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जानिए कौन थे राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के मुख्य पुरोहित पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित, जिनके निधन पर हर कोई जता रहा दुख - Pandit Laxmikant Dixit - PANDIT LAXMIKANT DIXIT

काशी के अद्भुत वैदिक परंपरा के परिचायक रहे पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित को हर कोई याद कर रहा है. आइए जानते हैं उनके परिवार और इनसे जुड़ी तमाम बातें.

पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित
पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित (Photo Credit; Etv Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Jun 22, 2024, 9:14 PM IST

Updated : Jun 22, 2024, 9:22 PM IST

पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का मणिकर्णिका घाट पर हुआ अंतिम संस्कार. (Video Credit; Etv Bharat)

वाराणसी: अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के बाद प्राण प्रतिष्ठा कराने वाले काशी के मुख्य पुरोहित और प्रकांड विद्वान पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का शनिवार को निधन हो गया. लंबे वक्त से बीमार चल रहे पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार किया गया. जय शंकर, सुनील और अरुण दीक्षित ने विधि-विधान से अंतिम संस्कार किया. आइए जानते हैं काशी में लगभग 300 वर्षों से भी ज्यादा समय से रह रहे पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के परिवार को क्यों विद्वानों की परंपरा का सबसे मजबूत आधार माना जाता है.

राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की तस्वीर.
राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की तस्वीर. (File Photo)

लक्ष्मीकांत दीक्षित के पूर्वजों ने ही नागपुर और नासिक रियासतों में धार्मिक अनुष्ठानों को भी संपन्न करवाया था. शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में भी इनके परिवार की लोगों की ही मौजूदगी रही. शुक्ल यजुर्वेद के प्रकांड विद्वान के रूप में भारत में एक अलग पहचान रखने वाले पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का चयन अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के दौरान पूजा अनुष्ठान के लिए खुद कांची कामकोटि मठ के शंकराचार्य ने किया था. शंकराचार्य की तरफ से इनके चयन के बाद राम मंदिर के अनुष्ठान में तैयारी से लेकर अंतिम दिन के अनुष्ठान तक में उनकी मौजूदगी अयोध्या में रही.

पिता की मौत के बाद चाचा से वेद और कर्मकांड की शिक्षा ली
बता दें कि पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का जन्म मुरादाबाद में जन्म हुआ था. काशी में रहकर माता रुक्मणी और पिता वेद मूर्ति मथुरानाथ दीक्षित के साथ अपना अध्ययन अध्यापन शुरू किया. पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के पिता का निधन कम उम्र में हो गया था. जिसके बाद उन्होंने अपने चाचा से ही वेद और कर्मकांड की शिक्षा ली. उनके चाचा गणेश दीक्षित (जावजी भट्ट) के द्वारा उन्हें यज्ञ कर्मकांड की संपूर्ण शिक्षा दी गई. काशी में शुक्लयजुर्वेद का शाखा अध्ययन तथा घनान्त अध्ययन करने के साथ उन्होंने अपनी वैदिक परम्परा को जीवित रखा. श्रोत स्मार्त यागों का विशेष अध्ययन किया और साङ्गवेद विद्यालय (रामघाट, वाराणसी) में शुक्लयजर्वेद का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया. देश-विदेशों में शिष्यों द्वारा वेद तथा कर्मकाण्ड का प्रचार-प्रसार किया.

यज्ञ और अनुष्ठान में महारत हासिल थी
पंडित लक्ष्मीकांत काशी में वेद की शिक्षा लेने के साथ ही जीवन यापन के लिए वैदिक परंपराओं का पालन करते हुए काशी की विद्युत परंपरा के मजबूत स्तंभ के रूप में पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित ने खुद को स्थापित किया. कर्मकांड में यजुर्वेद को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है और शुक्ल यजुर्वेद कर्मकांड की विशेषता मानी जाती है. जानकारों का कहना है कि पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों तक में यज्ञ पुरोहित के रूप में पूजे जाते थे. उन्हें यज्ञाचार्य के नाम से लोग बुलाते थे. यज्ञ-अनुष्ठान में उन्हें महारत थी. वैदिक ज्ञान की वजह से उन्हें देश-विदेश से बड़े अनुष्ठानों के लिए बुलाया जाता था.

विदेश में भी यज्ञ और अनुष्ठान के लिए थे प्रसिद्ध
पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के यजमान सारे अखाड़े और विशेष रूप से मंडल हुआ करते थे. यानी साधु-सन्यासियों और नागा साधुओं के लिए होने वाले यज्ञ अनुष्ठानों की पूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के द्वारा ही की जाती थी. देश में होने वाले बड़े अनुष्ठान और यज्ञ पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के द्वारा पूर्ण किए जाते थे. नेपाल के अलावा भारत के अनेक शहरों में वैदिक अनुष्ठान करने के लिए आचार्य के रूप में वह शामिल होते थे.यही वजह है कि उनकी पहचान काशी में सलाका पुरुष के रूप में हुआ करती थी. सांगवेद महाविद्यालय के वरिष्ठ आचार्य के तौर पर पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित ने अपने वैदिक करियर को आगे बढ़ना शुरू किया.

