वाराणसीः काशी हिंदू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान के सूक्ष्म जीव विज्ञान विभाग को लाइलाज घावों के इलाज के शोध में बड़ी सफलता मिली है. ये शोध अमेरिका के संघीय स्वास्थ्य विभाग के राष्ट्रीय जैवप्रौद्योगिकी सूचना केन्द्र में 5 जनवरी, 2022 को प्रकाशित हुआ है.
किसी घाव को चोट के कारण त्वचा या शरीर के अन्य ऊतकों में दरार के रूप में परिभाषित किया जाता है. तीन महीने से ज्यादा पुराने घाव संक्रमित होते रहते हैं. यह अतिसंवेदनशील होते हैं. ये घाव ही बड़ी बीमारी का कारण बनते हैं. यह एक वैश्विक समस्या है. केवल संयुक्त राज्य अमेरिका, (यूएस) में त्वचा संक्रमण की प्रत्यक्ष चिकित्सा लागत लगभग 75 बिलियन अमेरिकी डॉलर है. इस राशि से 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर पुराने घाव के उपचार पर खर्च किया जाता है.
बायोफिल्म का गठन इन घावों के बने रहने का प्राथमिक कारण है. इनके इलाज में परंपरागत एंटीबायोटिक चिकित्सा असर नहीं करती है. ऐसे में बैक्टीरियोफेज थेरेपी एंटीबायोटिक एक समाधान के रूप में सामने आई है. बैक्टीरियोफेज एमडीआर जीवाणु संक्रमण के उपचार के लिए वैकल्पिक रोगाणुरोधी चिकित्सा के रूप में कई संभावित लाभ प्रदर्शित करते हैं. इसकी दवा वास्तव में असरकारक मानी जा रही है. प्रो. गोपाल नाथ के नेतृत्व वाली वैज्ञानिकों की टीम ने जानवरों और नैदानिक अध्ययनों में तीव्र और पुराने संक्रमित घावों की फेज थेरेपी की है. टीम को चूहों और खरगोशों पर किए गए परीक्षण में सफलता मिली है.