जब झारखंड में नक्सल प्रभावित इलाकों में शांतिपूर्ण मतदान करवाना चुनौतीपूर्ण था, लेकिन अब परिस्थितियों बिल्कुल अलग हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव के दिन बड़ी हिंसा को दिया गया था अंजाम
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान झारखंड में चुनावी हिंसा की सबसे बड़ी वारदात हुई थी. लोकसभा चुनाव के दिन 24 अप्रैल 2014 को दुमका के शिकारीपाड़ा के पलासी-सरजाजोल के पास मतदान कराकर लौट रही पोलिंग पार्टी पर नक्सलियो ने लैंड माइंस ब्लास्ट कर हमला किया, इसके बाद ताबड़तोड़ फायरिंग की थी.
2014 में पांच पुलिसकर्मी हुए थे शहीद, 3 चुनाव कर्मियों की भी हुई थी मौत
नक्सलियों के इस हमले में पांच पुलिसकर्मियों और तीन चुनाव कर्मी समेत आठ लोग मारे गए, वहीं 11 लोग गंभीर रूप से घायल हो गए थे. नक्सलियों ने मारे गए पुलिसकर्मियों के पांच इंसास और 550 कारतूस लूट कर सुरक्षा व्यवस्था को खुला चुनौती दी थी. इससे पहले बोकारो में 18 अप्रैल 2014 को चुनाव ड्यूटी से लौट रहे पुलिसकर्मियों पर भी फायरिंग की घटना हुई थी.
लोकसभा चुनाव 2014 में चुनाव को प्रभावित करने के लिए चार जगह पर लैंड माइंस विस्फोट की घटनाएं हुई थीं, वहीं 5 पुलिस मुठभेड़ और एक पुलिस पर हमले की वारदात हुई थी, इस दौरान कुल 13 नक्सल घटनाओं को माओवादियों ने अंजाम दिया था. लेकिन 2019 के चुनाव आते आते राज्य में माओवादियों का प्रभाव कम हो चुका था.
2019 लोकसभा चुनाव में विस्फोट की दो घटनाएं हुई थी, जबकि कुल तीन माओवादी वारदात चुनाव के दौरान दर्ज किए गए थे. 25 अप्रैल 2019 की रात पलामू के हरिहरगंज में माओवादियों ने चुनाव बहिष्कार की पर्ची पर्चा छोड़ा और भाजपा के चुनावी कार्यालय को विस्फोट में उड़ा दिया. वहीं, 2 मई 2019 की रात खरसावां में भाजपा के चुनावी कार्यालय को माओवादियों ने केन बम से विस्फोट कर उड़ा दिया था. वहीं चुनाव के पूर्व रांची में भी 6 मई को तमाड़ के बान्दुडीह में माओवादियों ने वोटरों को बूथ तक ले जाने के लिए रखे गए वाहन को जला दिया था. इसके बाद चुनाव में बहिष्कार की धमकी देने संबंधी पर्चा छोड़ा था.
पुलिस ने खत्म किया नक्सल प्रभाव, 2020 में मारे गए थे 14 नक्सली
2014 के लोकसभा चुनाव में हुई हिंसा के बाद झारखंड में नक्सलवाद के खिलाफ पुलिस का अभियान बहुत तेज हो गया, नतीजा 2019 के लोकसभा चुनाव में नक्सली बहुत अधिक प्रभाव नहीं डाल पाए. 2020 से ही झारखंड पुलिस ने अपने रणनीति में बदलाव करते हुए शीर्ष नक्सलियों को टारगेट करना शुरू किया था. इस साल पुलिस ने एनकाउंटर में 14 नक्सलियों को मार गिराया था. जिनमें 15 लाख का इनामी कुख्यात जिदन गुड़िया भी शामिल था. इसके अलावा पुनई उरांव, दीनू उरांव, सोना माही, सनिका चंपिया, शांति पूर्ति, सरवन मांझी, दीपक यादव, पंडित सिंह, दादू, पंगला, बोदरा, सिमोन कोलकाता और सोनू जैसे दुर्दांत नक्सली मारे गए थे.
