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हरियाणा की राजनीतिक पार्टियों के लिए आसान नहीं सत्ता की राह, चुनौतियों से भरा है 1 अक्टूबर तक का सफर - Haryana Assembly Election 2024

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By ETV Bharat Haryana Team

Published : Aug 18, 2024, 12:18 PM IST

Haryana Assembly Election 2024: हरियाणा में चुनाव के ऐलान के बाद सभी राजनीतिक दल के नेता चुनावी दंगल में उतर गए हैं. सभी दलों के सामने कई चुनौतियां हैं. जिनसे उनको पार पाना है.

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चंडीगढ़: हरियाणा विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है. 1 अक्टूबर को राज्य में मतदान होगा और 4 को नतीजे घोषित होंगे. हरियाणा में चुनाव के ऐलान के बाद सभी राजनीतिक दल के नेता चुनावी दंगल में उतर गए हैं. सभी दलों के सामने कई चुनौतियां हैं. जिनसे उनको पार पाना है.

सत्ताधारी बीजेपी के सामने क्या है चुनौतियां? हरियाणा में दस साल से बीजेपी की सरकार हैं. ऐसे में तीसरी बार सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है, लेकिन तीसरी बार सत्ता में काबिज होने की उनकी राह आसान दिखाई नहीं देती. इस बार बीजेपी के सामने कई चुनौतियां हैं. जिनको पार पाना आसान नहीं है. हालांकि अंतिम वक्त में सीएम का चेहरा बदल कर बीजेपी ने खुद को फिर से मैदान में लाने की कोशिश तो की है, लेकिन फिर भी बीजेपी के लिए दस साल का शासन सबसे बड़ी चुनौती है.

दस साल की एंटी इनकंबेंसी से पार पाना चुनौती: बीजेपी के सामने इस चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती एंटी इनकंबेंसी फैक्टर से पार पाने की है. पार्टी के दस साल के शासन के बाद लोगों में जो सरकार के खिलाफ एक माहौल बना है. उसको पार पाना बीजेपी के लिए सबसे बड़ा मसला है. हालांकि अंतिम वक्त में सीएम चेहरा बदलकर बीजेपी ने एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को कम करने की कोशिश जरूर कि लेकिन उसका कितना फायदा चुनाव में मिलेगा ये चुनावी नतीजे से बता पाएंगे.

ग्रामीण जनता और किसान भी बीजेपी से नाराज: बीजेपी को लोकसभा चुनाव में ग्रामीण क्षेत्र की जनता और किसानों का विरोध झेलना पड़ा. वहीं सरपंचों की नाराजगी भी पार्टी को भारी पड़ी. इन सभी फैक्टर पर मौजूदा सीएम नायब सैनी ने काम भी किया. उन्होंने जहां सरपंचों की मांगों को पूरा करने की कोशिश की. किसानों के हक में हरियाणा में सभी फसलें एमएसपी पर खरीदने की घोषणा भी कर दी. ग्रामीण इलाकों के विकास पर भी फोकस किया, लेकिन इसमें कहीं ना कहीं देर हो गई. जिसकी वजह से अभी भी बीजेपी को ये सभी फैक्टर विधानसभा चुनाव में भारी पड़ सकते हैं.

रोजगार का मुद्दा भी BJP पर भारी पड़ सकता है: हरियाणा में बेरोजगारी को लेकर विपक्ष बीते सालों से लगातार सरकार पर हमलावर रहा है. विपक्ष रेगुलर नौकरी ना दे पाने का आरोप सत्ता पक्ष पर लगता रहा है. वहीं सरकारी विभागों में करीब दो लाख पद खाली होने की बात करता है. एचकेआरएम के जरिए नौकरियां देने को भी विपक्ष मुद्दा बनाए हुए है. हालांकि सत्ता पक्ष पूर्व की हुड्डा सरकार से अधिक नौकरियां बिना खर्ची पर्ची के देने की बात करता है, लेकिन बावजूद इसके रोजगार का मुद्दा भी सत्ता पक्ष को चुनाव में परेशान कर सकता है.

ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर कर्मचारी भी मुखर: हरियाणा में एक बहुत बड़ा वर्ग कर्मचारियों का है. कर्मचारी काफी लंबे वक्त से अपनी ओल्ड पेंशन स्कीम की मांग को लेकर सड़कों पर है. ऐसे में इस विधानसभा चुनाव में ये मुद्दा भी सत्ता पक्ष को परेशान कर सकता है, क्योंकि विपक्ष यानी कांग्रेस लगातार ओल्ड पेंशन स्कीम को उनकी सरकार आने पर लागू करने की बात कह रही हैं. ऐसे में ये मुद्दा सत्ता पक्ष को चुनाव में भारी पड़ सकता है.

