सारणः विकिपीडिया पर हर किसी का नाम यू हीं नहीं आ जाता है, इसके लिए प्रसिद्धि कमायी जाती है. हम बिहार के ऐसे व्यक्तित्व के बारे में बताने जा रहे हैं जो कभी एक छोटे से गांव से निकल कर देश-विदेशों तक अपनी और बिहार की पहचान बनायी थी. उन्होंने बिहार की संस्कृति को आगे बढ़ाया. इतने फेमस हैं कि गूगल पर नाम सर्च करने से विकिपीडिया पर उनकी पूरे जीवन का उल्लेख लेकिन आज भी इनके परिवार के लोग सम्मान के लिए लड़ रहे हैं.
आज भी लोगों की जुबां पर हैं भिखारी ठाकुरः दरअसल, हम भोजपुरी के शेक्सपीयर भिखारी ठाकुर के बारे में बात कर रहे हैं जो किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं. भिखारी ठाकुर अब इस दुनियां में नहीं हैं लेकिन इनकी प्रसिद्धि की आज भी खूब चर्चा होती है. भिखारी ठाकुर के एक शिष्य स्वर्गीय राम चंद्र मांझी को साल 2021 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया. साल 2022 में रामचंद्र मांझी का निधन हो गया. इन्होंने भिखारी ठाकुर के सपना को खूब आगे बढाया.
10 साल की उम्र में बना ली थी मंडलीः दरअसल, भिखारी ठाकुर ने बिहार का फेमस डांस 'लौंडा नाच' को खूब प्रसिद्ध दिलाई. उन्होंने 10 साल की उम्र में ही अपनी नाटक मंडली बना ली थी. अपनी मंडली के साथ उन्होंने बिहार, यूपी और बंगाल सहित कई राज्यों में लौंडा नाच को प्रसिद्ध दिलायी लेकिन आज तक भिखारी ठाकुर को सम्मान नहीं मिला.
10 जुलाई को मनायी गयी पूण्यतिथिः भिखारी ठाकुर मूल रूप से बिहार के सारण जिले के कुतुबपुर के रहने वाले थे. इनका जन्म 18 दिसम्बर 1887 और निधन 10 जुलाई 1971 को हुआ. 10 जुलाई को भिखारी ठाकुर की पूण्यतिथि मनायी गयी. इस मौके पर एक बार फिर इनके पौत्र सुशील कुमार ने दादा को सम्मान दिलाने के लिए आवाज उठायी है. ईटीवी भारत से बातचीत में बताया कि जिले के डीएम से लेकर राज्यपाल तक गए लेकिन आज तक उनके बाबा को सम्मान नहीं दिला पाए.
गांव में सुविधाओं की कमीः सुशील कुमार बताते हैं कि आजादी के 70 साल बाद भी उनके गांव में सुविधाओं की कमी है. पहले तो आवागमन के लिए एकमात्र साधन नाव था, लेकिन पिछले दशक छपरा से आरा को जोड़ने वाला वीर कुंवर सिंह सेतु बनकर तैयार हुआ. तब जाकर उनके गांव कुतुबपुर दियारा को छपरा से सड़क मार्ग से आवागमन का साधन मिला लेकिन अभी भी कई सुविधाओं की कमी है.
सरकारी की योजना कागजों पर सिमटीः कुतुबपुर दियारा छपरा सदर अनुमंडल के अंतर्गत आता है. अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र है तो वहां कोई विशेष सुविधा नहीं है. प्राथमिक, मिडिल और स्कूल हाईस्कूल है लेकिन शिक्षक नहीं हैं. सरयू और गंगा में जब बाढ़ आती है तो मुख्यालय आने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है. सुशील बताते हैं कि आज भी यह गांव पिछड़ा हुआ है. हालांकि बिहार सरकार ने चार महापुरुषों के गांव को आदर्श बनाने के लिए 50-50 लाख रुपए देने की घोषणा की है लेकिन यह घोषणा कागजों पर सिमट गया.
