पटनाः बिहार की हाजीपुर लोकसभा सीट 1977 में उस समय सुर्खियों में आई जब यहां से जनता पार्टी के टिकट पर रामविलास पासवान ने अभूतपूर्व मतों से जीत हासिल करते हुए अपना नाम गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में दर्ज कराया. तब से हाजीपुर और रामविलास एक-दूसरे की पहचान बन गये. रामविलास की उस खास सीट से इस बार उनके पुत्र चिराग मैदान में है और ये चुनाव उनके लिए लिटमस टेस्ट माना जा रहा है.
कड़े संघर्ष के बाद मिली सीटः हाजीपुर लोकसभा सीट से चिराग बाजी मारेंगे या नहीं ये तो 4 जून को फैसला चलेगा लेकिन सीट पर उम्मीदवारी को लेकर हुई दावेदारी में जरूर उन्होंने अपने चाचा पशुपति कुमार पारस को परास्त करने में सफलता हासिल की. दरअसल इस सीट को लेकर 2019 में हाजीपुर से सांसद बने पशुपति कुमार पारस और चिराग पासवान के बीच जबरदस्त प्रतिद्वंद्विता थी लेकिन चिराग को NDA का साथ मिला और बंटवारे में तरजीह देते हुए NDA ने चिराग को अपनी विरासत बचाने की जिम्मेदारी सौंप दी.
रामविलास ने पूरे परिवार को सियासत में किया सेटः 1977 में जीत का रिकॉर्ड कायम करनेवाले रामविलास पासवान ने जब सबसे अलग होकर अपनी खुद की पार्टी एलजेपी बनाई तो सबसे पहले अपने परिवार को ही सियासत में सेट किया. हालांकि उनके भाई पशुपति कुमार पारस ने भी 1977 में विधानसभा चुनाव जीतकर अपनी सियासी पारी शुरू कर दी थी. लेकिन 2014 के चुनाव में NDA के घटक दल के रूप में एलजेपी ने जिन 6 सीटों पर जीत दर्ज की उनमें तीन सांसद पासवान परिवार के ही थे.
2019 में भी परिवार के सभी लोग जीतेः 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यही कहानी दुहराई गयी. रामविलास पासवान स्वयं राज्यसभा गये तो लोकसभा चुनाव में हाजीपुर से पशुपति कुमार पारस, समस्तीपुर से रामचंद्र पासवान और जमुई से चिराग पासवान सांसद चुने गये. 2020 में रामचंद्र पासवान का निधन हुआ तो उपचुनाव में रामचंद्र पासवान के बेटे प्रिंस राज को मैदान में उतारा गया और वे भी संसद पहुंच गये. इस तरह रामविलास पासवान ने अपने पूरे परिवार को सियासत में पूरी तरह सेट कर दिया.
जब परिवार और पार्टी में अलग-थलग पड़े चिरागः इस बीच 8 अक्टूबर 2020 को रामविलास पासवान का निधन हो गया, जिसके बाद पार्टी की पूरी जिम्मेदारी एलजेपी संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष और रामविलास पासवान के पुत्र चिराग पासवान पर आ गयी. हालांकि रामविलास के रहते हुए ही चिराग पार्टी के एक्टिंग सुप्रीमो तो बन ही चुके थे.
2020 में एनडीए से अलग होकर चुनाव लड़ाः 2020 में ही बिहार विधानसभा के चुनाव हुए, जिसमें चिराग पासवान ने बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट का नारा देते हुए जेडीयू और सीएम नीतीश का विरोध करते हुए NDA से अलग राह अख्तियार की और अकेले चुनाव लड़ा. हालांकि इस चुनाव में बीजेपी के खिलाफ अधिकांश सीटों पर चिराग ने अपने कैंडिडेट नहीं खड़े किये.
