देहरादून (उत्तराखंड): हालांकि यह सुनने में बेहद अजीब लगेगा, लेकिन आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी, यदि आपसे ये कहा जाए कि पहाड़ों पर या हिमालय में निरंतर होने वाले भूस्खलन न होते, तो यहां पर मानव सभ्यताएं भी विकसित नहीं हो पातीं. या फिर यह जो मानव सभ्यता, खास तौर से जो उच्च हिमालय क्षेत्र में सदियों से फलती फूलती आ रही है, बिना लैंडलाइन के यहां की जीवन शैली इतनी समृद्ध नहीं बन पाती. ऐसा कैसे जो भूस्खलन अक्सर लोगों की जान ले रहा है, वो कैसे जीवन को यहां आसान बनाते आए हैं, आइए जानते हैं.
आज भूस्खलन बना है समस्या: आज पूरे देश भर में भूस्खलन एक बड़ी समस्या है. साउथ में वायनाड से लेकर के हिमाचल के मंडी में और उत्तराखंड की बात करें तो केदारनाथ धाम जाने वाले मार्ग पर इस साल भारी भूस्खलन देखने को मिला. यहां पर कई लोगों के जान माल का नुकसान हुआ है. जानलेवा भूस्खलन को लेकर जहां सरकारों द्वारा कई एडवाइजरी जारी की जाती हैं, तो वहीं शोधकर्ता भी इस पर लगातार शोध कर रहे हैं कि किस तरह से लैंडस्लाइड को रोका जाए.
धरती की खूबसूरत घटनाओं में से एक है लैंडस्लाइड! पहाड़ों पर होने वाले जानलेवा लैंडस्लाइडों का एक और अनकहा और अनसुना पहलू भी मौजूद है. दरअसल भूस्खलन लैंडफॉर्म मोडिफाइंग प्रक्रिया की एक बेहद खूबसूरत और पावरफुल घटना है. जब से हिमालय के पहाड़ बने हैं, निरंतर यह प्रक्रिया जारी है. हम, आप और सरकारें चाहे जितना चाहें, लेकिन इन भूस्खलनों पर नियंत्रण लगाना असंभव है. ऐसा इसलिए क्योंकि यह प्रकृति के गुरुत्वाकर्षण के नियम के खिलाफ होगा. क्योंकि धरती पर जो भी वस्तु हाई एनर्जी स्टेट में है, उसका नीचे आना तय है. वह आज नहीं तो कल नीचे जरूर आएगी. इसी तरह से उत्तराखंड में जब तक पहाड़ हैं, भूस्खलन की प्रक्रिया जारी रहेगी.
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हिमालय में लैंडस्लाइड नहीं होते तो जीवन भी मुश्किल होता: वरिष्ठ वैज्ञानिक पीयूष रौतेला जो कि पिछले 30 सालों से उत्तराखंड आपदा प्रबंधन में कार्यरत थे और आपदा प्रबंधन को लेकर इनका एक लंबा अनुभव है, उनका कहना है कि यह भले ही सुनने में बेहद अजीब लगे, लेकिन यदि उत्तराखंड में या फिर हिमालय रीजन में लैंडस्लाइड नहीं होते, तो यहां पर हैबिटेशन भी नहीं होता. अगर हैबिटेशन होता भी तो इतना रिच हैबिटेशन को यहां फलने-फूलने में इतनी आसानी ना होती. इसमें सबसे पहला बड़ा कारण है पीने के पानी का.
डॉ पीयूष रौतेला बताते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ों में खूब पानी बरसता है. लेकिन यह पानी बह कर नीचे चला जाता है. मैदान की तरह यहां पर भूमिगत जल भी उपलब्ध नहीं हो पाता है. लेकिन लैंडस्लाइड वाली जगह इस पानी को रोक कर रखती है. वहां पर सॉइल फॉर्मेशन बिल्कुल नया होता है. इसलिए वहां पर पानी की उपलब्धता होती है. यह पानी स्रोत के जरिए उपलब्ध होता है. इसी तरह से खेती के लिए भी पक्के पहाड़ वाली जगह की तुलना में पुराने भूस्खलन वाली जगह पर खेती करना आसान होता है. क्योंकि वहां पर सॉइल फॉर्मेशन बिल्कुल नया होता है. इसलिए वह भूमि भी बेहद उपजाऊ होती है.
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इस तरह से हमारे क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने भूस्खलन के रूप में घट रही प्राकृतिक घटना को बखूबी समझा. इससे किस तरह से लाभ लिए जा सकते हैं, उसे यहां पर शुरुआती दौर में आए लोगों ने समझा. लोगों को पेयजल और खेती के लिए काम का पानी मिल गया.
