पटना: बिहार सरकार ने आरक्षण मामले को लेकर पटना हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल कर दी है. पिछले दिनों दिल्ली में जदयू राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी जातीय गणना के बाद लागू हुए आरक्षण के लेकर प्रस्ताव को पास किया गया था. अब बिहार सरकार की ओर से पहल हुई है. बिहार में अगले साल विधानसभा चुनाव है और उससे पहले आरक्षण को लेकर लगातार सियासत जारी है.
पटना हाईकोर्ट से नीतीश सरकार को झटका: बिहार सरकार के आरक्षण के फैसले को पटना हाईकोर्ट से झटका लगा. आरक्षण का दायरा 50 से बढ़ाकर 65 प्रतिशत किए जाने पर हाईकोर्ट ने असहमति जतायी और उसे रद्द कर दिया. पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस की बेंच ने राज्य सरकार के फैसले के खिलाफ अपना निर्णय सुनाया. नीतीश सरकार शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में एससी, एसटी, ईबीसी और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए 65 प्रतिशत आरक्षण की हिमायती है. इस फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुनाया और इस फैसले के खिलाफ 2 जुलाई 2024 को राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है.
सुप्रीम कोर्ट पहुंची आरक्षण की लड़ाई: बिहार सरकार आरक्षण के मामले को अब सुप्रीम कोर्ट ले गई है. पटना हाईकोर्ट ने 65% आरक्षण को रद्द कर दिया था और इसी मामले को बिहार सरकार ने चुनौती दी है. पटना हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दीनू कुमार का कहना है कि हाईकोर्ट ने तर्क के साथ बिहार सरकार के फैसले को रद्द किया है. हाई कोर्ट ने साफ कहा है कि बिहार सरकार की ओर से 50% से बढ़ाकर आरक्षण 65% करना इलीगल है.
"बिहार सरकार ने 50 फीसदी आरक्षण को 65 प्रतिशत कर दिया. मंडल कमीशन के बाद इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला है. हाईकोर्ट ने पाया कि जो रिजर्वेशन का कैप बढ़ाया गया है वो असंवैधानिक है."- दीनू कुमार, वरिष्ठ अधिवक्ता, पटना हाईकोर्ट
एक्सपर्ट की राय: वहीं पटना हाईकोर्ट के सीनियर एडवोकेट आलोक कुमार सिन्हा का कहना है सुप्रीम कोर्ट अब पूरे मामले को फिर नए सिरे से देखेगी. उसमें सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण को लेकर जो पहले से फैसले दिए गए हैं उसे भी देखा जाएगा. पटना हाई कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसे भी देखा जाएगा और उसके बाद सुनवाई की जाएगी और फिर फैसला सुप्रीम कोर्ट देगा.
"इस सुनवाई में नौवीं अनुसूची का कोई लेना-देना नहीं है. यदि नौवीं अनुसूची में डाला भी जाता है तो सुप्रीम कोर्ट उसे भी देख सकता है. इसकी अपील को अनुसूची से कोई मतलब नहीं है."- आलोक कुमार सिन्हा, सीनियर एडवोकेट, पटना हाईकोर्ट
पटना हाईकोर्ट का आरक्षण रद्द करने पर तर्क: पटना हाईकोर्ट ने फैसले रद्द करने के दो आधार बताये थे. पहला बिहार में सरकारी नौकरी में पिछड़े वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है. कुल 20 लाख 49370 सरकारी कर्मचारियों में पिछड़े वर्ग के 14 लाख 4374 लोग नियुक्त हैं. यह कुल कर्मचारियों का 68.52% है. दूसरा आरक्षण 50% से बढ़ाने के लिए कई मुद्दों को ध्यान में रखने की जरूरत है, लेकिन बिहार सरकार ने कोई गहन अध्ययन या विश्लेषण नहीं कराया.
नीतीश सरकार का तर्क: राज्य सरकार ने कोर्ट में तर्क दिया कि जातीय सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि एससी और एसटी सहित पिछड़े वर्गों को और अधिक आरक्षण की जरूरत है. इन वर्गों के उत्थान के लिए कदम उठाना सरकार का दायित्व है. बिहार सरकार के तर्क को खारिज करते हुए आरक्षण को रद्द करते हुए पटना हाई कोर्ट ने कहा था कि सरकार सुप्रीम कोर्ट जाने के लिए स्वतंत्र है.
नये आरक्षण कानून में कब क्या हुआ: 1 जून 2022 जातीय सर्वे करने की अधिसूचना की घोषणा हुई. 7 से 21 जनवरी 2023 जातीय सर्वे का पहला चरण पूरा हुआ. 15 अप्रैल 2023 जाति आधारित सर्वे का दूसरा चरण शुरू हुआ. 4 में 2023 जातीय सर्वे पर पटना हाई कोर्ट ने रोक लगाई. 1 अगस्त 2023 पटना हाई कोर्ट ने जातीय सर्वे को वैध करार दिया. 2 अगस्त 2023 जातीय सर्वे का दूसरा चरण का काम शुरू हुआ.
21 अगस्त 2023 मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. 2 अक्टूबर 2023 जातीय सर्वे की पहली रिपोर्ट जारी की गई. 7 नवंबर 2023 विधानसभा में सर्वे रिपोर्ट पेश आरक्षण की सीमा सीएम नीतीश कुमार ने बढ़ाने की घोषणा की.9 नवंबर 2023 दोनों सदनों से नई आरक्षण कानून को पारित कराया गया.
21 नवंबर 2023 राज्यपाल ने नये आरक्षण कानून को मंजूरी दी. 1 दिसंबर 2023 हाई कोर्ट ने कानून पर रोक से इनकार किया. 4 मार्च से 11 मार्च लगातार सुनवाई के बाद कोर्ट ने अपना आदेश सुरक्षित कर लिया. 20 जून, 2024 मुख्य न्यायाधीश की खंडपीठ ने आरक्षण कानून को निरस्त कर दिया. 2 जुलाई, 2024 बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पटना हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ याचिका दायर की.
