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धान का म्यूजियम: बालाघाट में किसान के पास मौजूद है 150 किस्म से अधिक धान के बीज - Balaghat Traditional Seed Museum

बालाघाट में एक किसान के पास करीब 150 देसी धान के बीज का म्यूजियम है. उन्होंने ईटीवी से बात करते हुए कम खर्च में अधिक पैदावार सहित देसी किस्म के धानों की खेती के कई लाभ बताये. उन्होंने कहा कि आज के हाइब्रिड ने परंपरागत खेती को अपने गिरफ्त में ले लिया है. जानिए 150 वैराइटी के धानों के बीज की संरक्षण के पीछे की पूरी कहानी...

BALAGHAT TRADITIONAL SEED MUSEUM
बालाघाट में है परंपरागत किस्म के धान का म्यूजियम (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Aug 29, 2024, 9:32 PM IST

बालाघाट: कुछ सालों पहले तक किसानों की लगाई गई धान की फसल रकबे को बेहतरीन खुशबू से सराबोर कर देती थी. इस तरह के देसी धान की किस्मों की भीनी भीनी खुशबू न केवल व्यक्ति के मन को प्रफुल्लित करती थी बल्कि भरपूर स्वाद और पोषण युक्त भी होती थी. इनसे प्रचुर मात्रा में आयरन और जिंक आदि भी मिलता था. लेकिन अब की स्थिति बिल्कुल अलग है. अब कृषि जगत को हाइब्रिड ने पूरी तरह से अपनी आगोश में लिया है. जिसके कारण परंपरागत देसी बीज विलुप्ति के कगार पर हैं. लेकिन विलुप्त होती इन परंपरागत देसी बीजों को सहेजने का कार्य कुछ किसानों ने किया है. जिनमें से एक बालाघाट जिले के किसान हैं, जिन्होंने 150 किस्मों की परंपरागत देसी धान के बीजों का संग्रहण और संरक्षण किया है. आईए जानते हैं आखिर कैसे इन परंपरागत देसी धान के बीजों का संरक्षण किसान द्वारा किया गया है...

किसान ने तैयार कर लिया है 150 देसी धान के बीज का म्यूजियम (ETV Bharat)

150 वैराइटी के धान बीज का म्यूजियम

बालाघाट जिले के आदिवासी बाहुल्य परसवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के एक छोटे से गांव के किसान राजकुमार चौधरी ने परंपरागत देसी किस्म की 150 धान की प्रजातियों का सरंक्षण किया है. ये अपनी जमीन पर इन सभी किस्म के धान की फसल तैयार करते हैं. राजकुमार की माने तो 2013 से उन्होंने देसी धानों के संरक्षण का कार्य प्रारंभ किया था. उन्होंने शुरुआत सिर्फ 13 किस्मों के धान से की थी, लेकिन आज उनके पास 150 किस्म के देसी बीज के साथ यूं कहे तो म्यूजियम है.

कृषक राजकुमार चौधरी ने ईटीवी भारत को बताया कि उन्होंने उन्ही परंपरागत देसी धान की किस्मों का संरक्षण किया है, जो पहले उनके दादा, परदादा खेतों में लगाया करते थे. जिसमें से ककरी, चिपड़ा, उरईबुटा, पांडी, सफरी, सटिया, गुरमुटिया, जीराशंकर, दुबराज, पीसो और लुचई जैसी कुछ खास प्रजातियों सहित करीब 150 धान बीज के किस्म शामिल हैं.

उन्होंने बताया कि "धान की इन वैराइटियों को संरक्षित करने का उद्देश्य यह है कि ये पुरातन काल से चली आ रही हैं. इनको हर साल लगा सकते हैं. लेकिन हाईब्रीड किस्म के धान को देखें तो इन्हें 1-2 साल के बाद बदलना ही पड़ता है. जिसके कारण आज की खेती खर्चीली होती जा रही है. इसलिए मैंने परंपरागत किस्मों को संरक्षित करने का फैसला लिया है."

