नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को फैसला सुनाया कि बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) और राज्य बार काउंसिल वकीलों से नामांकन शुल्क के रूप में हजारों रुपये नहीं ले सकते. शीर्ष अदालत ने कहा कि सामान्य श्रेणी के वकीलों के लिए नामांकन शुल्क 750 रुपये और एससी/एसटी श्रेणी के वकीलों के लिए 125 रुपये से अधिक नहीं हो सकता.
भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ जिसमें न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल थे, ने कहा कि राज्य बार काउंसिल निर्धारित राशि से अधिक नामांकन या विविध शुल्क नहीं ले सकते. पीठ ने कहा कि 'इस निर्णय का भावी प्रभाव होगा. राज्य बार काउंसिल को एकत्र की गई अतिरिक्त नामांकन फीस वापस करने की आवश्यकता नहीं है…'
सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि बार काउंसिल अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(एफ) के तहत स्पष्ट कानूनी शर्त से परे नामांकन शुल्क नहीं ले सकती. पीठ की ओर से फैसला सुनाते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि 'राज्य बार काउंसिल और बीसीआई निर्धारित नामांकन शुल्क के अलावा अन्य शुल्क की मांग नहीं कर सकते... गरिमा मौलिक समानता के लिए महत्वपूर्ण है.'
पीठ ने कहा कि 'व्यक्ति की गरिमा में व्यक्ति के अपनी क्षमता को पूरी तरह से विकसित करने का अधिकार शामिल है. किसी पेशे को अपनाने का अधिकार व्यक्ति की गरिमा का अभिन्न अंग है. नामांकन के लिए पूर्व शर्त के रूप में अत्यधिक नामांकन और विविध शुल्क वसूलना कानूनी पेशे में प्रवेश में बाधा उत्पन्न करता है.'
सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय विभिन्न राज्य बार काउंसिलों द्वारा ली जा रही अत्यधिक नामांकन फीस को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आया. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि संसद ने नामांकन शुल्क निर्धारित कर दिया है, इसलिए बार काउंसिल इसका उल्लंघन नहीं कर सकती. विस्तृत निर्णय मंगलवार को ही अपलोड किया जाएगा.
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि बीसीआई और राज्य बार काउंसिल कल्याण और विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त शुल्क लगा सकते हैं, लेकिन अधिवक्ता अधिनियम के तहत निर्धारित शुल्क से अधिक शुल्क नहीं ले सकते. पीठ ने कहा कि कुछ राज्य बार काउंसिल एक वकील को नामांकित करने के लिए 40,000 रुपये तक ले रहे हैं और कहा कि इस अत्यधिक शुल्क से उन वकीलों को अवसर से वंचित होना पड़ेगा, जो आबादी के गरीब, पिछड़े और हाशिए के वर्गों से आते हैं.