कार्यकर्ताओं की नाराजगी का भी खतरा: लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने कार्यकर्ताओं की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा था, क्योंकि सरकार के करीब जो लोग रहे उनका बैकग्राउंड बीजेपी का नहीं रहा. लेकिन वे सरकार की आंखों के तारे रहे. लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसे चेहरों पर पार्टी ने दांव खेला. जो एकदम से पार्टी से जुड़े. जैसे अशोक तंवर आप से बीजेपी में आए और उनको लोकसभा की टिकट मिल गया. वहीं रणजीत चौटाला और नवीन जिंदल भी पार्टी में शामिल होते ही उम्मीदवार बन गए. इससे कहीं ना कहीं बीजेपी के पुराने नेताओं में अंदर खाते नाराजगी बीजेपी को लोकसभा चुनाव में भारी पड़ गई. हालांकि अगर विधानसभा चुनाव में पार्टी उस नाराजगी को दूर करने में कामयाब होती है तो शायद हालत बदल सकते हैं.

कांग्रेस के लिए क्या हैं चुनौतियां? हरियाणा की सत्ता से दस साल से दूर कांग्रेस इस वक्त हरियाणा में वापसी की पूरी उम्मीद के साथ अपने चुनावी अभियान में जुटी है. दस साल सत्ता से दूर रहने से उसके खिलाफ वैसे तो कोई बड़े मुद्दे नहीं है, लेकिन बावजूद इसके पार्टी की समस्या बाहर से कम अन्दर से ज्यादा है. यानी अपनों से पार्टी को ज्यादा नुकसान हो सकता है.

कांग्रेस में खत्म नहीं हो पाई गुटबाजी! हरियाणा कांग्रेस लंबे वक्त से गुटबाजी की शिकार रही है. ये गुटबाजी साल 2014 हो या फिर साल 2019 के विधानसभा चुनाव. दोनों में पार्टी को भारी पड़ी, लेकिन दस साल विपक्ष में रहने के बाद भी पार्टी की ये गुटबाजी खत्म नहीं हो पाई. कभी एसआरके गुट (कुमारी सैलजा, रणदीप सुरजेवाला और किरण चौधरी) पार्टी के लिए हुड्डा गुट के सामने चुनौती रहे. अभी भी किरण चौधरी के बीजेपी के साथ जाने के बाद भी हुड्डा गुट, कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला के बीच हालात सामान्य नहीं है. वहीं चौधरी बीरेंद्र सिंह भी अलग सुर में दिखाई देते हैं. यानी सत्ता पक्ष की चुनौती से ज्यादा कांग्रेस अपनों की चुनौती से घिरी हुई नजर आती है.

दस साल से बिना संगठन चल रही पार्टी: हरियाणा कांग्रेस दस साल से विपक्ष में है, लेकिन इन दस सालों में पार्टी प्रदेश में अपना संगठन खड़ा नहीं कर पाई. कई प्रदेश प्रभारी आए, प्रदेश अध्यक्ष भी बदले, लेकिन संगठन कोई नहीं बना पाया. वहीं चुनाव से पहले संगठन की घोषणा की बात पार्टी प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष ने कई बार कही, लेकिन जमीन पर संगठन नहीं उतर पाया. इसी मुद्दे पर सत्ता पक्ष कांग्रेस को घेरता रहा है और कांग्रेस को पिता पुत्र यानी भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा की पार्टी कहकर संबोधित करता है. पार्टी संगठन इसलिए भी घोषित नहीं कर पाई या यूं कहे नहीं करना चाहती क्योंकि अपनों की गुटबाजी इससे पार्टी को नुकसान कर सकती है. शायद इसलिए ही पार्टी ने पार्टी नेताओं की विधानसभा चुनाव से पहले अलग अलग यात्राओं पर कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन सत्ता पक्ष के पास कांग्रेस की ये कमजोरी एक ऐसा हथियार है. जिसका वो बार बार चुनाव में इस्तेमाल जरूर करेगा.