इन बातों का रखना होता विशेष ध्यान

देसी परंपरागत धान की किस्मों के संरक्षण को लेकर उनका कहना है कि क्रॉस पॉलिनेशन का वे विशेष ध्यान रखते हैं. जिसके लिए फसलों के बीच डिस्टेंस बनाकर रखते हैं. इसके लिए हर किस्म के धान के बीच एक से डेढ़ फीट की दूरी रखकर लगाते हैं. इसक साथ ही उसके चारों ओर ऐसी किस्म के धान लगाते हैं, जिसकी पुष्पान तिथि कम से कम 10-15 दिन हो. पुष्पान तिथि का मतलब है कि फूल आने का समय है. अगर एक साथ एक समान पुष्पान तिथि वाले बीज लगाए जाएं तो उनमें क्रॉस पॉलिनेशन हो जाता है, जिससे वे किस्में मिश्रित हो जाती हैं.

कम लागत में अच्छी पैदावार

देसी परंपरागत बीजों की खेती करने में किसान को लागत कम लगती है. किसान घर में उत्पादन किए गए फसल का अगले साल बीज के रूप में इस्तेमाल कर सकता है. इसको हर साल बाजार से खरीदने की जरूरत नहीं होती है. भविष्य में यदि ये बीज बाजार में नहीं मिल रहे हैं, तो ऐसी स्थिति में किसान अपने घर की बीज को ही बार-बार भी उपयोग कर सकता है.

इसके अलावा हाइब्रिड धान में रासायनिक खाद के अलावा जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग अधिक किया जाता है, जो कि महंगे भी होते हैं. लेकिन देसी किस्म की फसल में गोबर खाद और अन्य देसी जैविक खाद से ही उत्पादन बेहतर मिल जाता है. वहीं, किसी प्रकार की बीमारी की आशंका भी नहीं रहती है. इसलिए जहरीले कीटनाशकों के उपयोग का सवाल ही नहीं है और कम लागत में फसल अच्छी उत्पादन देती है.

देसी किस्म स्वादिष्ट और पौष्टिक

हाइब्रिड धान में भारी मात्रा में रासायनिक खाद का उपयोग किया जा रहा है. जिससे मिट्टी की उत्पादन क्षमता तो कम हो ही रही है, इसके साथी ही पानी भी दूषित हो रहा है और वातावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है. वहीं, परंपरागत देसी किस्मों की खेती में मछली भी पल रही है. हाइब्रिड धान में न्यूट्रिएंट्स बहुत कम है, जबकि देसी धान के चावल स्वादिष्ट होते हैं और अलग अलग प्रकार के धानों में अलग अलग प्रकार के न्यूट्रिशन हैं. जैसे छिन्दीकपूर एक देसी किस्म का धान है जो काला होता है, लेकिन चावल इसका सफेद ही होता है. इसमें भरपूर आयरन पाया जाता है. एक खारा किस्म का धान होता है जिसकी पत्तियां भी खाई जा सकती है. ये खाने में स्वादिष्ट होती हैं और इसका कलर बैंगनी होता है. इनमें कुछ सुगंधित और मोटे धान की किस्म भी हैं, जो पोहा बनाने के काम आते हैं.

साल दर साल बढ़ा रहे धान की किस्म

राजकुमार चौधरी ने आगे कहा कि "वे हर साल 10 किस्म की परंपरागत देसी धान की वैराइटि बढ़ाते हैं. उनकी इस देसी तकनीक का अनुसरण हर वर्ष 20 से 30 किसान कर रहे हैं. इसके साथ ही वे अपनी डायरी मेंटेन करते हैं, जिसमें उन कृषकों के नाम नोट करते हैं, जो उनके पास से देसी किस्म का धान लेकर जाते हैं. उन्होंने बताया कि अगले साल आने वाले दूसरे किसान जब भी देसी बीज की मांग करते हैं, तो उन्हीं किसानों का नम्बर दे देते हैं, जिन्होंने पिछली बार उनके पास से देसी धान लेकर गए थे और अपने खेत में लगाया था. क्योंकि उनके पास 150 किस्म के धान हैं और प्रत्येक साल सभी किस्म के धान की बुआई करना संभव नहीं है. जिसके चलते करीब 10-10 किस्मों के धान की बुआई कर उसकी मात्रा बढ़ाकर हर साल किसानों को देते हैं."

