भोपाल। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के पहले हिंदुत्व की हुंकार एमपी में जिन कथावाचकों और बाबाओं ने उठाई थी. लोकसभा चुनाव के दौरान ये सारे साधु संत और बाबा सीन से गायब हैं. हिंदू राष्ट्र की हुंकार करने वाले धीरेन्द्र शास्त्री के बागेश्वर धाम पर किसी पार्टी का दिग्गज नेता तो छोड़िए. इस आम चुनाव में उम्मीदवार भी माथा टेकने नहीं पहुंचे. राष्ट्र रक्षा के लिए परिवार के एक बच्चे को आरएसएस में भेजने का कथा ज्ञान देने वाले पंडित प्रदीप मिश्रा भी सन्नाटे में ही हैं. एमपी से ही राम जन्मभूमि के बाद कृष्ण जन्मभूमि की मुक्ति का शंखनाद करने वाले देवकीनंदन ठाकुर भी इस चुनाव में हिंदुत्व की हुंकार के साथ सुनाई नहीं दिए. विधानसभा चुनाव में बीजेपी का माहौल बनाने वाले कथावाचक और बाबा आखिर लोकसभा चुनाव के सीन से कहां गायब हैं. क्या वजह है कि बाबा कथावाचकों ने आम चुनाव में नेताओं और राजनीतिक दलों से दूरी बना ली है.
धीरेन्द्र शास्त्री की चुनाव से दूरी...कौन सी मजबूरी
2023 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी नेताओं ने इस शिद्दत से हिंदुत्व और सनातन का मुद्दा नहीं उठाया था. जो कथावाचकों के पंडाल और बाबाओं के दरबार से उठा. धीरेन्द्र शास्त्री तो जिस एक बयान के बाद एमपी ही नहीं देश की राजनीति में चर्चित चेहरा बने, वो हिंदु राष्ट्र को लेकर दिया गया उनका बयान था. वो विवादित बयान जिसमें धीरेन्द्र शास्त्री ने कहा था कि 'जो तुम्हारे घर पत्थर फेके उसके घर जेसीबी चलाओ.' भारत सनातनियों का देश है. बागेश्वर धाम के धीरेन्द्र शास्त्री ने कहा था कि 'राम की यात्रा पर कोई पत्थर फेंके तो हिंदूओं एक जुटहो कर हथियार उठा लो.' इस विवादित बयान के बाद धीरेन्द्र शास्त्री चर्चा में आ गए, लेकिन दिलचस्प ये रहा कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों तरफ से धीरेन्द्र शास्त्री की डिमांड उठने लगी. नेताओं ने उनके दरबार सजवाए. जिन्होंने नहीं सजवाए वो खुद बागेश्वर धाम पहुंच गए.
इनमें पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान से लेकर कमलनाथ तक थे. तब कहा गया कि नेताओं का बाबा की देहरी पर पहुंचना भी बाबा के भक्तों तक पैठ बनाने के लिए था. वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश भटनागर कहते हैं 'इस गठजोड़ को समझना चाहिए असल में बाबाओं के साथ जुड़े उनके मानने वाले भी एक मजबूत वोट बैंक होते हैं. राजनीतिक दल चाहे कोई हो और राजनेता भी बाबाओं के सहारे बाबाओं की उस फौज तक पहुंचने की कोशिश करते रहे. विधानसभा चुनाव में तो ये तक हुआ कि विधायकों ने अपने क्षेत्र में अपना वोट बैंक मजबूत करने इन बाबाओं और कथावाचकों की कथाएं करवा ली थी.
आम चुनाव में सीन अलग होता है. दूसरी बात कि बीजेपी को मोदी की गारंटी के आगे कथावाचकों की दरकार नहीं है. कांग्रेस अयोध्या का न्यौता ठुकरा कर बीजेपी की ओर से इतनी ज्यादा टारगेट कर दी गई है कि वो भी सॉफ्ट हिंदुत्व की ओर लौट नहीं पा रही. तो बाबा और कथावाचकों की भी आम चुनाव में सियासी रीलॉचिंग नहीं हो पा रही.
हर घर एक स्वयंसेवक हो...वाले प्रदीप मिश्रा भी सन्नाटे में
कथावाचक पंडित प्रदीप मिश्रा को लेकर तो ये आरोप लगने लगे थे कि वो अघोषित रुप से बीजेपी का चुनावी माहौल बना रहे हैं. फिर जब उन्होंने बयान दिया कि 'हिदू राष्ट्र के लिए हर परिवार में एक स्वयंसेवक जरुरी है. जब उन्होंने बजरंग दल की पैरवी की. उन्होंने हिंदू राष्ट्र के लिए संविधान बदलने की बात कही.' तो घोर विवाद में आने के बावजूद ये तय हो गया कि पंडित प्रदीप मिश्रा संघ और भाजपा के हिडन एजेंडा पर ही काम कर रहे हैं. उदयनिधि स्टालिन के जिस पर बयान पर पूरे चुनाव के दौरान बीजेपी इंडिया गठबंधन पर पलटवार कर रही है. शुरुआत में पंडित प्रदीप मिश्रा ने कहा था कि 'जो सनातनियों को डेंगू मलेरिया का मच्छर कहता है वो खुद डेंगू मलेरिया की औलाद है.'
देवकीनंदन ठाकुर ने भोपाल से भली काशी मथुरा की हुंकार
एन विधानसभा चुनाव के पहले भोपाल से ही कथावाचक देवकी नंदन ठाकुर और बाबा बागेश्वर के धीरेन्द्र शास्त्री ने भोपाल में एक मंच से आव्हान किया कि राम मंदिर बन गया, अब आगे मथुरा काशी है. यूं जैसे बीजेपी की लिखी स्क्रिप्ट को ये कथावाचक आगे बढ़ा रहे हों. मंच पर बीजेपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से लेकर तमाम नेता भी मौजूद थे. कृष्ण जनभूमि मुक्ति जन आंदोलन की शुरुआत करने वाले देवकी नंदन ठाकुर ने कहा था कि जिस तरह से राम जन्म भूमि को मुक्त कराया. उसी तरह से कृष्ण जनम्भूमि को मुक्त कराएंगे.
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राजनीति के अवसरवाद में बाबा फिट नहीं बैठ रहे
संत समिति के प्रदेश प्रवक्ता अनिलानंद महाराज कहते हैं कि 'असल में संत का तो सियासत से कभी कोई काम ही नहीं रहा. उसका काम तो प्रभु की सेवा है और समाज को सही दिशा देना है कि धर्म की राह पर सब चलें, लेकिन होता ये है कि राजनीतिक लोग अपने लाभ के लिए बाबाओं कथावाचकों का इस्तेमाल करते हैं. विधानसभा चुनाव में इस्तेमाल भी खूब हुआ, लेकिन लोकसभा चुनाव में अब नेताओं को लग रहा है कि बाबाओं कथावाचकों के पास पहुंचने से कोई खास असर नहीं पड़ना तो अब कोई उनकी देहरी पर माथा टेकने नहीं जा रहा. राजनीति के अवसरवाद में बाबा फिट नहीं बैठ रहे, फिलहाल ये कहें.