2021 में भले ही मात्र छह नक्सली मारे गए थे, लेकिन 06 में से दो 15 और दस लाख के इनामी थे. इस वर्ष कोयल शंख जोन में सक्रिय कुख्यात 15 लाख के इनामी बुद्धेश्वर और 10 लाख का इनामी शनिचर मारे गए थे. इसके अलावा कुख्यात महेश जी अंकित मुंडा, विनोद भूरिया और मंगल लूंगा भी एनकाउंटर में मारे गए थे. 2023 में पुलिस ने मुठभेड़ में सात नक्सलियों को मार गिराया था जिनमें कुख्यात लाका पाहन, दिनेश नगेशिया ,जितेंद्र यादव जैसे नक्सली शामिल थे.
पुलिस मुख्यालय से मिले आंकड़ों के अनुसार झारखंड पुलिस ने अपने बेहतर अभियान के बल पर 2019 से लेकर 2024 के मार्च महीने तक एक करोड़ के इनामी नक्सलियों सहित लगभग 2023 नक्सलियों को सलाखों के पीछे पहुचा दिया. नक्सलियों का बड़ा थिंक टैंक ही जेल में है, जिनमे प्रशांत बोस (इनाम एक करोड़), रूपेश कुमार सिंह (सैक मेम्बर), प्रभा दी (इनाम 10 लाख), सुधीर किस्कू (इनाम 10 लाख), प्रशांत मांझी (इनाम 10 लाख), नंद लाल मांझी (इनाम 25 लाख) और बलराम उराव (इनाम 10 लाख) जैसे नाम शामिल हैं. इन नक्सल नेताओं के पकड़े जाने की वजह से लोकसभा हो या विधानसभा चुनाव नक्सलियों का प्रभाव कम होता चला गया.
बड़े नक्सलियों के आत्मसमर्पण ने भी संगठन को किया कमजोर
झारखंड में भाकपा माओवादियों को ताकतवर बनाने वाले कई बड़े नाम संगठन छोड़ कर पुलिस के शरण में आ चुके हैं. महाराज प्रमाणिक, विमल यादव, सुरेश सिंह मुंडा, भवानी सिंह, विमल लोहरा, संजय प्रजापति, अभय जी, रिमी दी, राजेंद्र राय जैसे बड़े नक्सली पुलिस के सामने हथियार डाल चुके हैं. पिछले 5 सालों में 60 से अधिक नक्सली आत्म समर्पण कर चुके हैं, इनमें से अधिकांश वैसे हैं जो संगठन में बड़ा ओहदा रखते थे.
अरविंद जी के मौत के बाद स्थिति हुई खराब
पुलिस के द्वारा की गई तबाड़तोड़ करवाई की वजह से झारखंड के सबसे बड़े नक्सली संगठन भाकपा माओवादियों को अब उनके प्रभाव वाले इलाकों में ही बिखरने पर मजबूर कर दिया. झारखंड में भाकपा माओवादियों के प्रभाव का बड़ा इलाका नेतृत्वविहीन हो चुका है. झारखंड, छत्तीसगढ़ और बिहार तक विस्तार वाला बूढ़ा पहाड़ का इलाका माओवादियों के सुरक्षित गढ़ के तौर पर जाना जाता था, लेकिन अब बूढ़ा पहाड़ के इलाके में पड़ने वाले पलामू, गढ़वा, लातेहार से लेकर लोहरदगा तक के इलाके में माओवादियों के लिए नेतृत्व का संकट हो गया है.
गौरतलब है कि साल 2018 के पूर्व सीसी मेंबर देवकुमार सिंह उर्फ अरविंद जी बूढ़ा पहाड़ इलाके का प्रमुख था, देवकुमार सिंह की बीमारी से मौत के बाद तेलंगाना के सुधाकरण को यहां का प्रमुख बनाया गया था, लेकिन साल 2019 में तेलंगाना पुलिस के समक्ष सुधाकरण ने सरेंडर कर दिया था. इसके बाद बूढ़ा इलाके की कमान विमल यादव को दी गई थी. विमल यादव ने फरवरी 2020 तक बूढ़ा पहाड़ के इलाके को संभाला, इसके बाद बिहार के जेल से छूटने के बाद मिथलेश महतो को बूढ़ा पहाड़ भेजा गया था. तब से वह ही यहां का प्रमुख था, लेकिन मिथिलेश को भी बिहार में गिरफ्तार कर लिया गया नतीजा अब सिर्फ और सिर्फ कोल्हान इलाके में ही नक्सलियों का शीर्ष नेतृत्व बचा हुआ है.
