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शाह बानो से शुरू हुआ मुस्लिम महिलाओं के गुजारा-भत्ता का विवाद, धारा 125 पर क्या है टकराव, जानें - Muslim Women Maintenance

Divorce Muslim Women Maintenance: सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिसिक फैसले में साफ कर दिया है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला पूर्व पति से गुजारा-भत्ता की मांग कर सकती है. भरण-पोषण के लिए मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार है. जानें सीआरपीसी की धारा 125 क्या है और गुजारा-भत्ते को लेकर क्या है विवाद.

Divorce Muslim Women Maintenance
प्रतीकात्मक तस्वीर (ANI)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jul 10, 2024, 6:15 PM IST

Updated : Jul 10, 2024, 6:38 PM IST

हैदराबाद: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं को गुजारा-भत्ता पाने का मौलिक अधिकार है. शीर्ष अदालत ने पूर्व पत्नी को अंतरिम गुजारा-भत्ता देने के निर्देश के खिलाफ मुस्लिम व्यक्ति की याचिका को खारिज करते हुए यह आदेश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट इस विशष पर विचार करने के लिए तैयार है कि क्या एक मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार है.

सीआरपीसी की धारा 125 क्या है:
सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जो एक व्यक्ति को अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण देने को कहती है, अगर वे खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं. यह धारा सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होती है, चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले हों. तलाकशुदा महिलाओं के लिए यह धारा पात्रता की कोई समय सीमा का उल्लेख किए बिना भरण-पोषण का दावा करने की अनुमति देती है, अगर वे खुद से अपना गुजारा नहीं कर सकती हैं.

तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले

चर्चित शाह बानो मामला: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के मुद्दे का इतिहास 1985 से है, जब सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से उस समय फैसला सुनाया था कि सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है, जो मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है. हालांकि, समाज के कुछ वर्गों द्वारा इस फैसले को स्वीकार नहीं किया गया और इसे धार्मिक, व्यक्तिगत कानूनों पर हमले के रूप में देखा गया.

विवाद के बाद तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 को लागू करके अदालत के फैसले को रद्द करने का प्रयास किया. यह अधिनियम में मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को तलाक के 90 दिनों (इद्दत अवधि) तक सीमित कर दिया गया था.

2001: साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन आदेश पारित किया कि तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने का पुरुष का दायित्व तब तक जारी रहेगा, जब तक वह दोबारा शादी नहीं कर लेती या खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हो जाती.

मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 की संवैधानिक वैधता को वर्ष 2001 में डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई.

सुप्रीम कोर्ट ने विशेष कानून की वैधता को बरकरार रखा. हालांकि यह स्पष्ट किया कि 1986 के अधिनियम के तहत तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए मुस्लिम पति का दायित्व इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है.

2007: साल 2007 में इकबाल बानो बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कोई भी मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर नहीं कर सकती.

2009: शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने माना कि अगर मुस्लिम महिला का तलाक हो चुका है, फिर भी वह इद्दत अवधि समाप्त होने के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह दोबारा शादी नहीं कर लेती.

2015: शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बहाल किया, जिसमें तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने का अधिकार दिया गया था.

2019: 2019 में, जस्टिस ए अमानुल्लाह (पटना हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में) ने एक फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें मुस्लिम महिला की भरण-पोषण की याचिका को खारिज कर दिया गया था. कोर्ट ने माना कि मुस्लिम महिला के पास 1986 के अधिनियम के साथ-साथ सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के लिए याचिका दायर करने का विकल्प है. अगर वह सीआरपीसी की शरण लेती है, तो उसे तलाकशुदा मुस्लिम महिला होने के कारण कानून के तहत वंचित नहीं कहा जा सकता.

अदालतों की कुछ हालिया टिप्पणी

इलाहाबाद हाईकोर्ट

शकीला खातून बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2023) के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत इद्दत के बाद की अवधि के लिए या अपने पूरे जीवन के लिए भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है, जब तक कि वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह बंधन में बंध नहीं जाती है.

रजिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) केस में, एकल पीठ ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत इद्दत अवधि समाप्त होने के बाद भी अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह दोबारा शादी न कर ले.

अर्शिया रिजवी और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2022) केस में हाईकोर्ट की एकल पीठ ने कहा कि मुस्लिम महिला अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है.

