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धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है, प्रस्तावना मामले में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी - SUPREME COURT

Supreme Court News: सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल किए जाने के खिलाफ याचिकाओं को खारिज कर दिया.

SC upholds inclusion of socialist and secular in Preamble
सुप्रीम कोर्ट (IANS)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 25, 2024, 7:41 PM IST

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक है, जो संवैधानिक व्यवस्था के स्वरूप को दर्शाने वाले मूल ताने-बाने में जटिल रूप से बुना हुआ है. शीर्ष अदालत ने वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल किए जाने के खिलाफ याचिकाओं को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की.

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कहा कि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) और एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में संविधान पीठ के फैसलों सहित इस न्यायालय के कई फैसलों ने माना है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है.

पीठ ने कहा कि राष्ट्र की 'धर्मनिरपेक्ष' प्रकृति धर्म से उत्पन्न या उससे जुड़ी प्रवृत्तियों और प्रथाओं को समाप्त करने से नहीं रोकती है. जब वे व्यापक जनहित में विकास और समानता के अधिकार में बाधा डालते हैं. अदालत ने कहा, "संक्षेप में, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक का वर्णन करती है, जो संवैधानिक व्यवस्था के पैटर्न को दर्शाने वाले मूल ताने-बाने में जटिल रूप से बुनी गई है."

पीठ ने सवाल किया कि ये याचिकाएं 2020 में दायर की गई थीं, प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के अभिन्न अंग बनने के 44 साल बाद, ये प्रार्थनाएं विशेष रूप से संदिग्ध हो गई हैं. पीठ ने कहा कि इसका तथ्य यह है कि इन शब्दों को व्यापक स्वीकृति मिली है, और इनके अर्थ को 'हम, भारत के लोग' बिना किसी संदेह के समझते हैं."

याचिकाकर्ताओं ने विभिन्न आधारों पर 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने को चुनौती दी थी, जैसे कि 1976 में इसे पूर्वव्यापी रूप से शामिल किया जाना, जिसके बाद मिथ्या की स्थिति की उत्पन्न हुई, क्योंकि संविधान को 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि संविधान सभा द्वारा 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को जानबूझकर त्याग दिया गया था, और 'समाजवादी' शब्द निर्वाचित सरकार में निहित आर्थिक नीति विकल्प को बाधित और प्रतिबंधित करता है.

उन्होंने कहा कि 1976 में 42वां संविधान संशोधन दोषपूर्ण और असंवैधानिक है, क्योंकि इसे 18 मार्च 1976 को समाप्त हुए लोकसभा के सामान्य कार्यकाल के बाद 2 नवंबर 1976 को आपातकाल के दौरान 'पारित' किया गया था. इसलिए, यह तर्क दिया जाता है कि संशोधनों को मंजूरी देने में लोगों की कोई इच्छा शामिल नहीं थी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना में किए गए संशोधनों ने निर्वाचित सरकारों द्वारा अपनाए गए कानून या नीतियों को प्रतिबंधित या बाधित नहीं किया है, बशर्ते कि ऐसी कार्रवाइयां मौलिक और संवैधानिक अधिकारों या संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन न करें. पीठ ने कहा, "इसलिए, हमें लगभग 44 वर्षों के बाद इस संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य नहीं नजर आता है."

पीठ ने कहा कि संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के तहत प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' तथा 'अखंडता' शब्द जोड़े गए थे. ये संशोधन 1976 में किए गए थे. संविधान का अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की अनुमति देता है. संशोधन करने की शक्ति निस्संदेह संसद के पास है. संशोधन करने की यह शक्ति प्रस्तावना तक फैली हुई है."

यह भी पढ़ें- दिल्ली-एनसीआर में GRAP-4 प्रतिबंधों में ढील नहीं, SC ने फिर से स्कूल शुरू करने पर विचार करने को कहा

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक है, जो संवैधानिक व्यवस्था के स्वरूप को दर्शाने वाले मूल ताने-बाने में जटिल रूप से बुना हुआ है. शीर्ष अदालत ने वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन के तहत संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को शामिल किए जाने के खिलाफ याचिकाओं को खारिज करते हुए यह टिप्पणी की.

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कहा कि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) और एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में संविधान पीठ के फैसलों सहित इस न्यायालय के कई फैसलों ने माना है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान की एक बुनियादी विशेषता है.

पीठ ने कहा कि राष्ट्र की 'धर्मनिरपेक्ष' प्रकृति धर्म से उत्पन्न या उससे जुड़ी प्रवृत्तियों और प्रथाओं को समाप्त करने से नहीं रोकती है. जब वे व्यापक जनहित में विकास और समानता के अधिकार में बाधा डालते हैं. अदालत ने कहा, "संक्षेप में, धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक का वर्णन करती है, जो संवैधानिक व्यवस्था के पैटर्न को दर्शाने वाले मूल ताने-बाने में जटिल रूप से बुनी गई है."

पीठ ने सवाल किया कि ये याचिकाएं 2020 में दायर की गई थीं, प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों के अभिन्न अंग बनने के 44 साल बाद, ये प्रार्थनाएं विशेष रूप से संदिग्ध हो गई हैं. पीठ ने कहा कि इसका तथ्य यह है कि इन शब्दों को व्यापक स्वीकृति मिली है, और इनके अर्थ को 'हम, भारत के लोग' बिना किसी संदेह के समझते हैं."

याचिकाकर्ताओं ने विभिन्न आधारों पर 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को जोड़ने को चुनौती दी थी, जैसे कि 1976 में इसे पूर्वव्यापी रूप से शामिल किया जाना, जिसके बाद मिथ्या की स्थिति की उत्पन्न हुई, क्योंकि संविधान को 26 नवंबर 1949 को अपनाया गया था. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि संविधान सभा द्वारा 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द को जानबूझकर त्याग दिया गया था, और 'समाजवादी' शब्द निर्वाचित सरकार में निहित आर्थिक नीति विकल्प को बाधित और प्रतिबंधित करता है.

उन्होंने कहा कि 1976 में 42वां संविधान संशोधन दोषपूर्ण और असंवैधानिक है, क्योंकि इसे 18 मार्च 1976 को समाप्त हुए लोकसभा के सामान्य कार्यकाल के बाद 2 नवंबर 1976 को आपातकाल के दौरान 'पारित' किया गया था. इसलिए, यह तर्क दिया जाता है कि संशोधनों को मंजूरी देने में लोगों की कोई इच्छा शामिल नहीं थी.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना में किए गए संशोधनों ने निर्वाचित सरकारों द्वारा अपनाए गए कानून या नीतियों को प्रतिबंधित या बाधित नहीं किया है, बशर्ते कि ऐसी कार्रवाइयां मौलिक और संवैधानिक अधिकारों या संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन न करें. पीठ ने कहा, "इसलिए, हमें लगभग 44 वर्षों के बाद इस संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य नहीं नजर आता है."

पीठ ने कहा कि संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 के तहत प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' तथा 'अखंडता' शब्द जोड़े गए थे. ये संशोधन 1976 में किए गए थे. संविधान का अनुच्छेद 368 संविधान में संशोधन की अनुमति देता है. संशोधन करने की शक्ति निस्संदेह संसद के पास है. संशोधन करने की यह शक्ति प्रस्तावना तक फैली हुई है."

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