यज्ञ परंपरा के ध्वजवाहक थे
धर्माचार्य और अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती ने बताया कि पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का चले जाना काशी की वैदिक और कर्मकांड परंपरा की अपूरणीय क्षति है. परंतु जीवन कैसे जिया जाता है, वह उन्होंने अपने जीवन के साथ बताया. वह काशी की यज्ञ परंपरा के ध्वजवाहक थे. उन्होंने 492 वर्षों का जो अयोध्या जन्म भूमि का कलंक था वह मुख्य यज्ञाचार्य के रूप में उन्होंने वहां शामिल होकर अनुष्ठान पूर्ण करके खत्म किया.

इन पुरस्कारों से हुए थे सम्मानित
1998 में पंडित लक्ष्मीकांत ने विशिष्ट श्रौतयाग (सोमयाग) नेपाल में अनुष्ठित किया. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में श्रौतयज्ञशाला का निर्माण करवाया. उन्हें करपात्री जी एवं निरंजनदेव तीर्थस्वामी जी का विशेष अनुग्रह प्राप्त था. चारों पीठों के शङ्कराचार्य द्वारा विशेष सम्मानित किया गया और 2012 में "वैदिक रत्न द्वारका ज्योतिष पीठ पुरस्कार" श्री स्वामीस्वरूपानन्द सरस्वती दने उन्हें दिया. 2014 में 'वेदसम्राट पुरस्कार', सन् 2015 में 'वैदिक भूषण अलंकरण, श्रृङ्गेरी शङ्कराचार्य संस्थान द्वारा 'वेदमूर्ति' पुरस्कार भी दिया गया. वेदसम्मान घनपाठी' पुरस्कार के अलावा 2016 में लोकसभाध्यक्षा सुमित्रा महाजन ने 'देवी अहिल्याबाई राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. 2022 में भारत के माननीय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा भारतात्मा पुरस्कार दिया गया.

इसे भी पढ़ें-राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा कराने वाले मुख्य पुरोहित का निधन; शिवाजी का राज्याभिषेक कराने वालों के थे वंशज, पीएम-सीएम ने जताया शोक

पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का मणिकर्णिका घाट पर हुआ अंतिम संस्कार. (Video Credit; Etv Bharat)

वाराणसी: अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के बाद प्राण प्रतिष्ठा कराने वाले काशी के मुख्य पुरोहित और प्रकांड विद्वान पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का शनिवार को निधन हो गया. लंबे वक्त से बीमार चल रहे पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का मणिकर्णिका घाट पर अंतिम संस्कार किया गया. जय शंकर, सुनील और अरुण दीक्षित ने विधि-विधान से अंतिम संस्कार किया. आइए जानते हैं काशी में लगभग 300 वर्षों से भी ज्यादा समय से रह रहे पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के परिवार को क्यों विद्वानों की परंपरा का सबसे मजबूत आधार माना जाता है.

राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की तस्वीर.
राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की तस्वीर. (File Photo)

लक्ष्मीकांत दीक्षित के पूर्वजों ने ही नागपुर और नासिक रियासतों में धार्मिक अनुष्ठानों को भी संपन्न करवाया था. शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक में भी इनके परिवार की लोगों की ही मौजूदगी रही. शुक्ल यजुर्वेद के प्रकांड विद्वान के रूप में भारत में एक अलग पहचान रखने वाले पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का चयन अयोध्या में राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा के दौरान पूजा अनुष्ठान के लिए खुद कांची कामकोटि मठ के शंकराचार्य ने किया था. शंकराचार्य की तरफ से इनके चयन के बाद राम मंदिर के अनुष्ठान में तैयारी से लेकर अंतिम दिन के अनुष्ठान तक में उनकी मौजूदगी अयोध्या में रही.