केरल हाईकोर्ट

नौशाद फ्लोरिश बनाम अखिला नौशाद एवं अन्य (2023) केस में केरल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने माना कि एक मुस्लिम महिला जिसने 'खुला' प्रक्रिया के तहत पति से तलाक लिया है, वह खुला लेने के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती.

मुजीब रहमान बनाम थसलीना एवं अन्य (2022) केस में, एकल पीठ ने फैसला सुनाया कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग तब तक कर सकती है, जब तक कि उसे 1986 अधिनियम की धारा 3 के तहत गुजारा-भत्ता नहीं मिल जाता. फैसले में यह भी कहा गया कि धारा 125 के तहत पारित आदेश तब तक लागू रहेगा जब तक कि विशेष अधिनियम की धारा 3 के तहत देय राशि का भुगतान नहीं किया जाता.

मुस्लिम महिलाओं में तलाक दर सबसे अधिक

  • 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में मुस्लिम महिलाओं में तलाक दर देश की औसत दर 0.24 प्रतिशत से लगभग दोगुनी है. भारत में मुस्लिम महिलाएं तलाक की सबसे अधिक दर वाले समुदायों में शामिल हैं.
  • जनगणना के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि सभी विवाहित मुस्लिम महिलाओं में, 20 से 34 वर्ष की उम्र के बीच की महिलाओं के तलाक होने की संभावना सबसे अधिक है, जो समान आयु वर्ग के किसी भी अन्य धार्मिक समुदाय की तुलना में अधिक है.
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं में से लगभग 44 प्रतिशत 20 से 34 वर्ष की आयु वर्ग की हैं, जबकि यह आयु वर्ग कुल मुस्लिम आबादी का 24 प्रतिशत है.
  • संख्या के लिहाज से देखें तो भारत की आबादी में लगभग 80 प्रतिशत हिंदू हैं. हालांकि, मुसलमानों की तलाक दर 0.64 प्रतिशत है, जो हिंदुओं (0.20 प्रतिशत) से कहीं ज्यादा है.

यह भी पढ़ें- 'सेक्युलर कानून ही चलेगा', मुस्लिम महिलाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

हैदराबाद: सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं को गुजारा-भत्ता पाने का मौलिक अधिकार है. शीर्ष अदालत ने पूर्व पत्नी को अंतरिम गुजारा-भत्ता देने के निर्देश के खिलाफ मुस्लिम व्यक्ति की याचिका को खारिज करते हुए यह आदेश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट इस विशष पर विचार करने के लिए तैयार है कि क्या एक मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने की हकदार है.

सीआरपीसी की धारा 125 क्या है:
सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जो एक व्यक्ति को अपनी पत्नी, बच्चों और माता-पिता को भरण-पोषण देने को कहती है, अगर वे खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं. यह धारा सभी भारतीय नागरिकों पर लागू होती है, चाहे वे किसी भी धर्म को मानने वाले हों. तलाकशुदा महिलाओं के लिए यह धारा पात्रता की कोई समय सीमा का उल्लेख किए बिना भरण-पोषण का दावा करने की अनुमति देती है, अगर वे खुद से अपना गुजारा नहीं कर सकती हैं.

तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले

चर्चित शाह बानो मामला: तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के मुद्दे का इतिहास 1985 से है, जब सुप्रीम कोर्ट ने मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से उस समय फैसला सुनाया था कि सीआरपीसी की धारा 125 एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है, जो मुस्लिम महिलाओं पर भी लागू होता है. हालांकि, समाज के कुछ वर्गों द्वारा इस फैसले को स्वीकार नहीं किया गया और इसे धार्मिक, व्यक्तिगत कानूनों पर हमले के रूप में देखा गया.

विवाद के बाद तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 को लागू करके अदालत के फैसले को रद्द करने का प्रयास किया. यह अधिनियम में मुस्लिम महिलाओं के भरण-पोषण के अधिकार को तलाक के 90 दिनों (इद्दत अवधि) तक सीमित कर दिया गया था.

2001: साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन आदेश पारित किया कि तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने का पुरुष का दायित्व तब तक जारी रहेगा, जब तक वह दोबारा शादी नहीं कर लेती या खुद का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हो जाती.

मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 की संवैधानिक वैधता को वर्ष 2001 में डेनियल लतीफी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई.

सुप्रीम कोर्ट ने विशेष कानून की वैधता को बरकरार रखा. हालांकि यह स्पष्ट किया कि 1986 के अधिनियम के तहत तलाकशुदा पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए मुस्लिम पति का दायित्व इद्दत अवधि तक सीमित नहीं है.