झारखंड में घटा नक्सलवाद का प्रभाव
झारखंड में 1970 के दशक में किसान आंदोलन के जरिए नक्सली विचारधारा की धमक पलामू, संताल परगना और उत्तरी छोटानागपुर तक फैल गई थी. लेकिन धीरे धीरे नक्सलवाद की जड़ में समूचा झारखंड आ गया. झारखंड के सारंडा, बूढ़ा पहाड़, झुमरा की भौगोलिक स्थिति में नक्सलवाद और उनके संगठन के विस्तार में बेहद मदद की. आलम ये रहा कि 2019 तक झारखंड के 19 जिले जबरदस्त तरीके से नक्सलवाद के प्रभाव में रहे. ऐसे समय में झारखंड में सुरक्षित मतदान करवाना पुलिस के लिए बड़ी चुनौती थी.
क्या है बीते 10 साल का पैटर्न
बीते दस सालों के पैटर्न पर नजर डाले तो लोकसभा चुनाव के दौरान झारखंड के गिरिडीह, गुमला, बोकारो, कोडरमा, लातेहार, दुमका, खूंटी, चतरा, चाईबासा, पलामू में नक्सल वारदात हुए, लेकिन लगातार पुलिस अभियानों के कारण पलामू के कोयल शंख जोन में माओवादी प्रभाव घटा है. छत्तीसगढ़, बिहार और झारखंड तक विस्तार वाले बूढ़ा पहाड़ माओवादी प्रभाव से मुक्त घोषित हो चुका है. सरायकेला, चाईबासा और खूंटी ट्राइजंक्शन से भी माओवादी दूर हो चुके हैं. सारंडा के खास क्षेत्र में ही वह सिमटे हुए हैं, वहीं झुमरा, पारसनाथ का इलाका भी माओवादी प्रभाव से मुक्त हो चुका है.
झारखंड में चुनाव के दौरान नक्सलवाद का असर कम होने के पीछे कई वजहें है. पहली वजह तो पुलिस का जबरदस्त अभियान है. लेकिन एक और प्रमुख वजह है नक्सलवादी नेताओं का मुख्य धारा से जुड़कर चुनाव में किस्मत आजमाना. 2009 का लोकसभा चुनाव में बिहार के जेल में बंद कोयल शंख जोन के कमांडर कामेश्वर बैठा ने माओवादी संगठन के जरिए खून खराबे वाला जीवन छोड़ मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने का फैसला लिया था. उग्र नक्सलवाद की धरती पर लोकतंत्र की खेती की पहली कोशिश के तौर पर इस वाकये को देखा गया. ऐसा पहली बार था जब नक्सली नेता ने राजनीति की डोर थामी और चुनाव जीत कर सीधे लोकतंत्र की सबसे बड़ी मंदिर संसद तक पहुंचा.
कामेश्वर बैठा के संसद पहुंचने के बाद पीएलएफआई, भाकपा माओवादी के एक दर्जन से अधिक कमांडर और नेताओं ने विधानसभा के चुनाव में भी किस्मत आजमाई. पीएलएफआई कमांडर पौलुस सुरीन जेल में रहते हुए ही तोरपा से विधायक बने. इन दो घटनाओं ने नक्सलियों के मुख्यधारा की राजनीति में आगमन की राह खोली. लेकिन हर कोई कामेश्वर बैठा नही बन पाया, कुंदन पाहन जैसे कुख्यात ने भी जेल से ही चुनाव लड़ा और हार का सामना किया. लगातार हार के बाद राजनीति में नक्सलियों का प्रभाव भी दिन ब दिन कम होता गया.
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