कच्छ: गुजरात का सीमावर्ती जिला कच्छ से 10.5 मिलियन साल (1 करोड़ 5 लाख) पुराने बंदर का जीवाश्म मिला है. यह बुद्धिजीवियों के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है. बंदर का जीवाश्म कच्छ के एनआरआई शोधकर्ता डॉ. हिरजी भुड़िया को मिले हैं.
बता दें कि, हस्तशिल्प और पर्यटन के साथ-साथ भौगोलिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. कच्छ की भूमि में मानव विकास के लाखों वर्ष पुराने साक्ष्य भी मिलते रहे हैं. समय-समय पर वैज्ञानिकों और भूवैज्ञानिकों तथा पुरातत्व विभाग द्वारा की जाने वाली खुदाई से ऐसे अवशेष उजागर होते हैं जिन्हें अमूल्य धरोहर कहा जा सकता है.
10.5 मिलियन साल पुराने बंदर का जीवाश्म
बंदर का यह जीवाश्म हिमालय श्रृंखला में शिवालिक पर्वतमाला के आसपास पूर्वी कच्छ के अंजार तालुका के टप्पार बांध क्षेत्र से मिला है. हिरजी भुड़िया के अनुसार, अंजार में टप्पर बांध के पास पाए गए जीवाश्मों में बंदर के पैर, कंधे, हाथ और पैर की हड्डियां शामिल हैं.
11 साल पहले अंजार के टप्पार बांध के आसपास के क्षेत्र में एक शोध के दौरान जीवाश्म बंदर के दांत पाए गए थे. इस जीवाश्म को देखने के बाद डॉ. हिरजी भुड़िया ने शोध छात्रों से मिलकर चर्चा करने का भी प्रयास किया. फिर वे स्वयं टप्पर रेंज में गए और आगे की खोज शुरू की. साल 2019 में वह रिसर्च शुरू करने के लिए कच्छ आने वाले थे, लेकिन कोरोना काल के कारण देरी हो गई. साल 2023 में वे कच्छ आए थे, लेकिन व्यस्तता के कारण टपर बांध क्षेत्र में नहीं जा सके.
बंदर के पैरों के निशान और अंगों की हड्डियां मिलीं
आखिरकार इस साल डॉ. हिरजी ने टप्पार बांध स्थल पर शोध किया और बंदर के जीवाश्म की खोज की. डॉ हिरजी भुड़िया लंबी मेहनत के बाद इस बंदर के जीवाश्म को खोजने में सफल रहे और इस संबंध में आगे शोध भी कर रहे हैं. अब तक, शोधकर्ताओं को बंदर की हड्डियां, कंधे, हाथ और पैर के जीवाश्म मिले हैं. निकट भविष्य में उसकी खोपड़ी और रीढ़ की हड्डी के अवशेषों को खोजने के लिए शोध किया जाएगा.
डॉ. हिरजी भुड़िया ने कहा कि, लाखों साल पुराने बंदर के जीवाश्म के बारे में दुनिया के विकास के अनुसार बंदर प्रजाति से ही इंसान का विकास हुआ है, अर्थात हमारे पूर्वज बंदर थे. हालांकि, ये वानर मानव पूर्वज वानर से थोड़े भिन्न थे. जबकि दुनिया के कुछ जीवाश्म विज्ञानी शिवालिक पिथेकस को वर्तमान ओरंग-उटांग और गोरिल्ला का पूर्वज मानते हैं.
डॉ हिरजी भुड़िया का दावा
डॉ हिरजी भुड़िया के मुताबिक ये बंदर पानी और खाने की तलाश में इस इलाके में आए होंगे. ये टप्पार बांध क्षेत्र में मछली के लिए आए होंगे और ढलान वाले क्षेत्र में पानी के कारण फिसल कर गिर गए होंगे. इस वजह से उनकी हड्डियां क्षतिग्रस्त हो गईं और घिस गई होंगी. जिसका पता इस हड्डी के जीवाश्म से चलता है. ये बंदर कैसे रहते थे, यह उनकी धड़, कंधे, हाथ और पैर की हड्डियों से पता चलता है.
जीवाश्म विज्ञान के अनुसार टप्पार बांध, अंजार के इस बंदर के जीवाश्म को 'मियोसीन' युग के शिवालिक पिथेक्स के नाम से जाना जाता है. ग्रीक के अनुसार पिथेकस का अर्थ बंदर होता है. जीवाश्म विज्ञान वह विज्ञान है जो लाखों वर्ष पहले पृथ्वी पर विलुप्त हो चुके जीवों के जीवाश्मों के आधार पर विभिन्न संभावनाओं की जांच करता है.
बंदरों के जीवाश्म सबसे पहले कहां पाए गए थे?
विशेष रूप से, भारत में शिवालिक पिथेक्स युग के जीवाश्म केवल हिमालय पर्वतमाला की सिवालिक पर्वतमाला और केवल कच्छ में पाए जाते हैं. शिवालिक शब्द भगवान शिव से जुड़ा है और बंदरों के जीवाश्म सबसे पहले 19वीं सदी में हिमालय क्षेत्र में पाए गए थे. इसके अलावा कुछ अन्य जीवाश्म विज्ञानी शिवालिक पिथेक्स को रामापिथेकस भी मानते हैं.
जीवाश्म विज्ञानी के रूप में शोध कर रहे डॉ. हिरजी
डॉ. हिरजी भुड़िया जो कई वर्षों से जीवाश्म विज्ञानी के रूप में शोध कर रहे हैं. वह मूल रूप से कच्छ के जिला मुख्यालय भुज तालुका के माधापार गांव के रहने वाले हैं और अब वर्षों से लंदन में बस गए हैं. पहले वह भुज के सामान्य अस्पताल में अधीक्षक के पद पर भी कार्य किया. डॉ हीरजी भुड़िया ने मेडिकल की पढ़ाई की है, लेकिन पिछले कई सालों से वह जीवाश्म विज्ञान के क्षेत्र में काफी शोध कर रहे हैं.
कच्छ की भूवैज्ञानिक विरासत
टप्पार बांध क्षेत्र में 15 लाख वर्ष पुराने बंदरों के जीवाश्मों की खोज से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि कच्छ का कितना ऐतिहासिक महत्व है. कच्छ की धारा ने बहुमूल्य जीवाश्मों को संरक्षित किया है. पूरा कच्छ एक भूवैज्ञानिक विरासत है. इस इलाके में विविध भूवैज्ञानिक विरासत वाले समृद्ध स्थल हैं जहां खोजबीन करने पर कई जीवाश्म मिल सकते हैं.
कच्छ में मिले वासुकी नाग के जीवाश्म
कुछ समय पहले कच्छ की कुलदेवी मां आशापुरा के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल माता मढ़ा के पास जीएमडीसी खदान के पास 49 फीट लंबे सांप वासुकी नाग के जीवाश्म मिले थे, जो चर्चा का विषय भी बना था.
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