2020 की हार के बाद मुश्किल में पड़े चिराग: चिराग को ऐसा लग रहा था कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में वो इतनी सीट हासिल कर लेंगे कि बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बना लेंगे. लेकिन चिराग पासवान की उम्मीदें तब धराशायी हो गयीं जब 137 सीटों पर लड़नेवाली एलजेपी के हिस्से में सिर्फ 1 सीट आई. चिराग ने अपना नुकसान तो किया ही, जेडीयू को खासा नुकसान पहुंचाया. हालांकि 125 सीटों के सहारे जैसे-तैसे बीजेपी और जेडीयू ने सरकार बनाने में सफलता हासिल कर ली.
विधानसभा में हार और पार्टी में टूटः बिहार विधानसभा चुनाव में हार का असर ये हुआ कि चिराग की अपनी पार्टी एलजेपी में ही विरोध शुरू हो गया और वो विरोध इस स्तर तक जा पहुंचा कि पार्टी टूट गयी. पार्टी टूटी क्या चिराग पूरी तरह अलग-थलग पड़ गये. चाचा पशुपति कुमार पारस, समस्तीपुर से सांसस चचेरे भाई प्रिंस राज सहित नवादा, वैशाली और खगड़िया के सांसदों ने भी चिराग का साथ छोड़ दिया और पांच सांसदों का एक नया गुट बना लिया.
शुरू हुई विरासत की जंगः एलजेपी में इस टूट के बाद पासवान खानदान में रामविलास पासवान की विरासत की जंग शुरू हुई. पशुपति कुमार के नेतृत्व में आरएलजेपी बनी तो चिराग पासवान ने एलजेपीआर बनाकर अकेले दम पर पार्टी को खड़ा करना शुरू किया.रामविलास पासवान के नाम पर सहानुभूति और समर्थन के लिए उन्होंने पूरे बिहार में आशीर्वाद यात्रा निकाली. इस दौरान चिराग पासवान को उनके समाज के साथ-साथ बिहार के युवा वर्ग का भी साथ मिला.
चिराग पासवानः मोदी के 'हनुमान': एलजेपी में टूट के बाद पशुपति कुमार पारस के साथ 5 सांसद होने के कारण केंद्र की सरकार में पारस को ही मंत्री पद भी मिला. चिराग को भले ही केंद्रीय कैबिनेट में जगह नहीं मिली लेकिन उन्होंने आधिकारिक रूप से NDA का साथ नहीं छोड़ा था. खासकर बीजेपी के बड़े नेताओं से उनके संबंध मधुर बने रहे.उन्होंने कई सार्वजनिक मंचों से अपने आप को मोदी का 'हनुमान' भी बताया. इतना ही नहीं बिहार विधानसभा की तीन सीटों के लिए हुए उपचुनाव में उन्होंने बीजेपी का साथ दिया और तीन में दो सीटें बीजेपी जीत भी गयी.इसके बाद ये फाइनल हो गया कि चिराग तो बीजेपी के साथ ही रहेंगे.
हाजीपुर सीट को लेकर मची खींचतानः इस बीच 2024 के लोकसभा चुनाव के एलान के ठीक पहले बिहार में सियासी समीकरण बदल गया और नीतीश के नेतृत्ववाला जेडीयू NDA का हिस्सा बन गया. इस ताजा सियासी समीकरण के बाद NDA में कई दल बढ़ गये, जिसके कारण सीटों के बंटवारे को लेकर कई पेच फंस गये. पशुपति पारस की आरएलजेपी और चिराग की एलजेपीआर के NDA का हिस्सा होने के कारण सबसे बड़ा पेच फंसा हाजीपुर लोकसभा सीट पर.