खेती आधारित आयोजन से मिली प्रेरणा

राजकुमार बताते हैं कि "परंपरागत देसी किस्म की धान के बीजों का संरक्षण करने की प्रेरणा उन्हें खेती आधारित एक कार्यक्रम के आयोजन से मिली. आयोजन में चर्चा के दौरान बताया गया कि अब बीजों का निजीकरण हो रहा है. बीज अब कंपनियों के हाथ में जा रहे हैं. अमेरिका और यूएस जैसे देशों में तो बीज रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज बनाया जा रहा है, जहां सारा बीज रखा जा रहा है. वहीं, किसानों को बीज स्टोरेज की अनुमति नहीं है. लेकिन भारत में कोई पाबंदी नहीं है इसलिए आने वाले समय के लिए देसी किस्म के धान बीज का संरक्षण करने की सोचा. इसे अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाने की प्रयास भी जारी है." उन्होंने बताया कि वे 2013 में 13 देसी किस्म धान बीज के साथ संरक्षण की शुरुआत की थी.

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हाइब्रिड के गिरफ्त में कृषि जगत

जानकारों के मुताबिक पारंपरिक देशी बीज लगाने में जोखिम बिल्कुल कम रहता है. इसके साथ ही देसी बीज का उपयोग स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत अच्छा होता है. बताया जाता है कि अगर बारिश कम भी हुई तो देसी धान को लगाने पर किसानों को क्षति की गुंजाइश नहीं होती है. हालांकि वर्तमान समय में हाइब्रिड ने कृषि जगत को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. जिसके चलते परंपरागत देसी बीज विलुप्त होते चले गए हैं. यहां तक कि अब नई पीढ़ी इन पारंपरिक देसी बीजों का नाम तक नहीं जानती है. यह एक कृषि प्रधान देश के लिए चिंता का विषय है. इसलिए प्रकृति और अन्य प्राणियों सहित खुद की सेहत के लिए अब समय आ गया है कि हम रासायनिक खेती को अलविदा कर देसी और परंपरागत तरीकों को अपनाएं.

बालाघाट: कुछ सालों पहले तक किसानों की लगाई गई धान की फसल रकबे को बेहतरीन खुशबू से सराबोर कर देती थी. इस तरह के देसी धान की किस्मों की भीनी भीनी खुशबू न केवल व्यक्ति के मन को प्रफुल्लित करती थी बल्कि भरपूर स्वाद और पोषण युक्त भी होती थी. इनसे प्रचुर मात्रा में आयरन और जिंक आदि भी मिलता था. लेकिन अब की स्थिति बिल्कुल अलग है. अब कृषि जगत को हाइब्रिड ने पूरी तरह से अपनी आगोश में लिया है. जिसके कारण परंपरागत देसी बीज विलुप्ति के कगार पर हैं. लेकिन विलुप्त होती इन परंपरागत देसी बीजों को सहेजने का कार्य कुछ किसानों ने किया है. जिनमें से एक बालाघाट जिले के किसान हैं, जिन्होंने 150 किस्मों की परंपरागत देसी धान के बीजों का संग्रहण और संरक्षण किया है. आईए जानते हैं आखिर कैसे इन परंपरागत देसी धान के बीजों का संरक्षण किसान द्वारा किया गया है...

