लखनऊ :बड़ी हास्यास्पद बात है की प्रदेश की बहुसंख्यक आबादी गांव में निवास करती है और नीतियां बनती हैं एक चौथाई शहरी आबादी के लिए. 2011 में हुई जनगणना का संदर्भ लें तो उस समय देश की कुल आबादी लगभग 20 करोड़ थी, जिसमें 15.51 करोड़ जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों की थी और महज 4.45 करोड़ जनसंख्या शहरी थी. अब अनुमान है कि प्रदेश की जनसंख्या 25 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुकी होगी. स्वाभाविक है कि इसी रेशियो में शहरी और ग्रामीण जनसंख्या बढ़ी होगी. 14 अक्टूबर 2014 को तत्कालीन समाजवादी पार्टी की सरकार में माध्यमिक शिक्षा मंत्री रहे महबूब अली ने घोषणा की कि अब माध्यमिक शिक्षा परिषद यानी यूपी बोर्ड का सत्र जुलाई के बजाय अप्रैल से शुरू होगा. यह फैसला ग्रामीण क्षेत्रों में पढ़ाई करने वाले करोड़ों छात्रों के लिए न तो मुफीद था और न ही समझ में आने वाला. हां शहरों में उन कॉन्वेंट स्कूलों की बांछें इस फैसले से जरूर खिल गईं, जो मोटी फीस वसूल करते हैं. शायद इस फैसले के पीछे यही ताकतें काम कर रही थीं.
तत्कालीन मंत्री ने इस फैसले के पीछे जो तर्क दिया वह और भी हास्यास्पद था. उनका कहना था कि सीबीएसई की तर्ज पर यूपी बोर्ड के छात्रों का भी समय बर्बाद न हो और वह भी अप्रैल और मई में पढ़ाई करें. शायद मंत्री जी को दो बातों का रंच मात्र भी अनुमान नहीं है. एक तो अधिकांश सीबीएसई स्कूल शहरी क्षेत्रों में शिक्षण कार्य कर रहे हैं, जहां एक मध्यम या उच्च वर्ग के परिवार ही अपने बच्चों को शिक्षा दिलाते हैं. दूसरी बात यूपी बोर्ड कभी भी समय से अपने रिजल्ट नहीं दे पाता, तो अप्रैल में पढ़ाई होगी कैसे? इसी वर्ष अप्रैल के तीसरे सप्ताह में यूपी बोर्ड दसवीं और बारहवीं का नतीजा आया है. स्वाभाविक है की मई की भीषण गर्मी में पढ़ाई संभव नहीं है. जून में छुट्टियां ही रहती हैं. इसलिए पढ़ाई तो जुलाई से ही शुरू होगी. हां, जहां तक फीस का विषय है, जुलाई माह में एडमिशन लेने वाले छात्र मई और जून माह की फीस विद्यालयों को देने में आनाकानी करते थे. शायद इसीलिए ताकतवर निजी स्कूलों के संघ ने अप्रैल से सत्र शुरू कराने की कवायद की. अभी मई का महीना शुरू भी नहीं हुआ है कि जिलाधिकारी स्तर पर गर्मी को देखते हुए स्कूलों को लेकर दिशा-निर्देश जारी किए जाने लगे हैं. खुद सोचिए कि मई में स्थिति क्या होगी?
इस तस्वीर का एक दूसरा और बहुत बड़ा पहलू भी है. जिसे शायद सुख-सुविधाओं में रहने वाले मंत्री और अधिकारी महसूस ही नहीं कर सकते! अप्रैल-मई के महीने में फसलों की कटान होती है. इस वक्त गांव में किसी भी किसान परिवार का छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा सदस्य कृषि कार्यों में ही लगा होता है. साल भर की खाद्य सामग्री हर कोई दैवी आपदा आने से पहले अपने घर में ले आना चाहता है. छोटे बच्चे खेतों में शीला (गेहूं की टूटी बालियों को एकत्र करना) बीनने का काम करते हैं. ऐसे में एक एक बच्चा दिनभर में दो-चार सौ रुपये की कमाई कर लेता है. महिलाएं खाना बनाकर खेतों में काम कर रहे पुरुषों के लिए वहीं लेकर जाती हैं. कोई सरसों सहेज रहा होता है, तो कोई आलू. कोई पशुओं के लिए चारा कोठियों में भर लेना चाहता है तो कोई दूसरे घर के जरूरी इंतजाम करने में लगा है. माध्यमिक शिक्षा विभाग को कभी सर्वे कराना चाहिए अप्रैल और मई माह में कितने विद्यार्थी कक्षा में आते हैं? हकीकत खुद सामने आ जाएगी. यही नहीं गांवों में ज्यादातर कक्षा नौ से लेकर स्नातक तक दाखिले जुलाई में ही होते हैं. सरकारी तंत्र को एक बार इस हकीकत को भी देखना और परख लेना चाहिए था. अप्रैल, मई और जून के महीनों में ही शादी-ब्याह का भी मौसम होता है. स्वाभाविक है की इन आयोजनों के लिए भी बच्चे और परिवार अवकाश चाहते हैं. फिर महज चंद शहरी स्कूलों और उनकी कमाई के लिए इतने बड़े फैसले क्यों? यह एक जायज सवाल तो बनता ही है.
शिक्षक डॉ दिलीप अग्निहोत्री
इस संबंध में राजधानी के प्रतिष्ठित शिक्षक डॉ दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं 'शैक्षणिक सत्र की पुरानी व्यवस्था ही सही थी. हमारी पीढ़ी के लोग उसी में पढ़े हैं. गर्मियों में पढ़ाई में मन जमाना मुश्किल होता था. इसलिए ग्रीष्म अवकाश भारतीय परिवेश के अनुकूल लगता था. जुलाई से नया सत्र नए उत्साह से शुरू होता था. ग्रामीण क्षेत्रों में इस दौरान विवाह और कृषि कार्य सम्पन्न हो चुके होते थे. शहरों में रहने वाले धनी परिवार के लोग हिल स्टेशन जाते थे, अन्य परिवारों के बच्चे गांव निकल जाते थे. गांवों से संपर्क बना रहता था. अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों ने विदेशों की नकल की. इसमें नए सत्र की वह उमंग दिखाई नहीं देती. साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों के स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों को अप्रैल-मई के महीनों में कृषि कार्य से फुर्सत ही नहीं मिलती कि वह पढ़ाई में समय दे सकें. जुलाई का सत्र सर्वथा उचित और बेहतर था. इस पर पुनर्विचार करने की जरूरत है.'
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