चिराग को मिला NDA का साथ: NDA में शामिल बीजेपी का शीर्ष नेतृत्व ये चाहता था कि चिराग और पारस दोनों आपस में बातचीत कर हाजीपुर सहित सभी सीटों पर आम सहमति कायम करें लेकिन ऐसा हुआ नहीं. न पशुपिता पारस और न ही चिराग पासवान हाजीपुर सीट छोड़ने पर राजी थे. पारस जहां खुद को रामविलास का उत्तराधिकारी बता रहे थे तो चिराग का दावा था कि पुत्र होने के नाते पिता की विरासत पर स्वाभाविक दावेदारी उन्हीं की बनती है. चाचा-भतीजे की इस लड़ाई में NDA का साथ भतीजे को मिला और आखिरकार हाजीपुर सीट चिराग को मिल गयी.
पहले नाराज हुए पारस, फिर मान गयेः चिराग न सिर्फ हाजीपुर सीट पाने में सफल रहे बल्कि NDA के सीट बंटवारे में एलजेपीआर को पांच सीटें मिल गयीं और चाचा पशुपति पारस की पार्टी को एक भी सीट नहीं दी गयी. इस सीट बंटवारे को लेकर नाराज पारस ने केंद्रीय कैबिनेट से इस्तीफा भी दे दिया. चर्चा हुई कि वो अब महागठबंधन के साथ जाएंगे लेकिन बाद में पशुपति पारस सहित आरएलजेपी के सभी नेताओं ने NDA के साथ ही रहने का फैसला किया.
रामविलास का गढ़ रहा है हाजीपुरः देश की सियासत में रामविलास पासवान और हाजीपुर एक-दूसरे की पहचान रहे. 1977 में 89.3 फीसदी हासिल करनेवाले रामविलास पासवान हाजीपुर लोकसभा सीट से 8 बार सांसद रहे तो 2019 में अपने भाई पशुपति कुमार पारस को भी खड़ा कर सांसद बनवाया.
खानदान की विरासत बचा पाएंगे चिराग ?: हाजीपुर लोकसभा सीट की उम्मीदवारी की दावेदारी में चिराग अपने चाचा पर भारी तो पड़ गये लेकिन अब उनके कंधों पर अपने खानदान की विरासत बचाने की महती जिम्मेदारी है. हाजीपुर लोकसभा सीट पर चिराग का मुकाबला आरजेडी के शिवचंद्र राम से है. इस सीट पर अपने 'हनुमान' के लिए पीएम मोदी भी चुनावी सभा कर चुके हैं. चिराग पासवान दावा कर रहे हैं कि न सिर्फ हाजीपुर बल्कि बिहार की सभी 40 सीटों पर NDA की जीत होगी.
चिराग का लिटमस टेस्टः चिराग पासवान के लिए 2024 लोकसभा का चुनाव किसी लिटमस टेस्ट से काम नहीं है. अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार वह एक ऐसा चुनाव लड़ रहे हैं जिस चुनाव में न तो उनके साथ उनके पिता रामविलास पासवान हैं और न ही परिवार का कोई अन्य सदस्य उनकी पीठ पर खड़ा है. पशुपति कुमार पारस, प्रिंस पासवान या पासवान परिवार का कोई अन्य सदस्य खुलकर उनके समर्थन में नहीं दिख रहा है.चिराग पासवान ने कई कई मौकों पर यह बताने का प्रयास भी किया कि इस संकट की घड़ी में उनके चाचा और भाइयों ने उनके साथ छोड़ दिया है. यदि कोई साथ दे रहा तो उनकी मां रीना पासवान और देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी.
क्या कहते हैं राजनीतिक विश्लेषक ?: वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ संजय कुमार का कहना है कि "चिराग पासवान के लिए 2024 लोकसभा का चुनाव सही मायने में चिराग पासवान के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है. चिराग पासवान ने बड़ी ही परिपक्वता के साथ परिस्थितियों को संभाला है और अपने आपको खुद NDA में स्थापित किया है. फिलहाल चिराग जिस बुद्धिमानी से फैसले ले रहे हैं लग रहा है कि वो रामविलास की विरासत संभालने में सफल होंगे."
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