पूण्यतिथि के नाम पर राशि का बंदरबांटः सुशील कुमार बताते हैं कि सारण जिला प्रशासन द्वारा प्रत्येक वर्ष पुण्यतिथि और जयंती के अवसर पर 7 लाख 50 हजार रुपए कला संस्कृति व युवा विभाग द्वारा दिया जाता है लेकिन उस राशि का भी बंदरबांट हो जाता है. आज भी भिखारी ठाकुर का पैतृक आवास जर्जर अवस्था में है. इसके मरम्मत के नाम पर भी कोई अनुदान जिला प्रशासन या राज्य सरकार ने उनके परिवार जनों को नहीं दिया है.
"मैं बाबा के सम्मान के लिए सारण के जिलाधिकारी से लेकर बिहार के राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर से मिल चुका हूं लेकिन अभी तक बाबा को कोई पुरष्कार नहीं मिला. केवल जयंती और पुण्यतिथि मनाने से क्या होगा? आज जो हमारे बाबा को सम्मान मिलना चाहिए वह सम्मान नहीं मिला. अगर आप लोग करें तो बाबा के लिए उच्च अधिकारियों से इस बात का गुहार जरूर लगाए की भोजपुरी के शेक्सपीयर को जो उचित सम्मान मिलना चाहिए." -सुशील कुमार, भिखारी ठाकुर का पौत्र
कई नाटक और कविता लिखेः भिखारी ठाकुर भोजपुरी के शेक्सपीयर के रूप में पहचान बनायी. कई नाटक और गीत लिखे हैं जो आज के समय में सटीक बैठता है. 'गबरघिचोर', 'विदेशिया', 'भाई विरोध', 'बेटी वियोग', 'बेटी बचाओ कलयुग प्रेम', 'गंगा स्नान', 'विधवा विलाप' आदि रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं. पांच भोजपुरी लोकप्रिय कविताएं 'भिखारी नाई', 'आस नईखे एको पाई', 'हमरा से होके के दीदार हो बलमुआ', 'चौखे चौखे वाले नैना कोर रे बटोहिया', 'नकिया सुगनवा के ठोर' सहित कई रचनाओं का सृजन किया.
देश-विदेशों तक बनायी पहचानः भिखारी ठाकुर की एक मंडली थी. मंडली में शामिल कलाकार घूम घूमकर नाटक और कार्यक्रम करते थे. अपने देश के साथ साथ सीमा पार भी गए. मॉरीशस, केन्या, सिंगापुर, नेपाल, ब्रिटिश गुयाना, सूरीनाम, युगांडा, म्यांमार, मैडागास्कर, दक्षिण अफ्रीका, फिजी, त्रिनिडाड और अन्य जगहों पर भी भिखारी ठाकुर और उनकी मंडली ने दौरा किया और अपनी संस्कृति को पहचान दिलाई.
विलुप्त हो रहा लौंडा नाचः बिहार का प्रसिद्ध लौंडा भिखारी ठाकुर की ही देन हैं. उनके निधन के बाद उनके शिष्यों ने इसे आगे बढ़ाया लेकिन उतनी पहचान नहीं मिली. धीरे धीरे यह बिहार से विलुप्त होने लगा. इसका सबसे बड़ा कारण सिनेमा और ऑर्केस्ट्रा का बढ़ना माना जाता है. इसके अलावा कहीं ना कहीं समाज भी इसके पीछे का कारण है. लौंडा नाच करने वाले पुरुष को समाज हंसी का पात्र समझते थे और उसे हीन भावना की नजर से देखते थे. यही कारण रहा कि लौंडा नाच धीरे धीरे खत्म हो गया और इसकी जगह थियेटर ने लिया.
यह भी पढ़ेंः
- खो गया भिखारी ठाकुर के नाच मंडली का बिदेसिया: पद्म श्री रामचंद्र मांझी का निधन
- जयंती विशेष: लौंडा डांस को दिलायी प्रसिद्धि, भोजपुरी को पूरे विश्व में भिखारी ठाकुर ने किया फेमस
- Chapra News: भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर की प्रतिमा को बदरंग करने की कोशिश, परिजनों ने कार्रवाई की मांग
- ये है भिखारी ठाकुर का प्रभाव, अमेरिका तक राकेश 'लौंडा नाच' का लहरा रहे परचम, बोले- 'लोग क्या कहते हैं, फर्क नहीं पड़ता'