सरकारी नौकरियों में विभिन्न वर्गों की स्थिति: बिहार में नियुक्त सरकारी नौकरियों में विभिन्न वर्गों की स्थिति की बात करें तो पिछड़ा वर्ग को 30.32%, 22.5 3% अत्यंत पिछड़ा वर्ग है. वहीं 14.19% अनुसूचित जाति, 1.47 % अनुसूचित जनजाति और 31.48 % अनारक्षित वर्ग है.
देश के कई राज्यों में सीमा से अधिक कुछ जगह कम आरक्षण: देश के कई राज्यों में आरक्षण की सीमा अलग-अलग है. उत्तराखंड में 47% आरक्षण लागू है. पड़ोसी राज्य बंगाल में 55% तो यूपी में 60% आरक्षण लागू है. लक्षदीप एकमात्र ऐसा केंद्र शासित प्रदेश है जहां एसटी वर्ग के लिए 100% आरक्षण की व्यवस्था है. इसके अलावा पूर्वोत्तर राज्यों मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और अरुणाचल प्रदेश में 80% आरक्षण सिर्फ एसटी समुदाय के लिए लागू है. किसी अन्य को यहां आरक्षण नहीं है.
उत्तराखंड में सबसे कम आरक्षण: मणिपुर में 54% आरक्षण है. त्रिपुरा में सभी वर्गों को मिलाकर 60% आरक्षण की व्यवस्था है. पंजाब में 51% आरक्षण लागू है. देश में सबसे अधिक सिक्किम में 85 फ़ीसदी आरक्षण लागू है. राजस्थान में 64% आरक्षण लागू है. तमिलनाडु में 69% आरक्षण लागू है और इसमें 50% ओबीसी के लिए है. सबसे कम उत्तराखंड में 47% आरक्षण लागू है.
नौवीं अनुसूची में किन राज्यों ने मांग की: छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर नौंवी अनुसूची में नौकरियां और शैक्षणिक संस्थानों में बढ़ाया गया आरक्षण के 76% कोट की अनुमति देने वाले दो संशोधन विधेयक को शामिल करने की मांग की. झारखंड सरकार ने भी राज्य सरकार की नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाकर 77 फ़ीसदी कर दिया था और उसे संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करने की केंद्र मांग की थी. बिहार सरकार की ओर से भी नीतीश कुमार ने केंद्र को पत्र लिखकर आरक्षण की सीमा 65% बढ़ाने का जो कानून बना है उसे शामिल करने की मांग की थी.
नौवीं अनुसूची में शामिल करने की क्यों होती है मांग: संविधान की नौवीं अनुसूची में केंद्रीय और राज्य कानून की एक सूची है जिन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है . इससे पहले संविधान संशोधन अधिनियम 1951 द्वारा जोड़ा गया था पहले संशोधन में इस अनुसूची में कुल 13 कानून को जोड़ा गया था. बाद के विभिन्न संशोधनों के बाद इस अनुसूची में संरक्षित कानून की संख्या 284 हो गई है.
तमिलनाडु में 69% आरक्षण: 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की सीमा 50% निर्धारित कर दी थी. तमिलनाडु में 69% आरक्षण लागू है और उसके बारे में कहा जाता है कि उसे भी नवमी अनुसूची में शामिल किया गया है. तमिलनाडु की तरह ही बिहार सरकार भी चाहती है कि यहां के कानून को नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए जिससे न्यायालय में उसे चुनौती नहीं दी जा सके. लेकिन हाई कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता दीनू कुमार और आलोक कुमार सिन्हा का साफ कहना कि ऐसा नहीं है नौवीं अनुसूची मैं मैटर चल गया तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को रिव्यू करने का पावर खत्म हो जाएगा. पहले से ही यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है.
बिहार में आरक्षण की व्यवस्था: अत्यंत पिछड़ा के लिए 18 % को बढ़ाकर 25% किया गया वहीं ओबीसी को 12% से 18%,
अनुसूचित जाति को 16% से 20%, अनुसूचित जनजाति को एक प्रतिशत 2% किया गया था. बढ़ा हुआ आरक्षण बिहार में लागू भी हो गया था लेकिन पटना हाई कोर्ट के फैसले के बाद फिर से अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए 18% ओबीसी के लिए 12% अनुसूचित जाति के लिए 16% और अनुसूचित जनजाति के लिए एक प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था लागू हो जाएगी.
जयललिता के मार्ग पर चलेगी नीतीश सरकार?: 1992 में इंदिरा साहनी केस में SC का फैसला आया. कोर्ट ने साफ किया कि जातिगत आरक्षण 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता. कोर्ट ने संविधान के आर्टिकल 16(4) का जिक्र करते हुए फैसला सुनाया. 1993-94 में जयललिता सरकार ने मद्रास हाई कोर्ट का रुख किया. कोर्ट ने अगले सत्र से 50 फीसदी लिमिट नियम को लागू करने को कहा. उसके बाद जयललिता सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में में SLP दाखिल की. हालांकि SC से झटका लगा.
उसके बाद 1993 में विधानसभा का स्पेशल सेशन बुलाया गया और सेशन में प्रस्ताव पारित किया गया. तत्कालीन नरसिम्हा सरकार ने आरक्षण कानून को 9वीं अनुसूची में डाला. दरअसल 9वीं सूची में शामिल विषयों की अदालत समीक्षा नहीं कर सकती और ऐसे में तमिलनाडु में निर्बाध 69% आरक्षण पिछले 35 सालों से चला आ रहा है.
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