2007: साल 2007 में इकबाल बानो बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि कोई भी मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर नहीं कर सकती.

2009: शबाना बानो बनाम इमरान खान मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक अन्य पीठ ने माना कि अगर मुस्लिम महिला का तलाक हो चुका है, फिर भी वह इद्दत अवधि समाप्त होने के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह दोबारा शादी नहीं कर लेती.

2015: शमीमा फारूकी बनाम शाहिद खान (2015) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैमिली कोर्ट के उस आदेश को बहाल किया, जिसमें तलाकशुदा मुस्लिम महिला को भरण-पोषण के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत याचिका दायर करने का अधिकार दिया गया था.

2019: 2019 में, जस्टिस ए अमानुल्लाह (पटना हाईकोर्ट में न्यायाधीश के रूप में) ने एक फैमिली कोर्ट के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें मुस्लिम महिला की भरण-पोषण की याचिका को खारिज कर दिया गया था. कोर्ट ने माना कि मुस्लिम महिला के पास 1986 के अधिनियम के साथ-साथ सीआरपीसी के तहत भरण-पोषण के लिए याचिका दायर करने का विकल्प है. अगर वह सीआरपीसी की शरण लेती है, तो उसे तलाकशुदा मुस्लिम महिला होने के कारण कानून के तहत वंचित नहीं कहा जा सकता.

अदालतों की कुछ हालिया टिप्पणी

इलाहाबाद हाईकोर्ट

शकीला खातून बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2023) के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की एकल पीठ ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत इद्दत के बाद की अवधि के लिए या अपने पूरे जीवन के लिए भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है, जब तक कि वह किसी अन्य व्यक्ति से विवाह बंधन में बंध नहीं जाती है.

रजिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022) केस में, एकल पीठ ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत इद्दत अवधि समाप्त होने के बाद भी अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार होगी, जब तक कि वह दोबारा शादी न कर ले.

अर्शिया रिजवी और अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2022) केस में हाईकोर्ट की एकल पीठ ने कहा कि मुस्लिम महिला अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा करने की हकदार है.

केरल हाईकोर्ट

नौशाद फ्लोरिश बनाम अखिला नौशाद एवं अन्य (2023) केस में केरल हाईकोर्ट की एकल पीठ ने माना कि एक मुस्लिम महिला जिसने 'खुला' प्रक्रिया के तहत पति से तलाक लिया है, वह खुला लेने के बाद सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण-पोषण का दावा नहीं कर सकती.

मुजीब रहमान बनाम थसलीना एवं अन्य (2022) केस में, एकल पीठ ने फैसला सुनाया कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की मांग तब तक कर सकती है, जब तक कि उसे 1986 अधिनियम की धारा 3 के तहत गुजारा-भत्ता नहीं मिल जाता. फैसले में यह भी कहा गया कि धारा 125 के तहत पारित आदेश तब तक लागू रहेगा जब तक कि विशेष अधिनियम की धारा 3 के तहत देय राशि का भुगतान नहीं किया जाता.

मुस्लिम महिलाओं में तलाक दर सबसे अधिक

  • 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में मुस्लिम महिलाओं में तलाक दर देश की औसत दर 0.24 प्रतिशत से लगभग दोगुनी है. भारत में मुस्लिम महिलाएं तलाक की सबसे अधिक दर वाले समुदायों में शामिल हैं.
  • जनगणना के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि सभी विवाहित मुस्लिम महिलाओं में, 20 से 34 वर्ष की उम्र के बीच की महिलाओं के तलाक होने की संभावना सबसे अधिक है, जो समान आयु वर्ग के किसी भी अन्य धार्मिक समुदाय की तुलना में अधिक है.
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि कुल तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं में से लगभग 44 प्रतिशत 20 से 34 वर्ष की आयु वर्ग की हैं, जबकि यह आयु वर्ग कुल मुस्लिम आबादी का 24 प्रतिशत है.
  • संख्या के लिहाज से देखें तो भारत की आबादी में लगभग 80 प्रतिशत हिंदू हैं. हालांकि, मुसलमानों की तलाक दर 0.64 प्रतिशत है, जो हिंदुओं (0.20 प्रतिशत) से कहीं ज्यादा है.

यह भी पढ़ें- 'सेक्युलर कानून ही चलेगा', मुस्लिम महिलाओं को लेकर सुप्रीम कोर्ट की अहम टिप्पणी

Last Updated : Jul 10, 2024, 6:38 PM IST
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