खेती और पानी का लाभ लिया, लेकिन निवास भूस्खलन से दूर बनाए: वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ पीयूष रौतेला बताते हैं कि सैकड़ों साल पहले जब हिमालय में मानवीय सभ्यता विकसित हुई, तो उस समय लोगों ने पहाड़ों को समझा. प्रकृति को समझा और उसके हिसाब से यहां पर मानवीय जीवन फला फूला. वह बताते हैं कि पुराने लोगों ने इस बात को बेहद अच्छे से समझा कि भूस्खलन उनके लिए जहां एक तरफ पानी और खेती के लिहाज से बेहद उपयोगी है, वहीं घटना के लिहाज से बेहद जोखिम भरा. इसीलिए पुरानी बसावटें सीधे-सीधे लैंडस्लाइड के ऊपर ना विकसित करके पुराने और बड़े लैंडस्लाइड के नजदीक ऊंचाई वाली जगह पर विकसित की गई.
इसके उदाहरण आज उत्तराखंड में कई जगहों पर देखने को मिलते हैं. आज ऐसे कई पुराने गांव या फिर कुछ शुरुआती बसावे हैं, जो कि काफी ऊंचाई पर हैं, लेकिन वह सॉलिड रॉक्स के ऊपर बनाई गई हैं. उत्तराखंड के सभी पुराने पारंपरिक गांव इन बातों का विशेष ध्यान करके बसाए जाते थे. हालांकि ये लोग पानी और खेती के लिए फिर भी नीचे लैंडस्लाइड वाली जगह पर निर्भर रहते थे. मेहनत करके काफी दूर से पानी और खेती के लिए काम करते थे.
आधुनिक दौर में अव्यवस्थित विकास ने पुरानी समझ को किया दरकिनार: वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ पीयूष रौतेला बताते हैं कि हिमालय में शुरुआती दौर में बसने वाले लोगों ने अपनी सुरक्षा को प्राथमिकता दी, ना की सहूलियत को. वह बताते हैं कि शुरुआत में हिमालय में बसने आए लोगों का रवैया आज के लोगों की तरह नहीं था. हिमालय में शुरुआती बसावट ज्यादातर बड़े लैंडस्लाइड के नजदीक और ऊंचाई वाली जगह पर विकसित हुई. लेकिन उन लोगों ने सीधे-सीधे लैंडस्लाइड के ऊपर अपने घर या फिर कोई भी निर्माण नहीं किया, क्योंकि वह जानते थे कि यह बेहद जोखिम भरा है. इसके अलावा उन लोगों ने पानी और खेती की उपलब्धता के आधार पर फैसला लिया कि कहां पर कितने लोग बस सकते हैं. इसे आज मॉडल टर्म में केयरिंग कैपेसिटी भी कहा जाता है. उससे अधिक लोगों को वहां नहीं बसाया गया. उनके लिए नई अनुकूल जगह खोजी गई और नए गांव बसाए गए.
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आज ऐसा नहीं है, अब लोग अपनी सहूलियत को ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं. डॉ पीयूष रौतेला बताते हैं कि कुछ हिमालयी क्षेत्रों में लगातार आबादी बढ़ती गई और छोटे-छोटे कस्बों और गांव में लोगों का दबाव बढ़ता गया. पहाड़ों में सुविधा बढ़ी. लोक पर्यटन और अन्य कार्यों से ज्यादा आबादी बढ़ी तो उनके लिए ज्यादा आवास की जरूरत हुई, जो कि उत्तराखंड में बेहद सीमित है. इसलिए जो कि शुरुआती दौर के लोगों की ट्रेडिशनल प्रैक्टिस थी कि खेती वाली जमीन पर नहीं बसेंगे, उसे सबसे पहले दरकिनार किया गया. खेती वाली जमीनों पर भी मकान बनने शुरू हुए. लोग बढ़ने लगे तो पुराने पारंपरिक वासों की जगह मल्टी स्टोरी कंक्रीट बिल्डिंग बनने का चलन शुरू हुआ. लोग अपेक्षाकृत ऊंचाई और सॉलिड रॉक्स वाली जगह की तुलना में नदी किनारे बनी सड़कों और सुविधा को ढूंढते हुए अपने निवास स्थान वहां पर बनाने लगे. लंबे समय से लगातार यहां की ट्रेडिशनल प्रैक्टिस में आया यह अंतर आज लोगों के लिए मुश्किल का सबब बन रहा है.
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