किसान ने तैयार कर लिया है 150 देसी धान के बीज का म्यूजियम (ETV Bharat)

150 वैराइटी के धान बीज का म्यूजियम

बालाघाट जिले के आदिवासी बाहुल्य परसवाड़ा विधानसभा क्षेत्र के एक छोटे से गांव के किसान राजकुमार चौधरी ने परंपरागत देसी किस्म की 150 धान की प्रजातियों का सरंक्षण किया है. ये अपनी जमीन पर इन सभी किस्म के धान की फसल तैयार करते हैं. राजकुमार की माने तो 2013 से उन्होंने देसी धानों के संरक्षण का कार्य प्रारंभ किया था. उन्होंने शुरुआत सिर्फ 13 किस्मों के धान से की थी, लेकिन आज उनके पास 150 किस्म के देसी बीज के साथ यूं कहे तो म्यूजियम है.

कृषक राजकुमार चौधरी ने ईटीवी भारत को बताया कि उन्होंने उन्ही परंपरागत देसी धान की किस्मों का संरक्षण किया है, जो पहले उनके दादा, परदादा खेतों में लगाया करते थे. जिसमें से ककरी, चिपड़ा, उरईबुटा, पांडी, सफरी, सटिया, गुरमुटिया, जीराशंकर, दुबराज, पीसो और लुचई जैसी कुछ खास प्रजातियों सहित करीब 150 धान बीज के किस्म शामिल हैं.

उन्होंने बताया कि "धान की इन वैराइटियों को संरक्षित करने का उद्देश्य यह है कि ये पुरातन काल से चली आ रही हैं. इनको हर साल लगा सकते हैं. लेकिन हाईब्रीड किस्म के धान को देखें तो इन्हें 1-2 साल के बाद बदलना ही पड़ता है. जिसके कारण आज की खेती खर्चीली होती जा रही है. इसलिए मैंने परंपरागत किस्मों को संरक्षित करने का फैसला लिया है."

इन बातों का रखना होता विशेष ध्यान

देसी परंपरागत धान की किस्मों के संरक्षण को लेकर उनका कहना है कि क्रॉस पॉलिनेशन का वे विशेष ध्यान रखते हैं. जिसके लिए फसलों के बीच डिस्टेंस बनाकर रखते हैं. इसके लिए हर किस्म के धान के बीच एक से डेढ़ फीट की दूरी रखकर लगाते हैं. इसक साथ ही उसके चारों ओर ऐसी किस्म के धान लगाते हैं, जिसकी पुष्पान तिथि कम से कम 10-15 दिन हो. पुष्पान तिथि का मतलब है कि फूल आने का समय है. अगर एक साथ एक समान पुष्पान तिथि वाले बीज लगाए जाएं तो उनमें क्रॉस पॉलिनेशन हो जाता है, जिससे वे किस्में मिश्रित हो जाती हैं.

कम लागत में अच्छी पैदावार

देसी परंपरागत बीजों की खेती करने में किसान को लागत कम लगती है. किसान घर में उत्पादन किए गए फसल का अगले साल बीज के रूप में इस्तेमाल कर सकता है. इसको हर साल बाजार से खरीदने की जरूरत नहीं होती है. भविष्य में यदि ये बीज बाजार में नहीं मिल रहे हैं, तो ऐसी स्थिति में किसान अपने घर की बीज को ही बार-बार भी उपयोग कर सकता है.

इसके अलावा हाइब्रिड धान में रासायनिक खाद के अलावा जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग अधिक किया जाता है, जो कि महंगे भी होते हैं. लेकिन देसी किस्म की फसल में गोबर खाद और अन्य देसी जैविक खाद से ही उत्पादन बेहतर मिल जाता है. वहीं, किसी प्रकार की बीमारी की आशंका भी नहीं रहती है. इसलिए जहरीले कीटनाशकों के उपयोग का सवाल ही नहीं है और कम लागत में फसल अच्छी उत्पादन देती है.