कांग्रेस के लिए टिकट आवंटन होगी चुनौती: हरियाणा कांग्रेस ने चुनाव के लिए उम्मीदवारों से आवेदन मांगे थे. जिसके तहत 2500 से अधिक लोगों ने अपनी दावेदारी पेश की है. ऐसे में पार्टी के लिए 90 सीटों पर उम्मीदवार घोषित करना बड़ी चुनौती होगी. वहीं बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी की वजह से भी किसी को फाइनल उम्मीदवार बनाना पार्टी के लिए आसान दिखाई नहीं देता है. इस सबके बीच कई बार पार्टी नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा पर विपक्ष और अपनों ने ये आरोप भी लगाए कि उन्होंने एक सीट पर कई लोगों को उम्मीदवार बनाने की बात कही है. वहीं कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला भी उनके करीबियों को टिकट दिलाने के लिए पूरी ताकत लगाएंगे. ऐसे में टिकट वितरण कांग्रेस के लिए चुनौती रहने वाली है.

नॉन जाट वोट बैंक को साधने की चुनौती: हरियाणा में बीजेपी की ताकत करीब 75 फीसद नॉन जाट वोट बैंक रहा है. वहीं कांग्रेस का मुख्य वोट बैंक जाट रहा है. कांग्रेस ये बात अच्छे से जानती है कि अगर पूर्ण बहुमत की सरकार बनानी है, तो उसे सभी वर्गों के वोट बैंक में सेंध लगानी होगी. हालांकि पार्टी इस पर लोकसभा चुनाव और उसके बाद अब विधानसभा चुनाव में इस फैक्टर को बेहतर करने में जुटी है, लेकिन अभी भी बीजेपी की ताकत नॉन वोट बैंक है. जिसके दम पर बीजेपी फिर से हरियाणा में तीसरी बार जीत की उम्मीद कर रही है. वहीं कांग्रेस इसमें सेंधमारी कर वापसी की उम्मीद कर रही है. हालांकि अभी भी कांग्रेस के लिए नॉन जाट वोट बैंक को साधना बड़ी चुनौती है.

बीजेपी सीएम चेहरे के साथ, कांग्रेस में संशय! कांग्रेस और बीजेपी में जो मुख्य अंतर इस वक्त दिखाई देता है. वो ये है कि बीजेपी ने अपना सीएम चेहरा नायब सिंह सैनी के रूप में घोषित किया हुआ है. दूसरी तरफ कांग्रेस सत्ता में आती है, तो सीएम कौन होगा? इसका पार्टी ने कोई ऐलान नहीं किया है. हालांकि ये बात राजनीतिक गलियारों में सभी कहते हैं कि अगर कांग्रेस सरकार बनती है, तो सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही होंगे, लेकिन कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला भी इस दौड़ में शामिल हैं. ऐसे में ये बात कांग्रेस के लिए कुछ हद तक मुश्किल खड़ी कर सकती है. हालांकि ये बात सभी जानते हैं कि कांग्रेस राज्यों के चुनाव बिना चेहरों के ही लड़ती है. विधायक ही जीतने के बाद अपना नेता तय करते हैं, भले ही वो हाईकमान करता हो.

जननायक जनता पार्टी की क्या है चुनौती? साल 2018 में लोकसभा चुनाव से पहले इनेलो से अलग बनी जननायक जनता पार्टी भले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाई थी, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में दस विधायकों की जीत के दम पर पार्टी किंगमेकर की भूमिका में थी. बीजेपी के साथ गठबंधन में करीब साढ़े चार साल सरकार में रही. जेजेपी इस बार विधानसभा चुनाव से पहले संकट के दौर से गुजरती दिखाई दे रही है. पार्टी के चार विधायक खुद को जेजेपी से इस्तीफा दे चुके हैं. दो के खिलाफ पहले ही पार्टी ने विधानसभा स्पीकर के सामने उनकी सदस्यता रद्द करने की याचिका लगाई हुई है. इतना ही नहीं एक विधायक रामकुमार गौतम शुरुआत से ही पार्टी के खिलाफ बोलते रहे हैं. ऐसे में अब दस में से सिर्फ तीन विधायक ( दुष्यंत चौटाला, नैना चौटाला और अमरजीत ढांडा) ही पार्टी में दिखाई देते हैं. यानी पार्टी का बिखराव जेजेपी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है. पार्टी की इस बार चुनौती तो 90 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की भी रहेगी. इसके साथ ही बीजेपी के साथ जाने से किसानों में पार्टी के जनाधार को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करना भी चुनौती है.