पिता की मौत के बाद चाचा से वेद और कर्मकांड की शिक्षा ली
बता दें कि पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का जन्म मुरादाबाद में जन्म हुआ था. काशी में रहकर माता रुक्मणी और पिता वेद मूर्ति मथुरानाथ दीक्षित के साथ अपना अध्ययन अध्यापन शुरू किया. पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के पिता का निधन कम उम्र में हो गया था. जिसके बाद उन्होंने अपने चाचा से ही वेद और कर्मकांड की शिक्षा ली. उनके चाचा गणेश दीक्षित (जावजी भट्ट) के द्वारा उन्हें यज्ञ कर्मकांड की संपूर्ण शिक्षा दी गई. काशी में शुक्लयजुर्वेद का शाखा अध्ययन तथा घनान्त अध्ययन करने के साथ उन्होंने अपनी वैदिक परम्परा को जीवित रखा. श्रोत स्मार्त यागों का विशेष अध्ययन किया और साङ्गवेद विद्यालय (रामघाट, वाराणसी) में शुक्लयजर्वेद का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया. देश-विदेशों में शिष्यों द्वारा वेद तथा कर्मकाण्ड का प्रचार-प्रसार किया.

यज्ञ और अनुष्ठान में महारत हासिल थी
पंडित लक्ष्मीकांत काशी में वेद की शिक्षा लेने के साथ ही जीवन यापन के लिए वैदिक परंपराओं का पालन करते हुए काशी की विद्युत परंपरा के मजबूत स्तंभ के रूप में पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित ने खुद को स्थापित किया. कर्मकांड में यजुर्वेद को सबसे महत्वपूर्ण माना जाता है और शुक्ल यजुर्वेद कर्मकांड की विशेषता मानी जाती है. जानकारों का कहना है कि पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों तक में यज्ञ पुरोहित के रूप में पूजे जाते थे. उन्हें यज्ञाचार्य के नाम से लोग बुलाते थे. यज्ञ-अनुष्ठान में उन्हें महारत थी. वैदिक ज्ञान की वजह से उन्हें देश-विदेश से बड़े अनुष्ठानों के लिए बुलाया जाता था.

विदेश में भी यज्ञ और अनुष्ठान के लिए थे प्रसिद्ध
पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के यजमान सारे अखाड़े और विशेष रूप से मंडल हुआ करते थे. यानी साधु-सन्यासियों और नागा साधुओं के लिए होने वाले यज्ञ अनुष्ठानों की पूर्ति पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के द्वारा ही की जाती थी. देश में होने वाले बड़े अनुष्ठान और यज्ञ पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित के द्वारा पूर्ण किए जाते थे. नेपाल के अलावा भारत के अनेक शहरों में वैदिक अनुष्ठान करने के लिए आचार्य के रूप में वह शामिल होते थे.यही वजह है कि उनकी पहचान काशी में सलाका पुरुष के रूप में हुआ करती थी. सांगवेद महाविद्यालय के वरिष्ठ आचार्य के तौर पर पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित ने अपने वैदिक करियर को आगे बढ़ना शुरू किया.

यज्ञ परंपरा के ध्वजवाहक थे
धर्माचार्य और अखिल भारतीय संत समिति के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी जितेन्द्रानंद सरस्वती ने बताया कि पंडित लक्ष्मीकांत दीक्षित का चले जाना काशी की वैदिक और कर्मकांड परंपरा की अपूरणीय क्षति है. परंतु जीवन कैसे जिया जाता है, वह उन्होंने अपने जीवन के साथ बताया. वह काशी की यज्ञ परंपरा के ध्वजवाहक थे. उन्होंने 492 वर्षों का जो अयोध्या जन्म भूमि का कलंक था वह मुख्य यज्ञाचार्य के रूप में उन्होंने वहां शामिल होकर अनुष्ठान पूर्ण करके खत्म किया.

इन पुरस्कारों से हुए थे सम्मानित
1998 में पंडित लक्ष्मीकांत ने विशिष्ट श्रौतयाग (सोमयाग) नेपाल में अनुष्ठित किया. सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में श्रौतयज्ञशाला का निर्माण करवाया. उन्हें करपात्री जी एवं निरंजनदेव तीर्थस्वामी जी का विशेष अनुग्रह प्राप्त था. चारों पीठों के शङ्कराचार्य द्वारा विशेष सम्मानित किया गया और 2012 में "वैदिक रत्न द्वारका ज्योतिष पीठ पुरस्कार" श्री स्वामीस्वरूपानन्द सरस्वती दने उन्हें दिया. 2014 में 'वेदसम्राट पुरस्कार', सन् 2015 में 'वैदिक भूषण अलंकरण, श्रृङ्गेरी शङ्कराचार्य संस्थान द्वारा 'वेदमूर्ति' पुरस्कार भी दिया गया. वेदसम्मान घनपाठी' पुरस्कार के अलावा 2016 में लोकसभाध्यक्षा सुमित्रा महाजन ने 'देवी अहिल्याबाई राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया. 2022 में भारत के माननीय लोकसभा अध्यक्ष द्वारा भारतात्मा पुरस्कार दिया गया.

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Last Updated : Jun 22, 2024, 9:22 PM IST
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