देसी किस्म स्वादिष्ट और पौष्टिक

हाइब्रिड धान में भारी मात्रा में रासायनिक खाद का उपयोग किया जा रहा है. जिससे मिट्टी की उत्पादन क्षमता तो कम हो ही रही है, इसके साथी ही पानी भी दूषित हो रहा है और वातावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ रहा है. वहीं, परंपरागत देसी किस्मों की खेती में मछली भी पल रही है. हाइब्रिड धान में न्यूट्रिएंट्स बहुत कम है, जबकि देसी धान के चावल स्वादिष्ट होते हैं और अलग अलग प्रकार के धानों में अलग अलग प्रकार के न्यूट्रिशन हैं. जैसे छिन्दीकपूर एक देसी किस्म का धान है जो काला होता है, लेकिन चावल इसका सफेद ही होता है. इसमें भरपूर आयरन पाया जाता है. एक खारा किस्म का धान होता है जिसकी पत्तियां भी खाई जा सकती है. ये खाने में स्वादिष्ट होती हैं और इसका कलर बैंगनी होता है. इनमें कुछ सुगंधित और मोटे धान की किस्म भी हैं, जो पोहा बनाने के काम आते हैं.

साल दर साल बढ़ा रहे धान की किस्म

राजकुमार चौधरी ने आगे कहा कि "वे हर साल 10 किस्म की परंपरागत देसी धान की वैराइटि बढ़ाते हैं. उनकी इस देसी तकनीक का अनुसरण हर वर्ष 20 से 30 किसान कर रहे हैं. इसके साथ ही वे अपनी डायरी मेंटेन करते हैं, जिसमें उन कृषकों के नाम नोट करते हैं, जो उनके पास से देसी किस्म का धान लेकर जाते हैं. उन्होंने बताया कि अगले साल आने वाले दूसरे किसान जब भी देसी बीज की मांग करते हैं, तो उन्हीं किसानों का नम्बर दे देते हैं, जिन्होंने पिछली बार उनके पास से देसी धान लेकर गए थे और अपने खेत में लगाया था. क्योंकि उनके पास 150 किस्म के धान हैं और प्रत्येक साल सभी किस्म के धान की बुआई करना संभव नहीं है. जिसके चलते करीब 10-10 किस्मों के धान की बुआई कर उसकी मात्रा बढ़ाकर हर साल किसानों को देते हैं."

खेती आधारित आयोजन से मिली प्रेरणा

राजकुमार बताते हैं कि "परंपरागत देसी किस्म की धान के बीजों का संरक्षण करने की प्रेरणा उन्हें खेती आधारित एक कार्यक्रम के आयोजन से मिली. आयोजन में चर्चा के दौरान बताया गया कि अब बीजों का निजीकरण हो रहा है. बीज अब कंपनियों के हाथ में जा रहे हैं. अमेरिका और यूएस जैसे देशों में तो बीज रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज बनाया जा रहा है, जहां सारा बीज रखा जा रहा है. वहीं, किसानों को बीज स्टोरेज की अनुमति नहीं है. लेकिन भारत में कोई पाबंदी नहीं है इसलिए आने वाले समय के लिए देसी किस्म के धान बीज का संरक्षण करने की सोचा. इसे अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाने की प्रयास भी जारी है." उन्होंने बताया कि वे 2013 में 13 देसी किस्म धान बीज के साथ संरक्षण की शुरुआत की थी.

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हाइब्रिड के गिरफ्त में कृषि जगत

जानकारों के मुताबिक पारंपरिक देशी बीज लगाने में जोखिम बिल्कुल कम रहता है. इसके साथ ही देसी बीज का उपयोग स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से बहुत अच्छा होता है. बताया जाता है कि अगर बारिश कम भी हुई तो देसी धान को लगाने पर किसानों को क्षति की गुंजाइश नहीं होती है. हालांकि वर्तमान समय में हाइब्रिड ने कृषि जगत को अपनी गिरफ्त में ले लिया है. जिसके चलते परंपरागत देसी बीज विलुप्त होते चले गए हैं. यहां तक कि अब नई पीढ़ी इन पारंपरिक देसी बीजों का नाम तक नहीं जानती है. यह एक कृषि प्रधान देश के लिए चिंता का विषय है. इसलिए प्रकृति और अन्य प्राणियों सहित खुद की सेहत के लिए अब समय आ गया है कि हम रासायनिक खेती को अलविदा कर देसी और परंपरागत तरीकों को अपनाएं.

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