क्या है इनेलो-बसपा गठबंधन की चुनौती? इंडियन नेशनल लोकदल को पार्टी के टूटने का 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा था. पार्टी बड़ी लीडरशिप जेजेपी के साथ चली गई थी. बावजूद इसके इनेलो ने हार नहीं मानी. हालांकि 2019 में पार्टी का एक ही विधायक जीत पाया था. बावजूद इसके इस बार इनेलो बीएसपी के सहारे बड़ी ताकत बनना चाह रही है, लेकिन इनेलो की चुनौती यह है कि क्या बीजेपी और कांग्रेस की दिख रही लड़ाई में वह कुछ कर पाएगी? क्या बसपा का साथ इनेलो को उभार पाएगा? यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब चुनावी नतीजे बताएंगे. लेकिन इस गठबंधन के साथ कौन सा वोट बैंक जाएगा यह भी बड़ा प्रश्न है.

आम आदमी पार्टी की राह नहीं आसान: आम आदमी पार्टी हरियाणा में लंबे वक्त से खुद के लिए राजनीतिक जमीन तलाश रही है, लेकिन उसे अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिल पाई है. हालांकि इंडिया गठबंधन के तहत एक लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ी पार्टी दूसरे स्थान पर रही, लेकिन इसमें कहीं ना कहीं कांग्रेस का भी योगदान रहा. ऐसे में इस बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही आप को लग रहा है कि वो कोई करिश्मा कर पाएगी. दिल्ली के बाद पंजाब में जीतने वाली आम आदमी पार्टी की हरियाणा में जीत की राह आसान नहीं लग रही है. क्या हरियाणा में आप कुछ कर पाएगी बड़ा सवाल है. वहीं हरियाणा में मुकाबला दो पार्टियों का ही दिख रहा है. ऐसे में आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद के लिए राह खोजने की है. वहीं पार्टी के लिए सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना भी किसी चुनौती से कम नहीं रहेगा.

ये भी पढ़ें- हरियाणा विधानसभा चुनाव की तारीख का ऐलान, जानें पूरा शेड्यूल - Haryana Election Schedule

ये भी पढ़ें- चुनाव का ऐलान होते ही JJP में भगदड़! 2 दिन में 4 विधायकों का इस्तीफा, इस पार्टी में जाने की चर्चा - Resignation of MLAs in JJP

चंडीगढ़: हरियाणा विधानसभा चुनाव की घोषणा हो चुकी है. 1 अक्टूबर को राज्य में मतदान होगा और 4 को नतीजे घोषित होंगे. हरियाणा में चुनाव के ऐलान के बाद सभी राजनीतिक दल के नेता चुनावी दंगल में उतर गए हैं. सभी दलों के सामने कई चुनौतियां हैं. जिनसे उनको पार पाना है.

सत्ताधारी बीजेपी के सामने क्या है चुनौतियां? हरियाणा में दस साल से बीजेपी की सरकार हैं. ऐसे में तीसरी बार सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है, लेकिन तीसरी बार सत्ता में काबिज होने की उनकी राह आसान दिखाई नहीं देती. इस बार बीजेपी के सामने कई चुनौतियां हैं. जिनको पार पाना आसान नहीं है. हालांकि अंतिम वक्त में सीएम का चेहरा बदल कर बीजेपी ने खुद को फिर से मैदान में लाने की कोशिश तो की है, लेकिन फिर भी बीजेपी के लिए दस साल का शासन सबसे बड़ी चुनौती है.

दस साल की एंटी इनकंबेंसी से पार पाना चुनौती: बीजेपी के सामने इस चुनाव में सबसे बड़ी चुनौती एंटी इनकंबेंसी फैक्टर से पार पाने की है. पार्टी के दस साल के शासन के बाद लोगों में जो सरकार के खिलाफ एक माहौल बना है. उसको पार पाना बीजेपी के लिए सबसे बड़ा मसला है. हालांकि अंतिम वक्त में सीएम चेहरा बदलकर बीजेपी ने एंटी इनकंबेंसी फैक्टर को कम करने की कोशिश जरूर कि लेकिन उसका कितना फायदा चुनाव में मिलेगा ये चुनावी नतीजे से बता पाएंगे.

ग्रामीण जनता और किसान भी बीजेपी से नाराज: बीजेपी को लोकसभा चुनाव में ग्रामीण क्षेत्र की जनता और किसानों का विरोध झेलना पड़ा. वहीं सरपंचों की नाराजगी भी पार्टी को भारी पड़ी. इन सभी फैक्टर पर मौजूदा सीएम नायब सैनी ने काम भी किया. उन्होंने जहां सरपंचों की मांगों को पूरा करने की कोशिश की. किसानों के हक में हरियाणा में सभी फसलें एमएसपी पर खरीदने की घोषणा भी कर दी. ग्रामीण इलाकों के विकास पर भी फोकस किया, लेकिन इसमें कहीं ना कहीं देर हो गई. जिसकी वजह से अभी भी बीजेपी को ये सभी फैक्टर विधानसभा चुनाव में भारी पड़ सकते हैं.

रोजगार का मुद्दा भी BJP पर भारी पड़ सकता है: हरियाणा में बेरोजगारी को लेकर विपक्ष बीते सालों से लगातार सरकार पर हमलावर रहा है. विपक्ष रेगुलर नौकरी ना दे पाने का आरोप सत्ता पक्ष पर लगता रहा है. वहीं सरकारी विभागों में करीब दो लाख पद खाली होने की बात करता है. एचकेआरएम के जरिए नौकरियां देने को भी विपक्ष मुद्दा बनाए हुए है. हालांकि सत्ता पक्ष पूर्व की हुड्डा सरकार से अधिक नौकरियां बिना खर्ची पर्ची के देने की बात करता है, लेकिन बावजूद इसके रोजगार का मुद्दा भी सत्ता पक्ष को चुनाव में परेशान कर सकता है.

ओल्ड पेंशन स्कीम को लेकर कर्मचारी भी मुखर: हरियाणा में एक बहुत बड़ा वर्ग कर्मचारियों का है. कर्मचारी काफी लंबे वक्त से अपनी ओल्ड पेंशन स्कीम की मांग को लेकर सड़कों पर है. ऐसे में इस विधानसभा चुनाव में ये मुद्दा भी सत्ता पक्ष को परेशान कर सकता है, क्योंकि विपक्ष यानी कांग्रेस लगातार ओल्ड पेंशन स्कीम को उनकी सरकार आने पर लागू करने की बात कह रही हैं. ऐसे में ये मुद्दा सत्ता पक्ष को चुनाव में भारी पड़ सकता है.

कार्यकर्ताओं की नाराजगी का भी खतरा: लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने कार्यकर्ताओं की नाराजगी का भी सामना करना पड़ा था, क्योंकि सरकार के करीब जो लोग रहे उनका बैकग्राउंड बीजेपी का नहीं रहा. लेकिन वे सरकार की आंखों के तारे रहे. लोकसभा चुनाव में कुछ ऐसे चेहरों पर पार्टी ने दांव खेला. जो एकदम से पार्टी से जुड़े. जैसे अशोक तंवर आप से बीजेपी में आए और उनको लोकसभा की टिकट मिल गया. वहीं रणजीत चौटाला और नवीन जिंदल भी पार्टी में शामिल होते ही उम्मीदवार बन गए. इससे कहीं ना कहीं बीजेपी के पुराने नेताओं में अंदर खाते नाराजगी बीजेपी को लोकसभा चुनाव में भारी पड़ गई. हालांकि अगर विधानसभा चुनाव में पार्टी उस नाराजगी को दूर करने में कामयाब होती है तो शायद हालत बदल सकते हैं.

कांग्रेस के लिए क्या हैं चुनौतियां? हरियाणा की सत्ता से दस साल से दूर कांग्रेस इस वक्त हरियाणा में वापसी की पूरी उम्मीद के साथ अपने चुनावी अभियान में जुटी है. दस साल सत्ता से दूर रहने से उसके खिलाफ वैसे तो कोई बड़े मुद्दे नहीं है, लेकिन बावजूद इसके पार्टी की समस्या बाहर से कम अन्दर से ज्यादा है. यानी अपनों से पार्टी को ज्यादा नुकसान हो सकता है.

कांग्रेस में खत्म नहीं हो पाई गुटबाजी! हरियाणा कांग्रेस लंबे वक्त से गुटबाजी की शिकार रही है. ये गुटबाजी साल 2014 हो या फिर साल 2019 के विधानसभा चुनाव. दोनों में पार्टी को भारी पड़ी, लेकिन दस साल विपक्ष में रहने के बाद भी पार्टी की ये गुटबाजी खत्म नहीं हो पाई. कभी एसआरके गुट (कुमारी सैलजा, रणदीप सुरजेवाला और किरण चौधरी) पार्टी के लिए हुड्डा गुट के सामने चुनौती रहे. अभी भी किरण चौधरी के बीजेपी के साथ जाने के बाद भी हुड्डा गुट, कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला के बीच हालात सामान्य नहीं है. वहीं चौधरी बीरेंद्र सिंह भी अलग सुर में दिखाई देते हैं. यानी सत्ता पक्ष की चुनौती से ज्यादा कांग्रेस अपनों की चुनौती से घिरी हुई नजर आती है.

दस साल से बिना संगठन चल रही पार्टी: हरियाणा कांग्रेस दस साल से विपक्ष में है, लेकिन इन दस सालों में पार्टी प्रदेश में अपना संगठन खड़ा नहीं कर पाई. कई प्रदेश प्रभारी आए, प्रदेश अध्यक्ष भी बदले, लेकिन संगठन कोई नहीं बना पाया. वहीं चुनाव से पहले संगठन की घोषणा की बात पार्टी प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष ने कई बार कही, लेकिन जमीन पर संगठन नहीं उतर पाया. इसी मुद्दे पर सत्ता पक्ष कांग्रेस को घेरता रहा है और कांग्रेस को पिता पुत्र यानी भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके बेटे दीपेंद्र हुड्डा की पार्टी कहकर संबोधित करता है. पार्टी संगठन इसलिए भी घोषित नहीं कर पाई या यूं कहे नहीं करना चाहती क्योंकि अपनों की गुटबाजी इससे पार्टी को नुकसान कर सकती है. शायद इसलिए ही पार्टी ने पार्टी नेताओं की विधानसभा चुनाव से पहले अलग अलग यात्राओं पर कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन सत्ता पक्ष के पास कांग्रेस की ये कमजोरी एक ऐसा हथियार है. जिसका वो बार बार चुनाव में इस्तेमाल जरूर करेगा.

कांग्रेस के लिए टिकट आवंटन होगी चुनौती: हरियाणा कांग्रेस ने चुनाव के लिए उम्मीदवारों से आवेदन मांगे थे. जिसके तहत 2500 से अधिक लोगों ने अपनी दावेदारी पेश की है. ऐसे में पार्टी के लिए 90 सीटों पर उम्मीदवार घोषित करना बड़ी चुनौती होगी. वहीं बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी की वजह से भी किसी को फाइनल उम्मीदवार बनाना पार्टी के लिए आसान दिखाई नहीं देता है. इस सबके बीच कई बार पार्टी नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा पर विपक्ष और अपनों ने ये आरोप भी लगाए कि उन्होंने एक सीट पर कई लोगों को उम्मीदवार बनाने की बात कही है. वहीं कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला भी उनके करीबियों को टिकट दिलाने के लिए पूरी ताकत लगाएंगे. ऐसे में टिकट वितरण कांग्रेस के लिए चुनौती रहने वाली है.

नॉन जाट वोट बैंक को साधने की चुनौती: हरियाणा में बीजेपी की ताकत करीब 75 फीसद नॉन जाट वोट बैंक रहा है. वहीं कांग्रेस का मुख्य वोट बैंक जाट रहा है. कांग्रेस ये बात अच्छे से जानती है कि अगर पूर्ण बहुमत की सरकार बनानी है, तो उसे सभी वर्गों के वोट बैंक में सेंध लगानी होगी. हालांकि पार्टी इस पर लोकसभा चुनाव और उसके बाद अब विधानसभा चुनाव में इस फैक्टर को बेहतर करने में जुटी है, लेकिन अभी भी बीजेपी की ताकत नॉन वोट बैंक है. जिसके दम पर बीजेपी फिर से हरियाणा में तीसरी बार जीत की उम्मीद कर रही है. वहीं कांग्रेस इसमें सेंधमारी कर वापसी की उम्मीद कर रही है. हालांकि अभी भी कांग्रेस के लिए नॉन जाट वोट बैंक को साधना बड़ी चुनौती है.

बीजेपी सीएम चेहरे के साथ, कांग्रेस में संशय! कांग्रेस और बीजेपी में जो मुख्य अंतर इस वक्त दिखाई देता है. वो ये है कि बीजेपी ने अपना सीएम चेहरा नायब सिंह सैनी के रूप में घोषित किया हुआ है. दूसरी तरफ कांग्रेस सत्ता में आती है, तो सीएम कौन होगा? इसका पार्टी ने कोई ऐलान नहीं किया है. हालांकि ये बात राजनीतिक गलियारों में सभी कहते हैं कि अगर कांग्रेस सरकार बनती है, तो सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा ही होंगे, लेकिन कुमारी सैलजा और रणदीप सुरजेवाला भी इस दौड़ में शामिल हैं. ऐसे में ये बात कांग्रेस के लिए कुछ हद तक मुश्किल खड़ी कर सकती है. हालांकि ये बात सभी जानते हैं कि कांग्रेस राज्यों के चुनाव बिना चेहरों के ही लड़ती है. विधायक ही जीतने के बाद अपना नेता तय करते हैं, भले ही वो हाईकमान करता हो.

जननायक जनता पार्टी की क्या है चुनौती? साल 2018 में लोकसभा चुनाव से पहले इनेलो से अलग बनी जननायक जनता पार्टी भले ही 2019 के लोकसभा चुनाव में कुछ खास नहीं कर पाई थी, लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव में दस विधायकों की जीत के दम पर पार्टी किंगमेकर की भूमिका में थी. बीजेपी के साथ गठबंधन में करीब साढ़े चार साल सरकार में रही. जेजेपी इस बार विधानसभा चुनाव से पहले संकट के दौर से गुजरती दिखाई दे रही है. पार्टी के चार विधायक खुद को जेजेपी से इस्तीफा दे चुके हैं. दो के खिलाफ पहले ही पार्टी ने विधानसभा स्पीकर के सामने उनकी सदस्यता रद्द करने की याचिका लगाई हुई है. इतना ही नहीं एक विधायक रामकुमार गौतम शुरुआत से ही पार्टी के खिलाफ बोलते रहे हैं. ऐसे में अब दस में से सिर्फ तीन विधायक ( दुष्यंत चौटाला, नैना चौटाला और अमरजीत ढांडा) ही पार्टी में दिखाई देते हैं. यानी पार्टी का बिखराव जेजेपी के लिए सबसे बड़ी मुश्किल है. पार्टी की इस बार चुनौती तो 90 सीटों पर उम्मीदवार उतारने की भी रहेगी. इसके साथ ही बीजेपी के साथ जाने से किसानों में पार्टी के जनाधार को जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करना भी चुनौती है.

क्या है इनेलो-बसपा गठबंधन की चुनौती? इंडियन नेशनल लोकदल को पार्टी के टूटने का 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा था. पार्टी बड़ी लीडरशिप जेजेपी के साथ चली गई थी. बावजूद इसके इनेलो ने हार नहीं मानी. हालांकि 2019 में पार्टी का एक ही विधायक जीत पाया था. बावजूद इसके इस बार इनेलो बीएसपी के सहारे बड़ी ताकत बनना चाह रही है, लेकिन इनेलो की चुनौती यह है कि क्या बीजेपी और कांग्रेस की दिख रही लड़ाई में वह कुछ कर पाएगी? क्या बसपा का साथ इनेलो को उभार पाएगा? यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब चुनावी नतीजे बताएंगे. लेकिन इस गठबंधन के साथ कौन सा वोट बैंक जाएगा यह भी बड़ा प्रश्न है.

आम आदमी पार्टी की राह नहीं आसान: आम आदमी पार्टी हरियाणा में लंबे वक्त से खुद के लिए राजनीतिक जमीन तलाश रही है, लेकिन उसे अभी तक कोई बड़ी कामयाबी नहीं मिल पाई है. हालांकि इंडिया गठबंधन के तहत एक लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ी पार्टी दूसरे स्थान पर रही, लेकिन इसमें कहीं ना कहीं कांग्रेस का भी योगदान रहा. ऐसे में इस बार सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही आप को लग रहा है कि वो कोई करिश्मा कर पाएगी. दिल्ली के बाद पंजाब में जीतने वाली आम आदमी पार्टी की हरियाणा में जीत की राह आसान नहीं लग रही है. क्या हरियाणा में आप कुछ कर पाएगी बड़ा सवाल है. वहीं हरियाणा में मुकाबला दो पार्टियों का ही दिख रहा है. ऐसे में आम आदमी पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद के लिए राह खोजने की है. वहीं पार्टी के लिए सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारना भी किसी चुनौती से कम नहीं रहेगा.

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